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अपने बच्चों और आसपास नजर रखिए

by
Mar 20, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 20 Mar 2017 16:01:35

आपका बच्चा या आपके आसपास कोई भी पागलपन की हद तक मजहबी बने तो उससे बात कीजिए। उसके भीतर कुछ गड़बड़ मिलेगा। सैफुल्ला जैसा भी इनसान बना, कुंठित समाज की वजह से बना
ल खनऊ में एटीएस ने जिस लड़के को आईएसआईएस समर्थक कहकर मार गिराया है… मैं उसकी दिनचर्या पढ़ रहा था जो उसने डायरी के दो पन्नों पर लिखकर अपने कमरे की दीवार पर चिपका रखी थी। सुबह चार बजे उठकर पहले वह तहज्जुद पढ़ता था। फिर फज्र की नमाज और व्यायाम। इसके बाद नौ बजे कुरान की तिलावत के बाद खाना बनाता था। दोपहर 12:30 बजे जुहर की नमाज के बाद खाना खाकर कैलूला (दोपहर में सोना) और चार बजे शाम को उठकर अस्र की नमाज। उसके बाद कुरान की तफसीर और हदीस पढ़ना। फिर छह बजे मगरिक की नमाज और 8:30 पर इशा की नमाज के बाद धर्मशास्त्र पढ़ना और खाना खाकर सो जाना।
 यह एक 25 वर्षीय लड़के की दिनचर्या थी। कोई आम धार्मिक व्यक्ति जब किसी इनसान की इस तरह की दिनचर्या देखता है तो उसे लगता है कि वाह, क्या इनसान है। कितना इबादतगुजार है … और इस तरह की दिनचर्या में उसे कुछ गलत नजर नहीं आता। मगर यह दिनचर्चा ‘प्राकृतिक’ नहीं है। मुझे इसमें बीमारी दिखती है। जब भी आपका लड़का या आपके आसपास कोई भी इतनी बुरी तरह से धार्मिक बने तो उससे बात कीजिए। उसके भीतर कुछ गड़बड़ मिलेगा। टूटा हुआ दिल, दबी हुई काम-वासना, सामाजिक बहिष्कार, कोई न कोई छिपी हुई मानसिक या शारीरिक बीमारी या इन सब जैसा कुछ। वह व्यक्ति कभी भी स्वस्थ नहीं होगा, जो इस उम्र में इस हद तक धार्मिक हो… और वह भी पागलपन की हद तक! ऐसे बच्चे को जितना हो सके, अपने मौलानाओं से दूर रखिए, क्योंकि इन्हें मनोविज्ञान की रत्ती भर समझ नहीं होती। उनके हिसाब से अल्लाह के लिए जो जितना पागल हो जाए, उतना अच्छा है, क्योंकि उन्होंने यह कभी जाना ही नहीं कि मनोविज्ञान में ‘रीलिजियस मेनिया’ नाम की बीमारी होती है।
जरा सोचिए कि उसकी दिनचर्या में अगर रात की ‘इशा’ नमाज के बाद एक घंटा ‘संगीत के रियाज’ का होता और दोपहर की नमाज के बाद ‘कुछ घंटे लैपटॉप’ में फिल्म देखने के होते तो हालात क्या से क्या होते। ये एक स्वस्थ मस्तिष्क के लक्षण होते। मगर ऐसा नहीं हो सका, क्योंकि आप मौलाना साहब से बच भी जाएं तो यहां इंटरनेट पर लाखों बैठे हैं जो आपको टॉर्चर करने की हद तक धार्मिक बनाने में मुब्तिला हैं। मैं जब भी कोई गाना या अपने बच्चे के गाने का वीडियो डालता हूं तो मुझे इनबॉक्स में पूछने आ जाते हैं कि आपने नमाज पढ़ी या आपके बच्चे ने पढ़ी? या आप लोग सिर्फ गाते ही हैं? ये जब मुझे समझाने आते हैं तो सोचिए कि अपने आसपास रहने वालों को ये कैसे जीने देते होंगे?
सैफुल्ला जिस भी तरह का इनसान बना, वह हमारे कुंठित समाज की वजह से बना। आईएसआईएस मुझे क्यों नहीं आकर्षित करता? मेरे जैसे लाखों करोड़ों को क्यों नहीं करता? … क्योंकि मुझे उनकी बीमारी दिखती है। वे बीमार हैं और बीमार ही सिर्फ बीमारी की तरफ आकर्षित हो सकता है। इस पागलपन की हद तक धार्मिक होना बीमारी है, लेकिन हर समाज उसे बढ़ावा देता है और फिर सोचता है कि आखिर कैसे मेरा बच्चा ऐसा पागल हो गया? जिस उम्र में उसे भरपूर नींद लेनी चाहिए थी, लड़की/लड़के/प्रकृति के प्रति प्यार होना चाहिए था..़. उस वक्त आप उसे ‘अल्लाह’ से प्यार करना सिखा रहे थे, जो कि इस समझ और इस उम्र के लिए पूरी तरह अप्राकृतिक है। … मगर आप इस प्रवृत्ति को समझ ही नहीं पाते।
जब 18-20 साल का कोई लड़का मुझसे पूछता है ‘‘ताबिश भाई सूफिज्म के बारे में मुझे कुछ बताइए। ये बताइए कि अल्लाह कैसे मिलेगा? मैं कैसी इबादत करूं?’’ तब मैं उससे पूछता हूं कि ‘‘कोई लड़की मिली आजतक तुम्हें? प्यार किया किसी से कभी? कभी किसी से धोखा खाया?’’ तो ज्यादातर लड़के जवाब देते हैं, ‘‘क्या ताबिश भाई! कैसी बात करते हैं आप? ये सब तो गुनाह है।’’ मैं उन्हें समझाता हूं, ‘‘पहले दुनिया से प्यार करो, यहां प्यार करना सीखो। पहले आकार से प्यार करो, प्रकृति से प्यार करो। स्थूल से प्यार किया नहीं और निराकार के पीछे पड़े हो इस उम्र में..़. जाओ फिल्म देखो। संगीत सुनो। नाचना सीखो।’’ कुछ को मेरी बात समझ आती है, मगर कुछ फेसबुक और मौलानाओं के जाल में फंस जाते हैं और फिर वही सैफुल्ला वाली इबादत की दिनचर्या अपना लेते हैं। उन्हें यहां की लड़कियां और लड़के ‘मांस का लोथड़ा’ लगते हैं और जन्नत में पारदर्शी हूरों की पिंडलियां उनकी नींदें हराम करने लगती हैं।
 ल्ल ताबिश सिद्दिकी की फेसबुक वॉल से

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