योगी के सामने चुनौती

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दिंनाक: 03 Apr 2017 13:27:24


उत्तर प्रदेश की जनता ने भारतीय जनता पार्टी को ऐतिहासिक विजय दिलाकर उसके कंधों पर विकास की एक बड़ी जिम्मेदारी सौंपी है। चुनौतियां हैं तो उनसे पार पाने का जोश भी है  

लखनऊ से विशेष प्रतिनिधि

विधानसभा चुनाव में भाजपा को ऐतिहासिक विजय दिलाकर 22 करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश ने उसके कंधों पर विकास की बहुत बड़ी जिम्मेदारी डाली है, जिस पर उसे खरा उतरना है। प्रदेश की नवनियुक्त योगी आदित्यनाथ सरकार के समक्ष चुनौतियों का अंबार है जिनमें कानून-व्यवस्था, स्वास्थ्य सेवाएं, बिजली, शिक्षा, कृषि, बेरोजगारी, अपराध जैसी समस्याएं विरासत में मिली हैं, जिनसे निबटना आसान काम नहीं है।
आबादी के मामले में इस प्रदेश का मुकाबला विश्व के केवल पांच देश ही कर सकते हैं। 403 विधानसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में भाजपा और उसके सहयोगियों को 325 सीटें और करीब 42 फीसदी मत मिले। अधिकांश राजनीतिक पंडित और चुनाव विश्लेषक इस जीत के पीछे का सही कारण बताने में असमर्थ दिख रहे हैं। लेकिन यह बात तो माननी पड़ेगी कि भाजपा ने जीत के तरीके से सभी पुराने तरीकों और तर्कों को भोथरा साबित कर दिया है। भाजपा के बृजेश सिंह ने देवबंद सीट पर जीत दर्ज की, जो इस्लामी शिक्षण संस्थान दारुल उलूम के लिए प्रसिद्ध है। कांग्रेस के प्रभुत्व वाली अमेठी सीट से भाजपा की गरिमा सिंह चुनकर आर्इं। सपा और बसपा के दबदबे वाले बुंदेलखंड क्षेत्र में भी भाजपा ने सूपड़ा साफ किया। मायावती को छोड़कर कांग्रेस के पी़ चिदंबरम, नेशनल कान्फ्रेंस के उमर अब्दुल्ला स्वीकार कर चुके हैं कि नरेंद्र मोदी की लहर थी। समाजवादी पार्टी के नेता भी दबी जुबान में स्वीकार कर रहे हैं कि पार्टी को अपमानजनक हार मिली। भले ही वह हार की वजह कुछ और गिनाएं। वहीं, कुछ लोग भाजपा की इस जीत को हिंदुओं के एकजुट होने का नतीजा बता रहे हैं।

भारतीय जनता पार्टी प्रदेश में सबका साथ, सबका विकास के लिए प्रतिबद्ध है। हमारी सरकार जात-पात, मत-पंथ से ऊपर उठकर कार्य करेगी, हम राज्य में युवाओं के रोजगार सृजन से लेकर वृद्धों  के जीवन स्तर तक को सुधारने के लिए कृतसंकल्पित हैं ।
—योगी आदित्यनाथ, मुख्यमंत्री

सपा व अन्य दलों को राज्य की जनता ने  चुनाव में स्पष्ट संदेश दिया कि वह केवल भाजपा को पसंद करती है, क्योंकि भाजपा विकास के साथ-साथ राष्ट्रवाद से कोई समझौता नहीं करती। हम पांच वर्ष के शासन काल में विकास करके दिखाएंगे।
—केशव प्रसाद मौर्य, उप मुख्यमंत्री

भारतीय जनता पार्टी सिर्फ विकास में विश्वास रखती है। जनता ने जो ऐतिहासिक जनाधार दिया, हम उस पर जरूर खरे उतरेंगे और जितने भी वायदे हमने किए, उन्हें पूरा करेंगे ।
—दिनेश शर्मा, उप मुख्यमंत्री

