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बालासाहब देवरस जी ने 1977 में दिल्ली में पहली बार स्वयंसेवकों का आह्वान किया था कि वे निर्धन, बेघर और असहाय लोगों को सुदामा मानें और कृष्ण बन कर उनकी सेवा करें। उनके मस्तिष्क से फूटा सेवा का वह बीज आज विशाल वट वृक्ष बन चुका है
मायाराम पतंग
वह मार्च का महीना था और वर्ष था 1977। स्थान दिल्ली। एक ओर गर्मी दस्तक दे रही थी, तो दूसरी ओर संघ के स्वयंसेवक एक सभा की तैयारी में लगे हुए थे। वह सभा होने वाली थी दिल्ली गेट के निकट फुटबॉल स्टेडियम में। उस सभा को सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस संबोधित करने वाले थे। इसलिए तैयारी भी दिन-रात चल रही थी। आखिर में वह दिन आ ही गया जिसका स्वयंसेवक काफी दिनों से इंतजार कर रहे थे। स्टेडियम स्वयंसेवकों से खचाखच भर चुका था। इसी बीच बालासाहब जी वहां पधारे। एकाध वक्ता के बाद ही उन्होंने अपना उद्बोधन शुरू किया। पहले तो उन्होंने स्वयंसेवकों को आपातकाल में चलाए गए अनुपम सत्याग्रह आंदोलन के संचालन तथा सफलता के लिए बधाई दी। इसके बाद उन्होंने राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ के महान उद्देश्य को स्पष्ट किया। उन्होंने कहा कि संघ एक ऐसा समरस समाज विकसित करना चाहता है, जहां किसी के साथ जाति के आधार पर भेदभाव नहीं होगा। समरस एवं समृद्ध समाज भाषणों या नारों से नहीं बनाया जा सकता। ऐसे समाज के निर्माण के लिए एक कठिन तपस्या की आवश्यकता है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि जातिगत भेदभाव तथा अस्पृश्यता हमारे समाज के घातक रोग हैं। अब समय आ गया है कि स्वयं कृष्ण को सुदामा के घर जाना होगा। स्वयं जाकर समस्याओं तथा कमियों को समझना होगा, उनका निदान करना पड़ेगा। संघ के स्वयंसेवकों को समाज के वंचित, पीड़ित एवं पिछड़े वर्गों की सेवा के लिए उनकी बस्तियों में जाना होगा, उनके जीवन स्तर को ऊपर उठाना होगा। राजनीतिक दल उनकी गरीबी, अशिक्षा एवं अज्ञानता को अपनी सत्ता के लिए भुनाते हैं। संघ को ऐसी राह अपनानी होगी कि वे अपनी गरीबी और अशिक्षा से स्वयं लड़ सकें। यह जागरूकता चाहने मात्र से नहीं आएगी। इसके लिए कुछ ठोस कदम उठाने होंगे। उनके बीच में सेवा कार्य करने होंगे। उनकी याचना की प्रवृत्ति को दूर करना होगा। उनमें स्वावलंबन के लिए जागरूकता उत्पन्न करनी होगी।
उनके इस भाषण से जुड़ी बातों को कुछ देर के लिए यहीं विराम देते हैं और पहले देवरस जी के बारे में कुछ जान लेते हैं।
श्री मधुकर दत्तात्रेय देवरस, जो बालासाहब देवरस के नाम से प्रसिद्ध हैं, ने स्नातक करने के बाद नागपुर के एक अनाथालय में दो वर्ष तक पढ़ाने का काम किया था। वहां उन्होंने स्वयं देखा था कि समाज में अनाथ, पीड़ित, वंचित तथा निर्धन लोगों की क्या समस्याएं होती हैं। अत: उन्होंने उस दिन संघ के स्वयंसेवकों को भी समाज के उस वर्ग की ओर सहानुभूतिपूर्वक बढ़ने के लिए प्रेरित किया। उनके उद्बोधन का स्वयंसेवकों पर जबरदस्त असर पड़ा।
उन दिनों दिल्ली, हरियाणा प्रांत के प्रांत प्रचारक थे श्री अशोक सिंहल और दिल्ली के प्रचारक थे श्री विश्वनाथ। स्वयंसेवक सेवा क्षेत्र में कैसे जाएं, इस पर इन दोनों ने गहन विचार-विमर्श किया। इस विचार को मूर्त रूप देने के लिए अशोक जी ने कानपुर में प्रचारक का दायित्व निभा रहे श्री विष्णु कुमार को दिल्ली बुलाया। आदेश मिलते ही विष्णु जी अपने काम में लग गए। वे झंडेवाला कार्यालय में कक्ष क्रमांक 13 में रहकर सेवा कार्यों का ताना-बाना बुनने लगे। पहले प्रत्येक जिले के प्रौढ़ प्रमुख की जगह सेवा प्रमुख तय किए गए। फिर सबके साथ विष्णु जी ने बैठक की। विष्णु जी के सहयोगी के रूप में श्री श्रवण कुमार को रखा गया। उन दिनों मुझे भी नवीन शाहदरा जिले का सेवा प्रमुख बनाया गया था। सभी प्रौढ़ शाखाओं को सेवाभावी स्वयंसेवकों का चयन करके सेवा प्रमुखों से संपर्क करने का निर्देश दिया गया। इसके बाद विष्णु जी ने सभी को अपनी पहुंच, अपने विचार तथा अपने साधनों से अपने क्षेत्र में सेवा कार्य स्वयं करने को कहा। सभी सेवा प्रमुखों ने अलग-अलग प्रकार के कार्य किए। किसी ने पिछड़ी बस्तियों में सफाई अभियान चलाया, तो किसी ने लंगर लगाया। किसी ने निर्धन छात्रों को पुस्तक, कॉपियां देकर उनकी सेवा की। कई लोग अस्पतालों में फल, दवा आदि वितरित करने गए। इस बीच विष्णु जी सबसे संपर्क करते रहे और आवश्यक सहयोग तथा परामर्श भी देते रहे। मैंने अपने जिले के कुछ प्राथमिक तथा माध्यमिक विद्यालयों में संपर्क करके निर्धन विद्यार्थियों की सूची तैयार की और उनके बीच स्वेटर बांटे।
