|
पाञ्चजन्य
वर्ष: 13 अंक: 44
16 मई,1960
इतिहास के पन्नों से
—: हमारे विशेष प्रतिलिपि द्वारा:—
बिहार की जनता ने स्वतंत्र पार्टी की ओर अपनी जो रुचि दिखाई, उससे भयभीत होकर यहां के कांग्रेसियों को कांग्रेस के सर्वेसर्वा नेहरू की शरण लेनी पड़ी। जिस गांधी मैदान में स्वतंत्र पार्टी का अधिवेशन हुआ था, उसी मैदान में 14 अप्रैल की संध्या को श्री नेहरू का भाषण हुआ। भीड़ इकट्ठा करने में बिहार कांग्रेस के प्रचार विभाग ने काफी परिश्रम किया, यद्यपि संयोग से संक्रांति ने गंगा स्नान का प्रसंग भी उनके लिए अच्छा काम कर गया। जनता को यह सुनकर प्रसन्नता हुई कि भारत चीन की मैत्री के लिए अपने हितों का बलिदान नहीं करेगा। किंतु वास्तव में नेहरू जी को तो इस समय स्वतंत्र पार्टी को गाली देनी थी। उनके शब्दकोष में गालियों की कमी नहीं है। किसी को सांप्रदायिक बना देना उससे भी आसान है और संकुचित विचारधारा का आरोप तो बहुत ही आसान है। गाली देते-देते इतने जोश में आ गए कि उन्होंने किसी देश के साथ सैनिक संधि के विषय में यहां तक कह डाला कि चाहे देश खाक में मिल जाए, हम किसी से सैनिक संधि नहीं करेंगे।
नेहरू जी, आपकी महिमा धन्य है! इस प्रकार के भाषण देकर क्या आप चीन को यह आश्वासन देना चाहते हैं कि तुम निर्भीक होकर आक्रमण करो- मैं अंत तक अकेला रहूंगा। या आपको उद्घोष करना चाहिए था, कि 'मैं देश को आग में न मिलने के लिए सब कुछ करूंगा।' किन्तु आपको तो स्वतंत्र पार्टी की बुराई जो करनी थी।
सरकारी और गैर-सरकारी क्षेत्रों पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि यदि गैर सरकारी क्षेत्रों को स्वतंत्रता मिले, तो वे सिनेमा गृहों के खोलने के अतरिक्त कुछ नहीं करेंगे। उनके भाषण के दिन ही रांची में टेक्नोलॉजी संस्थान का उद्घाटन पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ने किया, जिसके द्वारा बिहार की एक बहुत बड़ी आवश्यकता की पूर्ति हुई। उसी बिहार राज्य के दरभंगा नरेश ने अपनी करोड़ों की संपत्ति (लक्ष्मीइबर विलास प्रसाद और संस्कृत पुस्तकालय) संस्कृत महाविद्यालय को दान रूप में समर्पित कर दिया। इसी बिहार राज्य में टाटानगर निजी क्षेत्र की अनुपम देन है। नेहरू जी यह सब भूले नहीं थे-उनको केवल स्वतंत्र पार्टी के विपरीत कुछ बोलना था- बस इसीलिए बोल रहे थे। 'पाञ्चजन्य' के पाठकों ने कुछ दिनों पूर्व पढ़ा होगा कि गाजीपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में प्रसिद्ध सर्वोदयी नेता श्री जय प्रकाश बाबू गुरुजी से सिद्धांत संबंध वार्ता कर चुके थे और उन्होंने यह भी स्वीकार किया था कि वे गुरुजी के विचारों से काफी प्रभावित भी हुए थे। किंतु उस कार्यक्रम के बाद अंग्रेजी के एक कम्युनिस्ट पत्र 'न्यूएज' ने उनकी काफी छीछालेदर की। उन्होंने बताया कि उनके कई मित्रों ने पत्र भी लिखे और अनेकों ने उनसे प्रत्यक्ष इस विषय पर वार्ता की। इस घटना से वे काफी घबरा गए। उन्हें नहीं पता था कि सत्य कितना कडुवा होता है- दूसरों के लिए भी और अपने लिए भी। अस्तु, इस बार जब पटना शाखा में उन्हें निमंत्रित किया गया तो पहले तो हिचकिचाए, किंतु बाद में कुछ सोचकर निमंत्रण स्वीकार कर लिया।
दकियानूसी मार्क्सवादी विचारों की रट छोडि़ए
—: श्री मीनू मसानी:—
श्री राजाजी के उत्तर भारत के दौरे के समय वामपक्षीय केंद्रीय तेल तथा खानमंत्री श्री के.डी. मालवीय एवं अन्य छह संसद सदस्यों ने 'श्री राजाजी स्वतंत्र पार्टी के गलत प्रचार से बाज आएं' इस आशय का एक खुला पत्र प्रकाशित किया।