चुनावी संवाद में परिवर्तन का सिलसिला 2014 के लोकसभा चुनाव में ही शुरू हो गया था, लेकिन अधिकतर लोगों ने इस पर ध्यान नहीं दिया। यह चुनाव कई मायनों में अलग था। विकास एवं प्रशासन पर केंद्रित नरेंद्र मोदी के सकारात्मक प्रचार अभियान ने देश में राजनीतिक प्रचार का व्याकरण हमेशा के लिए बदल दिया। साथ ही, भ्रष्टाचार के खिलाफ अण्णा हजारे और बाबा रामदेव के आंदोलनों ने विरोध के संवाद को और पैना किया। फलस्वरूप उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव-2017 में राजनीतिक दलों के लिए चुनावी भाषण में विकास तथा आकांक्षा का समावेश करना जरूरी हो गया था। इसलिए राजनीतिक पंडितों, चुनाव विश्लेषकों, सर्वेक्षणकर्ताओं, समाज विज्ञानियों, राजनीति विज्ञानियों और पत्रकारों को जाति, मत-पंथ, स्त्री-पुरुष और क्षेत्र पर आधारित दशकों पुराना घिसा-पिटा विश्लेषण बंद कर नए भारत को पहचानना चाहिए, क्योंकि जनमत आकांक्षाओं, विकास तथा शक्तिशाली भारत के विचार को मिला है।
19 मार्च को उत्तर प्रदेश के 21वें मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ लेने के बाद योगी आदित्यनाथ जिस तरह फैसले ले रहे हैं, उससे लोगों की उम्मीदें भी बढ़ रही हैं। आलम यह है कि 150 घंटों में उन्होंने 50 फैसले लिए, जिनमें अवैध बूचड़खानों को बंद और एंटी रोमियो स्क्वॉड का गठन करने जैसे फैसले प्रमुख हैं। प्रधानमंत्री की तरह उन्होंने मंत्रियों और कर्मचारियों को न केवल कार्यालय समय पर पहुंचने के सख्त निर्देश दिए हैं, मंत्रियों से प्रस्तुति देने को भी कहा है। इसके अलावा, अधिकारियों को भाजपा संकल्प पत्र के मुताबिक योजनाएं बनाने को कहा गया है। 

 
आबादी और शिक्षा
आबादी के लिहाज से देश में उत्तर प्रदेश की हिस्सेदारी 16़5 फीसदी है, लेकिन सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में उसका योगदान 8़5 फीसदी है। वहीं, देश की आबादी में गुजरात की हिस्सेदारी मात्र 5 फीसदी है, पर जीडीपी में उसका योगदान 7़5 फीसदी है। मतलब साफ है कि उत्तर प्रदेश देश के संसाधनों में योगदान की बजाय उन्हें खा रहा है। शिक्षा के क्षेत्र में स्थिति तो और भी खराब है। देश में सबसे ज्यादा 3,68,40,000 प्राथमिक स्कूल उत्तर प्रदेश में हैं जो कुल प्राथमिक स्कूलों का 18 फीसदी है। लेकिन मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा जारी डाइस रिपोर्ट के मुताबिक, तमाम योजनाओं के बावजूद प्राथमिक विद्यालयों में 7 लाख छात्र कम हो गए। प्राथमिक शिक्षा का आलम यह है कि पांचवीं कक्षा के 50 फीसदी छात्र कक्षा दो की हिन्दी भी नहीं पढ़ पाते। कहीं-कहीं तो पूरे स्कूल की जिम्मेदारी एक ही शिक्षक पर है, जबकि कुछ जगहों पर 200 बच्चों पर एक शिक्षक है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, राज्य में औसतन प्रति 39 छात्रों पर एक शिक्षक है, जबकि ओडिशा जैसे राज्य में भी 21 छात्रों पर एक शिक्षक है। सूबे के 40 फीसदी बच्चे बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। उच्च शिक्षा की बात करें तो सूबे में इंजीनियरिंग की 50 फीसदी सीटें खाली रह जाती हैं, क्योंकि उत्तर प्रदेश टेक्निकल यूनिवर्सिटी (यूपीटीयू) के पास प्लेसमेंट, अनुसंधान या उद्यमशीलता कार्यक्रमों की समुचित व्यवस्था नहीं है।

