|
हमारे यहां अलग-अलग और विरोधी विचारधाराओं वाले कई राजनीतिक दल होंगे। भारतीय जनता देश पर समुदाय को प्रधानता देगी या समुदाय पर देश को प्राथमिकता देगी? मुझे आशा है कि मेरे देशवासी एक दिन यह समझ सकेंगे कि देश व्यक्ति से बढ़कर है
—बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर
उपरोक्त उक्ति में बाबासाहेब के दिल की वह बात है जिसकी आवृत्ति उनके लेखन, व्यक्तिगत चर्चाओं और सार्वजानिक उद्बोधनों में बार-बार मिलती है। 1949 के अंत में तो उनके एक भाषण का शीर्षक ही था ‘कंट्री मस्ट बी प्लेस्ड अबव कम्युनिटी’ यानी, राष्ट्र सर्वोपरि।
बाबासाहेब ने स्वयं को भूलकर समाज की चिंता की। वे व्यक्तिगत या पारिवारिक लाभ की पगडंडी नहीं पकड़ते अपितु राष्ट्रीय हित का राजमार्ग रचते चलते हैं, लेकिन जैसे ही यह कहा जाता है कि डॉ. आंबेडकर पूरे समाज के हैं, पूरे देश के प्रेरक पुरुष हैं, तो यह बात ‘आंबेडकरवाद’ के उन कथित ठेकेदारों के पेट में मरोड़ पैदा कर देती है, जो इस विराट व्यक्तित्व को निजी स्वार्थ की पोटली में कैद रखना और सिर्फ उतना दिखाना चाहते हैं, जिससे उनका हित सधता हो।
बाबासाहेब जुझारू हैं। सामाजिक बुराइयों पर घर के बड़े की तरह सबको डपटते हैं, किन्तु साथ ही उनकी सोच में जाति, वर्ग और पंथों के खांचों से अलग एकात्म, समरस समाज और देश की साफ कल्पना है। मगर कुछ लोग उन्हें गुस्सैल, झगड़ालू और समाजद्वेषी दिखाने पर आमादा हैं। सोचिए, जो लोग बाबासाहेब के वर्ग हितैषी, सवर्ण शत्रु और विद्रोही व्यक्तित्व का चित्र खींचते हैं, उनका चित्र कितना अधूरा और चालाकी भरा है? पूछा जाना चाहिए कि जिन डॉ. आंबेडकर का खुद का लिखा विपुल साहित्य उपलब्ध है, जिनके भाषण-आख्यान और पत्रों के विवरण विविध प्रकाशनों के जरिये सार्वजनिक पटल पर उपलब्ध हैं, ये लोग उस पारदर्शी व्यक्तित्व का कौन-सा पक्ष छिपाना चाहते हैं।
आंबेडकर को ब्राह्मण विरोधी बताने वाले यह कभी नहीं सुनना चाहेंगे कि बाबासाहेब का विरोध ब्राह्मण या वैश्य से नहीं, जाति-व्यवस्था और अस्पृश्यता जैसी बुराइयों से था। छद्म या मायावी आंबेडकर भक्त यह कभी नहीं बताना चाहेंगे कि बाबासाहेब, जिनका पैतृक उपनाम सकपाल था, ने अपने ब्राह्मण शिक्षक का दिया उपनाम आजीवन अपने हृदय से लगाये रखा। बाबासाहेब की पत्नी सविता आंबेडकर स्वयं सारस्वत ब्राह्मण थीं, यह बात पता चलने पर उन लोगों की दुकान बंद होती है, जो उन्हें वर्गीय नफरत के प्रतीक के तौर पर प्रचारित कर अपना ‘राजनीतिक कारोबार’ चला रहे हैं।
बाबासाहेब के हिंदुत्व और राष्ट्र विषयक विचार सामने आयें, इसमें बुद्धि की ठेकेदार कुछ टोलियों को भारी आपत्ति है। पाकिस्तान के कट्टर मंसूबों का नोटिस लेते हुए और हिंदू समाज की राष्ट्रहित में एकता पर बाबासाहेब ने मुंबई में आयोजित प्रसिद्ध वसंत व्याख्यानमाला के दौरान एक बात कही थी। उनका कथन था, ‘‘इस झूठी धारणा को न पालें कि पाकिस्तान अपने मुस्लिम साम्राज्य को भारत में फैलाने में समर्थ होगा। हिंदू उन्हें धूल चटा देंगे।’’
