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ढाई लाख साल पहले भारत और यूरोप में एक खास तरह की गाय पाई जाती थी। इन्हें पर्यावरण के लिहाज से महत्वपूर्ण माना जाता था। आकार में ये सात फीट ऊंची, लेकिन हाथी से थोड़ी छोटी होती थीं। इनके बारे में पुरातन ग्रंथों और चित्र गुफाओं से जानकारी मिलती है। मध्य प्रदेश में भोपाल के पास 'भीमबेटका' गुफाओं की मालिका में इन गायों के चित्र भी मौजूद हैं। इसके अलावा, इन गायों की अस्थियां और जीवाश्म भी मिले हैं।
दुनियाभर के जीव वैज्ञानिक अब इस महाकाय गाय को पुन: अस्तित्व में लाने की तैयारी में जुटे हुए हैं।
फिलहाल, जिस गाय को अस्तित्व में लाने यानी 'बैक ब्रीडिंग' की कोशिश चल रही है, उसे 'औरोक्स' नाम से जाना जाता है। इनकी ऊंचाई 7 फीट, लंबाई 10 से 12 फीट और वजन 1,000 किलो से अधिक होता था। इनके सींग बहुत लंबे और मोटे होते थे। ये मौजूदा गायों से न केवल फुर्तीली थीं, बल्कि आक्रामक भी थीं। इसके अलावा, ये बाघ, शेर जैसे खूंखार जानवरों का सामना करने में भी सक्षम थीं। वैज्ञानिकों का खास ध्यान इस पर भी है कि जिन्हें पुनर्जीवित करने की कोशिश हो रही है, उनमें कौन-से गुण मौजूद होंगे। 2008 में नीदरलैंड्स के वेगेनिंजेन विश्वविद्यालय एवं शोध केंद्र में 'द तौरस प्रोग्राम' के तहत 'औरोक्स' गाय के सृजन पर काम शुरू हुआ था। इसमें कई देशों के विश्वविद्यालय भी योगदान दे रहे हैं। हालांकि इस शोध का भारतीय गाय से खास संबंध नहीं है। फिर भी कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि प्राचीन काल में भारत में यह गाय रही तो होगी, लेकिन इसका आकार छोटा होगा और करीब ढाई-तीन हजार वर्ष पूर्व ये विलुप्त हो गई होंगी। औरोक्स को गोवंश का पूर्वज माना जाता है। मानव सभ्यता में इसकी भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है।
ऐसे बनी शोध की भूमिका
'औरोक्स' गायें 1627 तक पूरी तरह से विलुप्त हो चुकी थीं। हालांकि इनका डीएनए अभी तक सक्रिय है। लेकिन यह प्राचीन मूल के गोवंशों में बंटा हुआ है जो यूरोप के कई देशों में बिखरे हुए हैं। इसके अलावा, शोध के लिए अलग-अलग स्थानों से इन गायों के जीवाश्म भी मिले, जिन्हें एकत्र किया गया है। शोध कार्य से जुड़े एक इतालवी प्राध्यापक डॉ. डोनैटो मैसेटिनो का कहना है, ''विभिन्न स्थानों पर मिले डीएनए और जीवाश्मों के आधार पर उपलब्ध संसाधनों को शोध में शामिल किया गया है। औरोक्स गायें कुछ हजार पूर्व पाई जाने वाली गायों के जैसी तो नहीं होंगी, लेकिन हमें विश्वास है कि इनमें कुछ समानताएं होंगी।'' चूंकि ये स्वभाव से आक्रामक होती थीं, इसलिए इन्हें पालना संभव नहीं था। ये जंगली इलाकों में ही रहती थीं। हालांकि सांडों के मुकाबले इन गायों का आकार छोटा होता था।
यूरोपीय साहित्य में सम्राट जूलियस सीजर ने भी इन गायों के विषय में उल्लेख किया है। इस संदर्भ में भारतीय गायें कई वजहों से विश्व में महत्वपूर्ण साबित हुई हैं और पिछले 200 वर्षों में इन्होंने अपनी अलग छाप छोड़ी है।
कब तक पूरा होगा शोध
औरोक्स के विलुप्त होने के करीब 400 साल बाद 'रिवाइल्डिंग यूरोप प्रोजेक्ट' के तहत इसे पुन: अस्तित्व में लाने पर काम शुरू हुआ। इसके बाद रिवाइल्डिंग यूरोप ने 2013 में डच तौरस फाउंडेशन को शोध कार्य में भागीदार बनाया। शोध के लिए 30 में से छह-सात गाय एवं सांडों का चयन किया गया, जिनमें औरोक्स के डीएनए मौजूद थे। इसके बाद इनसे बछड़े उत्पन्न करने के लिए इन्हें नीदरलैंड में लाया गया।