बिजली की स्थिति
प्रदेश में बिजली की स्थिति तो सच में दयनीय रही है। सूबे को 25,000 मेगावाट बिजली चाहिए, लेकिन वह उत्पादन मात्र 2500 मेगावाट ही करता है। शेष बिजली बाहर से खरीदनी पड़ती है, तब भी हर वर्ष 5000-9000 मेगावाट की किल्लत रहती ही है। यह स्थिति तब है जब 2014 तक प्रदेश के 10,856 गांवों में बिजली पहुंची ही नहीं थी। लेकिन इस गंभीर समस्या का समाधान ढूंढ़ने के बजाए पूर्ववर्ती सरकारों ने बिजली वितरण का रोस्टर तैयार करने और बिजली कटौती पर ही जोर दिया। इस मामले में बिहार और असम जैसे राज्यों की स्थिति यूपी से कहीं बेहतर है। देश के उत्तरी हिस्से में नौ राज्य ही ऐसे हैं जहां सरप्लस बिजली होती है। इसमें पड़ोसी राज्य दिल्ली भी शामिल है। बिजली उत्पादन में यह तमिलनाडु, गुजरात, राजस्थान, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक से बहुत पीछे है। केंद्रीय बिजली पूल में सूबे का योगदान महज 6.65 फीसदी है। राज्य में भाजपा की सरकार बनने के बाद हाल ही में ऊर्जा मंत्री श्रीकांत शर्मा ने बिजली की समस्या को लेकर केंद्रीय ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल से मुलाकात की। इसके बाद केंद्रीय मंत्री ने राज्य के बीपीएल परिवारों को मुफ्त बिजली कनेक्शन और एपीएल परिवारों को आसान किस्तों एवं सौ फीसदी वित्त पोषण पर बिजली कनेक्शन मुहैया कराने की बात कही है। बता दें कि बिजली मद में राज्य पर जनवरी 2016 तक 53,000 करोड़ का कर्ज था। 

सुस्त विकास दर
आबादी के हिसाब से उत्तर प्रदेश  देश का सबसे बड़ा राज्य है, लेकिन विकास के मामले में यह फिसड्डी है। प्रदेश सरकार की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2012-13 से 2015-16 के दौरान राज्य की विकास दर 3.9 से 6.6 फीसदी के बीच रही। वहीं, पड़ोसी राज्य बिहार में यह आंकड़ा दस फीसदी तक पहुंच गया, जबकि देश की विकास दर 5.6 फीसदी से 7.6 फीसदी के बीच थी। राज्य में प्रति व्यक्ति आय भी देश के मुकाबले लगभग आधी है। प्रति व्यक्ति घरेलू उत्पाद मामले में तो इसकी गिनती देश के पांच सबसे गरीब राज्यों में होती है। यहां तक कि राजस्थान जैसा राज्य जिसकी प्रति व्यक्ति आय उत्तर प्रदेश से कम थी, वह भी आगे निकल गया है।  देश की प्रति व्यक्ति आय 93,293 रुपये है जिसके 2016-17 में एक लाख रुपये से अधिक होने का अनुमान है। लेकिन उत्तर प्रदेश में मार्च 2016 तक प्रति व्यक्ति आय 48,584 रुपये थी।