सेवा प्रमुखों सभी जिलों में इसी प्रकार के कार्यक्रम किए। इसके बाद एक दिन विष्णु जी ने सेवा कार्य करने वाले सभी कार्यकर्ताओं को बुलाया। सभी ने उन्हें अपने-अपने सेवा कार्यों की जानकारी दी। सबकी बातें सुनने के बाद विष्णु जी ने कहा कि आप लोगों ने अब तक क्षणिक और अस्थायी सेवा कार्य किया है। सेवित जन और सेवा करने वाले में कोई स्थायी संपर्क नहीं बना है। अत: ऐसे सेवा कार्य करें जिससे कि उनके साथ हमारा स्थायी संपर्क बना रहे। फिर विष्णु जी ने अपने द्वारा संपन्न सेवा कार्य का विवरण दिया। वे तिमारपुर के पास एक पिछड़ी बस्ती में आठवीं और नौवीं कक्षा के छात्रों को अंग्रेजी, गणित और विज्ञान पढ़ा रहे थे। जिन बच्चों को उन्होंने पढ़ाया, वार्षिक परीक्षा में उनका परिणाम बहुत ही अच्छा था। उन बच्चों में इतना सुधार देखकर उनके विद्यालयीन शिक्षकों ने विष्णु जी से भेंट की थी।
विष्णु जी के इस कार्य से सभी प्रभावित हुए। इसके बाद सभी सेवा प्रमुखों ने अपने-अपने क्षेत्रों में मंदिर आदि स्थान खोजकर ऐसे ही कोचिंग केंद्र खोलने आरंभ किए। एक बस्ती के अभिभावक ने विष्णु जी से एक बार कहा कि जो बच्चे बड़े हो गए, उन्हें आपने पढ़ाना शुरू कर दिया है, पर ऐसे भी बहुत सारे बच्चे हैं, जिनके माता-पिता छोटे-मोटे काम पर चले जाते हैं और उनके पीछे उनके बच्चों को देखने वाला कोई नहीं होता है। आप उन बच्चों के लिए भी कुछ करें। तब बालवाड़ी शुरू करने का निर्णय लिया गया।
पहली बालवाड़ी वरिष्ठ कार्यकर्ता श्री ब्रजमोहन के प्रयासों से जहांगीरपुरी में शुरू हुई। इसका उद्घाटन 2 अक्तूबर, 1979 को स्वयं बालासाहब देवरस जी ने किया था। बालासाहब जी ने सेवा की जो कल्पना की थी, वह साकार होने लगी थी। उस दिन इसके साक्षी जहांगीरपुरी के लोग और स्वयंसेवक बने।
काम बढ़ता जा रहा था और एक ऐसी नियामक संस्था की जरूरत महसूस होने लगी थी, जो इन कार्यों के संचालन में सहयोग कर सकती थी। 14 अक्तूबर, 1979 को सभी कार्यकर्ताओं को झंडेवाला बुलाया गया। सबसे विचार करने के बाद उसी दिन सेवा भारती की स्थापना की गई। इसके बावजूद 2 अक्तूबर को ही सेवा भारती का स्थापना दिवस माना जाता है, क्योंकि उसी दिन सेवा भारती की आवश्यकता सबसे अधिक महसूस हुई थी।
यद्यपि सारी दिल्ली के सभी विभागों में सेवा कार्य इससे पूर्व शुरू हो चुके थे। ये सेवा कार्य तब संघ के सेवा कार्य कहे जाते थे। इस बीच में श्री अश्विनी कुमार खन्ना ने सेवा भारती नाम तय करवाया तथा एक संविधान बना कर पंजीकृत संस्था का रूप दिया। विष्णु कुमार जी को संगठन मंत्री तथा पं. विश्वामित्र पुष्करणा को सह संगठन मंत्री का दायित्व दिया गया। श्री कर्मचंद मेहरा अध्यक्ष तथा श्री सरदारी लाल गुप्ता मंत्री बने। श्री रामावतार गुप्ता को प्रचार मंत्री बनाया गया, जो ‘सेवा समर्पण’ मासिक के प्रथम संपादक बने। सेवा भारती की धुरी के रूप में विष्णु जी ने जीवन लगा दिया। वे कभी मंच पर नहीं जाते थे। न भाषण, न माला, न सम्मान, केवल काम, काम, काम। श्री अशोक सिंहल जब तक जीवित रहे तब तक उनका आशीर्वाद मिला। वरिष्ठ प्रचारक श्री प्रेमचंद गोयल का प्रेरणादायी आशीर्वाद आज भी मिल रहा है। सेवा भारती आज अनेक प्रांतों में काम कर रही है। हालांकि सभी प्रांतों में स्वतंत्र इकाइयां हैं। ये सभी अपने-अपने स्तर पर सेवा कार्यों के जरिए बालासाहब के सपनों को साकार कर रही हैं।
(लेखक दिल्ली सेवा भारती के शुरुआती कार्यकर्ताओं में से एक हैं)
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