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विदेश/ नेपाल
नेपाल में एक बार फिर से राजनीतिक अस्थिरता के आसार दिख रहे हैं। सरकार स्थानीय निकायों के चुनाव कराने पर आमादा है, तो मधेशी मोर्चा कह रहा है कि मधेशियों को जब तक उनका हक नहीं मिलेगा, तब तक वे इसका विरोध करते रहेंगे
ल्ल प्रो. सतीश कुमार
नेपाल सरकार ने आगामी 14 मई को स्थानीय निकायों के चुनाव कराने की घोषणा की है। लेकिन मधेशी मोर्चा ने इन चुनावों का विरोध करना शुरू कर दिया है। पिछले दिनों एकीकृत लोकतांत्रिक मधेशी मोर्चा (यूडीएमएफ) ने दक्षिणी नेपाल के बीरगंज इलाके में प्रदर्शन किया। इस मोर्चे में सात मधेशी दल शामिल हैं। मोर्चा ने 16 दिन तक प्रदर्शन करने की घोषणा की है। सद्भावना पार्टी के उपाध्यक्ष ईश्वर यादव ने कहा, ''थोपे गए चुनाव का कोई महत्व नहीं होगा। तराई-मधेशी क्षेत्र में यूडीएमएफ चुनाव नहीं होने देगा।'' उसने पांच मार्च को दक्षिणी नेपाल के 20 जिलों में बंद का आह्वान किया था। यूडीएमएफ ने 4 अप्रैल को पूरे देश में मशाल जुलूस निकाला। संविधान में संशोधन की मांग कर रहे मोर्चा ने प्रदर्शन के दौरान प्रधानमंत्री प्रचंड का पुतला भी जलाया। नेपाल में परिस्थितियां गंभीर होती जा रही हैं। इस स्थिति के लिए प्रचंड सरकार की वादाखिलाफी बहुत हद तक जिम्मेदार है। सरकार ने जो वादे किए थे, उनमें से ज्यादातर पूरे नहीं हुए हैं।
उल्लेखनीय है कि संविधान सभा की अवधि जनवरी, 2018 को खत्म हो रही है। उसके पहले स्थानीय और क्षेत्रीय चुनाव होने अनिवार्य हैं। लेकिन परिस्थितियां बेकाबू होती जा रही हैं। इन हालातों में चुनाव हो पाएंगे या नहीं, कुछ कहा नहीं जा सकता है। आखिर इन परिस्थितियों के लिए दोषी कौन है, यह प्रश्न ज्यादा महत्वपूर्ण है।
इस विवाद का कारण है संघीय व्यवस्था में बदलाव लाना। मधेशी समुदाय का मानना है कि एक राजनीतिक साजिश के तहत उनके हितों की हत्या की गई। मधेशी समुदाय का प्रभाव दक्षिण नेपाल में है, जिसकी सीमाएं भारत के तीन राज्यों से मिलती हैं। उनकी जनसंख्या तकरीबन 56 लाख के करीब है। उनका जमीनी विस्तार महज 17 प्रतिशत तक सिमटा हुआ है। ऐसे हालात में उनकी राजनीतिक शक्ति को कमजोर करने के लिए संविधान में जनसंख्या और क्षेत्र दोनों को राजनीतिक सीमांकन की इकाई बना दिया गया। बात पहले जनसंख्या की हुई थी। चूंकि जनसंख्या का आधार नेपाली संसद में मधेशियों के पक्ष में जाता इसलिए उसको खंडित किया गया।
नेपाल की राजनीति में पहाड़ी लोगों का वर्चस्व रहा है। तीन महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों के नेता भी पहाड़ी मूल के हैं। पर जब बात मधेशी समुदाय की आती है तो इन दलों में एक अबूझ समझौता हो जाता है, ताकि मधेशी समुदाय को संसद के गलियारे से दूर रखा जा सके। इस समुदाय का भारत के साथ रोटी-बेटी का संबंध है। इनमें शादियां आज भी होती हैं। जब बात मधेशी की आती है तो दोष भारत पर मढ़ दिया जाता है। अगर वर्तमान में नेपाली संविधान के प्रारूप को देखें तो पता चलेगा कि बड़ी चालाकी से मधेशियों को सत्ता से दूर रखने की जुगत की गई है। इस चालाकी ने मधेशियों की भावी पीढ़ी को भी हर तरह से कमजोर और लाचार बना दिया है। दुर्भाग्यवश मधेशी आंदोलन भी दो-फाड़ हो चुका है। एक खेमा अतिवादियों का है, जो एक अलग मधेश प्रदेश बनाने की मांग कर रहा है, दूसरा उदारवादियों का है, जो संविधान में बदलाव के साथ अपने राजनीतिक अधिकारों की मांग कर रहा है। दुविधा राजनीतिक मानसिकता की है, खेल सत्ता का है। पहाड़ी वर्चस्व की राजनीति किसी भी तरह से मधेशी समुदाय को प्रधानमंत्री की कुर्सी से दूर रखना चाहती है।
भारत-नेपाल की सीमा 1,750 किलोमीटर लंबी है। पिछले दिनों सीमा सुरक्षा बल द्वारा एक नेपाली युवक की मुठभेड़ में हत्या हो गई जिसे लेेकर नेपाल के राजनेताओं ने भारत विरोधी बयान देने शुरू कर दिए, जबकि यह एक भूल थी, जिसकी पुष्टि भारत के द्वारा भी की गई। मधेशी मोर्चा का तीनों बड़े राजनीतिक दलों से मोहभंग हो चुका है। कांग्रेस भी उनकी नजरों से गिर चुकी है। अब स्थिति आर-पार की लगती है। उम्मीद यही है कि स्थानीय निकाय चुनाव बाधित होंगे। बात जब पूरी तरह बिगड़ जाएगी तो उसका दोष भारत पर मढ़ दिया जाएगा। इसके लिए वामपंथी दल अभी से जुमले तैयार कर रहे हैं। जबकि भारत की कोशिश आज भी यही है कि नेपाल में न केवल राजनीतिक शांति बनी रहे, बल्कि नए संविधान में हर वर्ग के लिए उचित स्थान हो।
(लेखक केंद्रीय विश्वविद्यालय, हरियाणा में राजनीति विभाग के अध्यक्ष हैं)
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