कृषि में पिछड़ापन
2011 की जनगणना के मुताबिक, राज्य की 77 फीसदी आबादी गांवों में रहती है। 60 फीसदी लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि कार्य से जुड़े हैं। सूबे में कृषि योग्य 80 फीसदी भूमि है, लेकिन समुचित सिंचाई व्यवस्था नहीं होने के कारण पैदावार देश की औसत पैदावार से भी कम है। बुंदेलखंड में तो मात्र 40 फीसदी भूमि पर ही सिंचाई के साधन उपलब्ध हैं। मतलब यह कि देश के कुल कृषि क्षेत्र का करीब 13 फीसदी इस राज्य में है, लेकिन कृषि विकास दर में यह पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश से भी पीछे है। 2005-06 से 2014-15     तक राज्य की कृषि जीडीपी विकास दर सालाना 3.2 फीसदी रही, जबकि राष्ट्रीय औसत 3.6 फीसदी है। वहीं, मध्य प्रदेश में यह 9.7, छत्तीसगढ़ में 6.6 और बिहार में 4.6 फीसदी है।
नेशनल सैंपल सर्वे रिपोर्ट की मानें तो देश के नौ करोड़ किसान परिवारों में से 52 फीसदी कर्ज में डूबे हुए हैं और हर किसान पर औसतन 47,000 रुपये का कर्ज है। सबसे खराब स्थिति वैसे तो आंध्र प्रदेश की ही है, जहां 93 फीसदी किसान परिवार कर्ज में डूबे हुए हैं। वहीं, उत्तर प्रदेश में यह आंकड़ा 44 फीसदी, बिहार में 42 और पश्चिम बंगाल में 51.5 फीसदी है। एक आंकड़े के मुताबिक, बीते 10 वर्षों में राज्य के 31 लाख किसान खेती से मुंह मोड़ चुके हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि प्रदेश में किसानों को उपज का उचित मूल्य नहीं मिल पाता। इसके अलावा, खेती में अधिक लागत, कम होती कृषि योग्य भूमि और बडेÞ पैमाने पर रियल एस्टेट के लिए भूमि अधिग्रहण करना जैसे कारण भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं।  2004 में कृषि क्षेत्र में उत्तर प्रदेश का उत्तर प्रदेश छठा था, जो 2016 में खिसक कर 11वें स्थान पर पहुंच गया। वहीं, अरुणाचल प्रदेश जैसा छोटा राज्य 10वें स्थान से उछल कर चौथे स्थान पर पहुंच गया।

लचर स्वास्थ्य सेवाएं
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 1998-99, राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2012-13 और रैपिड सर्वे आॅन चिल्ड्रन 2013-14 के आंकड़ों के मुुताबिक, स्वास्थ्य एवं पोषण के मामले में उत्तर प्रदेश उच्चाधिकार प्राप्त समूह (ईएजी) के तीन अन्य राज्यों बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान के मुकाबले काफी पीछे है। यहां तक कि नवजात मृत्यु दर, परिवार नियोजन, संस्थागत प्रसव और टीकाकरण में भी यह इन राज्यों से पीछे है। मिसाल के तौर पर 2010-11 में राज्य में सिर्फ 24.1 फीसदी बच्चों का टीकाकरण हुआ। स्थिति यह है कि स्वास्थ्य सेवाओं के लिए पूरा प्रदेश दिल्ली भागता है। एक अनुमान के अनुसार, सरकारी अस्पतालों के 75 फीसदी डॉक्टर निजी प्रैक्टिस करते हैं। प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में ही बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं के लिए करीब 16,000 डॉक्टरों की जरूरत है, जबकि विभाग के पास सिर्फ 11,000 डॉक्टर ही हैं। यानी ग्रामीण इलाकों में 5,000 डॉक्टरों की कमी है। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, उत्तर प्रदेश की वेबसाइट के अनुसार, सूबे में 5,172 प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों की जरूरत है, जबकि 3,692 पीएचसी ही उपलब्ध हैं।