कुछ लोग उन्हें हिंदू विरोधी ठहराते हुए तर्क देते हैं कि उन्होंने इस धर्म का त्याग कर बौद्ध मत अपना लिया था। लेकिन बाबासाहेब को ढाल बनाकर हिंदू धर्म को निशाना बनाने वाले लोग यहां भी गलत हैं। बाबासाहेब की पीड़ा समाज की कुरीतियों की पीड़ा है। उनका बौद्ध मत को अपनाना उस आक्रोश का संदेश है, जो वे अपने समाज को देना चाहते थे। झूठ के बवंडर को उड़ाने के लिए बौद्धमत और कम्युनिज्म पर बाबासाहेब के विचारों का साक्षात्कार जरूरी है। इस संदर्भ में भारतीय मजदूर संघ के प्रणेता दत्तोपंत जी ठेंगडी के साथ हुई वार्ता को पढ़ना दिलचस्प हो सकता है। बौद्धमत की ओर कदम बढ़ाते बाबासाहेब कहते हैं—‘‘अनुसूचित जातियों और कम्युनिज्म के बीच आंबेडकर एक बाधा हैं और सवर्ण जातियों और कम्युनिज्म के बीच गोलवलकर (तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी) एक बाधा हो सकते हैं।’’ (डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर, द.ब. ठेंगडी पृष्ठ-16)।
बाबासाहेब को वर्ग संघर्ष के प्रतीक के तौर पर भुनाना बाबासाहेब के अंतर्मन से अन्याय है, वामपंथी चाल है। डॉ. आंबेडकर ने साफ-साफ कहा है कि ‘मैं कम्युनिस्टों का कट्टर दुश्मन हूं। कम्युनिस्ट राजनीतिक स्वार्थ के लिए मजदूरों का शोषण करते हैं।’’ बाबासाहेब को हिंदू धर्म से अलग करने के लिए पोप के प्रतिनिधि आये, निजाम के हरकारे आये, लेकिन उन्होंने किसी को घास नहीं डाली। उन्होंने कहा कि ‘‘यदि मैं इस्लाम में गया या ईसाईयत को स्वीकार किया, तो यह देश एक बड़े खतरे में चला जायेगा। इसलिए मैं उसी रास्ते को अपना रहा हूं, जिससे इस देश के मौलिक तत्वज्ञान के साथ जुड़ा रहूं।’’ डॉ. आंबेडकर को हिंदू विरोधी बताने वाले कभी यह नहीं बताना चाहेंगे कि कानून मंत्री के तौर पर उन्होंने जिस हिंदू कोड बिल का प्रस्ताव रखा, उसमें उन्होंने हिंदू शब्द की व्याख्या के अंतर्गत वैदिक मतावलंबियों के अलावा शैव, सिख, जैन, बौद्ध सभी को शामिल किया था। यह बाबासाहेब का लिखा प्रस्ताव था, उनका अपना मन और मत था। अपने मन से वह हिंदू धर्म की छतरी से बाहर कब हुए?
125 वर्ष बाद आंबेडकर यदि तथ्यों के आईने में फिर जीवंत हो उठे हैं, तो इसलिए क्योंकि कोई भी राष्ट्र एक बार जागने के बाद अपने राष्ट्रनायकों से छल बर्दाश्त नहीं करता। आज देश जागा हुआ है और उसे अपने बाबासाहेब के साथ कोई छल अब और बर्दाश्त नहीं है। जैविक रीति से कृषि में विष की काट करता भारत बाबासाहेब के विराट व्यक्तित्व को ढकने के लिए फैलाई गई विभाजन और वैमनस्यकारी विषबेल को भी काटने का संकल्प ले। बैसाखी बाबासाहेब का जन्मदिवस भी है। उनको इस संकल्प से सच्ची और क्या
श्रद्धांजलि होगी।
टिप्पणियाँ