'कांग्रेस साम्यवाद की पक्षपाती है' राजाजी के इस आरोप पर रोष प्रकट करते हुए कहा गया है कि 'स्वतंत्रता' संबंधी राजाजी की परिभाषा आज विश्व में कहीं दिखाई नहीं देती। यही नहीं तो 'समाजवाद' रहने के लिए ही अवतरित हुआ है यह वस्तुस्थिति भी राजाजी को स्वीकार कर लेना चाहिए।
राजा जी और उनकी स्वतंत्र पार्टी 'प्रतिगामी' है, और 'समाजवाद' रहने के लिए ही उत्पन्न हुआ है तो इस प्रकार के खुले पत्र की क्या आवश्यकता थी? इसका उत्तर श्री मालवीय जी के पास नहीं है।
वस्तुत: स्थिति यह है कि 'जागतिक समाजवाद' का वेगवान प्रवाह जो देश के बाद विदेश में फैलता हुआ अपने देश में भी आ रहा है, वह बाहर जाने वाले मार्ग पर है। इस कारण मार्क्सवादी चाहे वे कांग्रेस-मार्का हो या कम्युनिस्ट सभी भय-ग्रस्त हैं।
बदलते वातावरण में विश्व के अधिकारिक समाजवादी विचारकों की प्रतिक्रिया से संबंधित कुछ तथ्य श्री मालवीय एवं अन्य वामपंथियों की आंख खोलने में सहायक सिद्ध होंगे—
'डच लेबर पार्टी', जिसने1959 में नया कार्यक्रम स्वीकार किया है वह समाजवाद की परिभाषा, ''सामाजिक एवं नैतिक जीवन मूल्यों समूह'' के रूप में स्वीकार करती है।
'राज्य समाजवाद' तथा नौकरशाही की प्रभुसत्ता, को विशेषरूप से अस्वीकार कर वह कार्यक्रम की घोषणा करता है कि 'निर्माण के साधनों पर प्रभुत्व' को राष्ट्र की भलाई के साधन रूप में ही बनना चाहिए। विभिन्न प्रकार के निजी तथा सार्वजनिक प्रतिष्ठान साथ-साथ रहें यह भी इष्ट है। यदि समाज की भलाई इनके द्वारा सिद्ध हो तो निजी स्वामित्व के प्रतिष्ठानों पर सार्वजनिक नियंत्रण अनिवार्य रूप से रखना चाहिए।''
स्वीडन के प्रधानमंत्री तथा उनके सहयोगियों ने जून 1960 को 'स्वीडिश' सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के सम्मेलन के लिए एक नया कार्यक्रम तैयार किया है। इसके प्रारूप के अनुसार:-
समाजवादी प्रजासत्ता, सार्वजनिक स्वामित्व तथा सार्वजनक नियंत्रण की मांग का समर्थन करती है परंतु उसी सीमा तक की महत्वपूर्ण सार्वजनिक हितों की सुरक्षा की आवश्यकता है।
पार्टी उन प्रांतों में निजी धंधों को प्रोत्साहन देना चाहती है जिसमें कि उसने (निजी क्षेत्र ने) अपने उपभोक्ता, कर्मचारी तथा समाज के बारे में दक्षता एवं प्रगतिशाली विचारों के द्वारा उत्तरदायित्वपूर्ण योगदान दिखाया हो।
संपत्ति का स्वामित्व
''संपत्ति के स्वामित्व का प्रश्न महत्वपूर्ण है। कुछ लोग संपत्ति पर व्यक्ति का निर्बाध अधिकार मानते हैं। दूसरी ओर वे लोग हैं जो निजी संपत्ति को, विशेषकर उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व को, सभी बुराइयों की जड़ मानते हैं। ''ईशावास्यमिदं सर्वं'' के आधार पर कुछ तत्वज्ञ संपूर्ण सम्पत्ति को ईश्वर की मानकर मनुष्य को 'विश्वस्त' के नाते उसका व्यवहार करने का परामर्श देते हैं। सैद्धांतिक दृष्टि से यह विचार अच्छा है। किंतु व्यवहार में 'विश्वस्त' को न्यास के किन नियमों और निर्देशों से बांधा जाए और कौन बांधे, यह प्रश्न तो बना ही रहता है। व्यक्ति या व्यक्तियों का ऐसा समूह जिसके साथ व्यक्ति जीवन के सभी प्रमुख व्यवहारों तथा आवश्यकताओं के लिए निगडि़त है, बिना संपत्ति के नहीं रह सकता। कर्म के साथ कर्मफल जुड़ा है। अर्जित के उपभोग एवं उपयोग की स्वतंत्रता में से सम्पत्ति पैदा होती है। संपूर्ण आय का उपभोग न कर बचत करना एक स्वाभाविक प्रवृत्ति तथा राष्ट्रीय गुण है। संपत्ति में भी मानव को प्रतिष्ठा, सुरक्षा तथा तृप्ति की अनुभूति होती है। अत: हम संपत्ति को पूरी तरह नहीं मिटा सकते।''
—पं. दीनदयाल उपाध्याय (विचार-दर्शन, खण्ड-7, पृ. 63)
टिप्पणियाँ