उद्योग-धंधे ठप
राज्य में निवेश और उद्योग-धंधों की स्थिति भी बेहद खराब है। इस मामले में बुंदेलखंड, रुहेलखंड और पूर्वांचल जहां के तहां ही हैं। अगर कुछ निवेश भी हुआ तो वह पश्चिमी उत्तर प्रदेश, नोएडा तक ही सीमित रहा। इसके अलावा, अपराधियों के खौफ के कारण भी उद्योगपति राज्य में उद्योग लगाने से डरते हैं, क्योंकि पिछली सरकारों ने उनके लिए उचित माहौल पैदा नहीं किया। रही-सही कसर दंगों ने पूरी कर दी। जिस मुजफ्फरनगर की पहचान कभी उद्योग नगरी के रूप में होती थी, आज उसकी पहचान दंगा नगरी के रूप में होती है।  2012 में यहां 1170 नए उद्योग लगे, जबकि 2013 में यह 300 का आंकड़ा भी नहीं छू पाया। जिला उद्योग केंद्र के आंकड़ों के मुताबिक, दंगे के कारण कई तरह के उद्योग नष्ट हो गए, जबकि कर्फ्यू के कारण पेपर मिल बंद होने से पांच दर्जन गत्ता उद्योग पर भी असर पड़ा और कई उद्योग बंद भी हो गए। गौरतलब है कि प्रदेश में 500 गत्ता उद्योग इकाइयां हैं। गन्ना किसानों के प्रति पिछली सरकारों के उदासीन रवैये के कारण प्रदेश की चीनी मिलों पर भी इसका प्रभाव पड़ा है। घाटे में डूबी चीनी मिलें भी बंद होने के कगार पर पहुंच गई हैं। करीब 4,000 करोड़ रुपये के घाटे में चल रही प्रदेश की चीनी मिलों पर गन्ना किसानों का 2,400 करोड़ रुपये का बकाया है।  

बेखौफ अपराधी
उत्तर प्रदेश  में अपराध और राजनीति के बीच गठजोड़ के कारण कानून-व्यवस्था मजाक बनकर रह गई है। खासकर बलात्कार और हत्या तो मौजूदा सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। 2011 से लेकर 2015 तक प्रदेश में अपराध का ग्राफ हर साल बढ़ता ही चला गया। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक, 2014 में देश में दलितों के खिलाफ 47,064 अपराध हुए, जिनमें 8,075 मामले सिर्फ यूपी में दर्ज किए गए। इसके अलावा, राज्य में दलित उत्पीड़न के रोजाना औसतन 20 मामले दर्ज किए गए। प्रदेश में दलितों और महिलाओं के लिए तो 2015 सबसे खराब रहा। 2015 में सूबे की महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध का आंकड़ा 10.9 फीसदी रहा, जबकि दलित उत्पीड़न के 18.6 फीसदी मामले दर्ज किए गए। 2015 में दलित उत्पीड़न के सबसे ज्यादा 8,358 और हत्या के 4,732 मामले दर्ज किए गए। हत्या के मामले में तो प्रदेश देशभर में शीर्ष पर, जबकि बलात्कार के 3025 मामलों के साथ तीसरे स्थान पर रहा। 2014 में प्रदेश में बलात्कार की 3,467 घटनाएं दर्ज की गर्इं जो 2015 में बढ़कर 9,075 हो गर्इं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ने देश के 53 बड़े शहरों में होने वाले जघन्य अपराधों में प्रदेश के जिन सात शहरों को शामिल किया उनमें लखनऊ और आगरा अपराध के मामले में सबसे ऊपर थे। 2015 में लखनऊ में सर्वाधिक 118 हत्या हुर्इं, जबकि 2014 में 109 हत्या हुई थीं। वहीं, मेरठ 92 और आगरा 74 हत्या के साथ क्रमश: दूसरे एवं तीसरे स्थान पर रहे। खुद अखिलेश यादव की अगुआई वाली समाजवादी पार्टी की सरकार ने विधानसभा में एक सवाल के जवाब में स्वीकार किया था कि 2014 और 2015 के बीच बलात्कार के मामले तीन गुना बढ़ गए। पिछले साल 15 मार्च, 2016 से 18 अगस्त 2016 के बीच ही बलात्कार के एक हजार से अधिक मामले दर्ज किए गए।
राष्टÑीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े बताते हैं कि उत्तर प्रदेश लगभग सभी प्रकार के अपराधों में पहले स्थान पर है। महिलाओं के खिलाफ अपराध में भी यूपी अव्वल है। इसके अनुसार, 2014 में  महिलाओं के खिलाफ अपराध के 38,467 मामले दर्ज किए गए, जो 2013 के मुकाबले 18 फीसदी अधिक थे। मीडिया में प्रकाशित आंकड़ों के मुताबिक, 15 मार्च, 2012 से 25 मार्च, 2016 तक प्रदेश में 13,144 हत्या, 6,333 लूट, चोरी या डकैती तथा अपहरण के 1,282 मामले दर्ज किए गए। यह सिर्फ दर्ज मामलों की बानगी है। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, मुख्यमंत्री के तौर पर अखिलेश यादव की ताजपोशी के 45 दिनों के भीतर 699 हत्या हुई थीं। इसके अलावा, अखिलेश के कार्यकाल में 1,035 दंगे हुए, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए। 

