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भारतीय संस्कृति आदर्श जीवन जीने, अनुकरणीय आचरण प्रस्तुत करने और सबको समान भाव से देखने की प्रेरणा देती है। यह बात समाज के मन से ओझल न हो जाए, इसीलिए इसे बार-बार हमारे ऋषि-मुनि और महापुरुष कहते रहते हैं। पूर्व सरसंघचालक श्री रज्जू भैया ने वर्ष प्रतिपदा के अवसर पर इन्हीं विषयों को लेकर एक उद्बोधन दिया था, जो पाञ्चजन्य के 4 अप्रैल ,1960 के अंक में प्रकाशित हुआ था, उसे यहां पुन: प्रकाशित किया जा रहा है-
राष्ट्र की आंतरिक शक्ति ही उसकी आधारभूत शक्ति हुआ करती है। उसके अभाव में देश दुर्बल हो जाता है और छोटे-छोटे राष्ट्र भी उसको हानि पहुंचाने लगते हैं। जीवनशक्ति से विहीन हाथी को एक कौआ भी तंग करने की हिम्मत कर सकता है। अत: प्रबल राष्ट्र भाव का जागरण, यही आज की प्रमुख आवश्यकता है। उपर्युक्त शब्द वर्ष प्रतिपदा के पावन प्रसंग पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रांत प्रचारक प्रो. राजेंद्र सिंह ने लखनऊ नगर के 500 स्वयंसेवकों के सम्मुख अपने विचार प्रकट करते हुए कहे।
हिन्दू कालगणना के अनुसार वर्ष के प्रथम दिवस, वर्ष प्रतिपदा का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि आज देश के अधिकांश पढ़े-लिखे लोग इस पावन प्रसंग के विषय में अनभिज्ञ हैं। यह एक तो विदेशियों के कुचक्रों के कारण है, परंतु वास्तविकता यह है
कि हम अपने ही प्रयत्नों से अपने स्वत्व को मिटा बैठे हैं। हमारा भी कोई देश है, संस्कृति है, हमने भी किसी समाज रचना का निर्माण किया था, जीवन का दृष्टिकोण बनाया था, यह सब समाज विस्मरण कर बैठा है। श्रेष्ठ से श्रेष्ठ लोग भी परानुकरण में गौरव महसूस कर रहे हैं।
देश स्वतंत्र अवश्य हो गया। शासक अपने ही देशवासी बन गए हैं, परंतु राष्ट्रभाव दिखलाई नहीं पड़ता है। स्वराज्य प्राप्त हो गया है, परंतु इससे तो हिन्दू राष्ट्र की कल्पना पूर्ण नहीं होती है। राज्य तो राष्ट्र का एक स्तंभ मात्र ही होता है। शेष स्तंभ ढह चुके हैं।
संघ के जन्मदाता पूज्य डॉक्टर जी का पुण्य स्मरण करते हुए उन्होंने कहा कि नववर्ष हमें गत भूलों का स्मरण करवा कर नवीन वर्ष के लिए नव चेतना और नव संदेश देता है। पूज्य डॉक्टर जी के जन्म दिवस का प्रतिपदा के साथ संयोग इस बात का घोतक है कि उनका पदार्पण ही एक महत्वपूर्ण घटना थी। असंगठन, दौर्बल्य का विश्लेषण करके उन्होंने जहां हमारी भूलों की ओर संकेत किया था, वहां संगठन मंत्र का उद्घोष करके, संघ का निर्माण कर, सुप्त निराश अंत:करणों को नव चैतन्य एवं नव प्रेरणा प्रदान की थी। छत्रपति शिवाजी, संत तुलसीदास एवं मर्यादा पुरुषोत्तम राम के जन्म के समय समाज की स्थिति का विशद वर्णन करते हुए उन्होंने स्पष्ट किया कि महापुरुषों का जन्म राष्ट्र की दिव्य शक्ति के जागरण के निमित्त होता है। उसी भगवान राम का स्मरण श्री समर्थ ने महाराष्ट्र में करवाया तो उन्हीं भगवान राम के प्रति अटूट निष्ठा जाग्रत करके संत तुलसीदास ने अजेय शक्ति का निर्माण किया था।
परकीय आक्रमणकारियों की मनोवृत्तियों का उल्लेख करते हुए प्रो. राजेंद्र सिंह ने कहा कि परकीय आक्रमण और साम्राज्यवादी शक्तियों का आना एवं खेदेड़ा जाना वास्तव में शस्त्रों पर नहीं, वरन राष्ट्र की आंतरिक शक्ति पर ही निर्भर करता है और जीवन मूल्यों के प्रति अडिग निष्ठा पर अवलंबित है। इतिहास के दो उदाहरण इस तथ्य को स्पष्ट करते हैं:-
1. एक सहस्र वर्ष पूर्व बख्तियार खिलजी केवल 28 सैनिक लेकर दिल्ली से चलकर नगर पर नगर विजय करता हुआ बंगाल तक पहुंच गया था— क्या अपने बल पर? नहीं नहीं, राष्ट्रीय दुर्बलता का लाभ उठाकर।
2. इसके ठीक विपरीत संपूर्ण राष्ट्र के पराभव काल में थोड़े से मावले सैनिकों की सहायता से शिवाजी ने सशस्त्र मुगल साम्राज्य को सफलतापूर्वक नाकों चने चबवा दिए— क्योंकि उनमें संगठन था, त्याग, संघर्ष और एक राष्ट्र का भाव था, हृदय में एक चिन्गारी थी।
भारत की जनसंख्या 40 करोड़ है, परंतु यदि राष्ट्रभाव नष्ट हो गया तो चीन ही क्या लंका जैसा छोटा देश भी आघात कर सकता है। जीवन की भावना चाहिए, जीवन मूल्यों के लिए निष्ठा चाहिए। प्रखर राष्ट्र भाव चाहिए। पराभूत मनोवृत्ति का समूलोच्चाटन करके जिसने यह निर्णय किया था वह सामान्य व्यक्ति नहीं युग पुरुष था।
आदर्श को जीवन में प्रगट करने से ही समाज को प्रेरणा मिलती है। वह प्रेरणा स्रोत बनता है। ऋषियों ने हमें मंत्र रूप में जीवन दर्शन का ज्ञान कराया था। संघ के आद्य सरसंघचालक ने संगठन मंत्र हमको प्रदान करके हमें दिव्य जीवन का मार्ग दिखलाया है, यह हमारे जीवन का अहोभाग्य है। नवीन वर्ष में हमारी शक्तियों का समुचित विनियोग हो इस प्रकार हम कार्य करें। भगवान हमारी सहायता अवश्य करेगा। -प्रो. राजेन्द्र सिंह
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