रोजगार की कमी   
नेशनल सैंपल सर्वे आॅर्गेनाइजेशन की रिपोर्ट के मुताबिक 12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) के दौरान उत्तर प्रदेश में 15-35 वर्ष के बेरोजगारों की संख्या एक करोड़ पहुंच जाएगी। 2014 के आखिर तक प्रदेश के 75 रोजगार कार्यालयों में 75 लाख युवाओं ने नौकरी के लिए अपना नाम दर्ज कराया था। यह आंकड़ा 2012 में समाजवादी पार्टी के सत्ता में आने के बाद बेरोजगार युवाओं को 1,000 रुपये मासिक बेरोजगारी भत्ता देने के बाद है। इतना ही नहीं, राज्य की 30 फीसदी आबादी गरीब है, जबकि देश में औसतन 22 फीसदी गरीब हैं। सूबे में 20 फीसदी लोग बेघर हैं। वहीं, मध्य प्रदेश, गुजरात, आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल में यह आंकड़ा इकाई अंक में है। ऐसे में केंद्र और राज्य सरकार के लिए वादे के मुताबिक 2019 तक एक करोड़ घर बनाने होंगे। हालांकि केंद्र सरकार ने बेरोजगारी को ध्यान में रखते हुए बजट में युवाओं के लिए कई प्रावधान किए हैं। इसमें प्रधानमंत्री कौशल केंद्रों के विस्तार और अंतरराष्ट्रीय कौशल केंद्र खोलने की बात भी शामिल है। इसके अलावा, बजट में मनरेगा की राशि बढ़Þाने के साथ रोजगार सृजन, कृषि ऋण के लिए भी अच्छी-खासी राशि का प्रावधान किया गया है।

घोटालों की लंबी फेहरिस्त
बसपा और सपा के कार्यकाल में हुए घोटालों ने भी राज्य की हालत खस्ता कर दी। राज्य के स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे को मायावती काल के एनआरएचएम घोटाले से आघात लगा। मायावती के शासन के दौरान हुए जननी सुरक्षा योजना घोटाले को लेकर कैग रिपोर्ट में कहा गया कि गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं के लिए आवंटित धन की निकासी में अधिकारियों ने फर्जी बिल पेश किये। इसके अलावा, पिछली सरकारों में पुलिस भर्ती घोटाला, कुम्भ घोटाला, मूर्ति घोटाला, ये केवल वे किस्से हैं जिनका राज्य दावा कर सकता है।
प्रदेश के लोगों ने करीब डेढ़ दशक से विकास का मुंह नहीं देखा। बुनियादी जरूरतों के लिए भी तरस रहे लोगों को नई सरकार से काफी उम्मीदें और आकांक्षाएं हैं। किसी भी नई सरकार के लिए ऐसी स्थिति को आदर्श तो कतई नहीं कहा जा सकता। इसलिए मुख्यमंत्री को न सिर्फ योजनाएं बनानी होंगी, बल्कि सख्ती से उनका पालन भी कराना होगा ताकि सभी वर्गों के लोगों तक यह समान रूप से पहुंचे।   

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