2015 तक इनकी संख्या 450 तक पहुंच गई। शोध में मुख्यत: स्पेन की सायागुएसा, पाजुना, पुर्तगाल की मारोनेसा, इटली की मारेमेना प्रिमिटिवा, क्रोएशिया की बोसकरिन नस्लों का प्रयोग किया जा रहा है। इसके अलावा स्पेन, स्कॉटलैंड के ऊंचे इलाकों में पाए जाने वाले मवेशियों के साथ स्पेन की लिमिया नस्ल को भी शामिल किया गया है। वैज्ञानिक ऐसे गुणों वाले स्थानीय नस्ल को भी शोध में शामिल करने की सोच रहे हैं ताकि मनोवांछित सफलता हासिल की जा सके। पूरा प्रयोग चार चरणों का है।
पहला चरण 2008 से 2013 तक चला। इसमें अब तक 238 बछड़ों का जन्म हो चुका है। इनमें से गाय और सांड के गुणों वाले बछड़े को अस्तित्व में लाने में पांच साल लगेंगे। फिर भी वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि इस साल वे औरोक गायों से मिलती-जुलती गाय को अस्तित्व में ले आएंगे। दूसरा चरण 2013-18, तीसरा 2018-25 तक चलेगा और चौथा चरण 2025 के बाद शुरू होगा। शुरुआती दो चरण प्राचीन गायों के समतुल्य गाय के सृजन पर केंद्रित होंगे। सबसे आखिर में मूल गाय को अस्तित्व में लाने की प्रक्रिया शुरू होगी।
भीमबेटका गुफाओं में प्रमाण
'भीमबेटका' से मिले चित्रों से उस समय के वन्य जीवन, वनस्पति जगत, मनुष्य के रहन-सहन और पर्यावरण संबंधी कई जानकारियां मिली हैं। हालांकि इन गायों का मूल कहां था, इस विषय को लेकर कई मत हैं। लेकिन दुनियाभर के वैज्ञानिकों के बड़े तबके को लगता है कि इनका मूल भारत में रहा होगा। भारत में इस महाकाय गाय को 'बोस इंडिकस' और विश्व में 'झेबु' नाम से जाना जाता है। दुनिया में 'झेबु' प्रजाति की गायों की आबादी 100 करोड़ से अधिक है। भारत में इसकी देसी नस्ल तीन करोड़ है। दरअसल, गोवंश की चार प्रमुख नस्लें हैं— बोस इंडिकस, बोस तौरस, बोस याक और बोस बैबुलस। जैव विविधता कायम रखने में इनकी भूमिका अहम थी।
50 वर्ष पहले चित्रों की खोज
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता और इतिहास संशोधक श्री हरिभाऊ वाकणकर ने पांच दशक पूर्व सबसे पहले 'भीमबेटका' गुफाओं की मालिका में इन चित्रों का पता लगाया था। इसके बाद उन्होंने इस पर शोध भी किया। सरस्वती नदी का अस्तित्व साबित करने में भी इस गुफा मालिका का काफी उपयोग हुआ है। इसके अलावा, इन गायों के चित्र एशिया एवं यूरोप की कई गुफा मालिकाओं में भी पाए गए हैं।
एशिया एवं यूरोपीय साहित्य एवं प्राणी विज्ञान से जुड़े शोध कार्यों से भी इनके विषय में काफी जानकारियां मिली हैं। ऐसे कई सिद्धांत सामने आ रहे हैं, जिससे 'भीमबेटका' से मिले चित्रों से विश्व इतिहास मंे नया मोड़ आ सकता है।
गाय का दूध अमृत
भारतीय साहित्य में गायों के दूध का उल्लेख 'अमृत' के रूप में हुआ है। आयुर्वेद में दूध, गोमूत्र एवं गोबर का उपयोग औषधि के तौर पर होने और कृषि विकास में भी इसकी उपयोगिता साबित हो चुकी है। शोध में इन विषयों पर भी नए सिरे से रोशनी पड़ने की संभावना है। फिलहाल विश्व में 300 करोड़ गायें हैं। इनमें बोस इंडिकस नस्ल की गायें 100 करोड़ हैं। वहीं, बोस इंडिकस यानी देसी गायों की संकर प्रजाति की तादाद 50 करोड़ है। वहीं, ब्राजील में भारतीय गोवंश की 28 करोड़ गायें हैं, जबकि न्यूजीलैंड में झेबु नस्ल की एक करोड़ गायें हैं। चीन में भी भारतीय वंश की गायें बड़े पैमाने पर पाली जाती हैं। अफ्रीका में तो भारत की ही तरह गायों को पवित्र माना जाता है।
गायों की उपयोगिता पर शोध
भारत में बीते 20-25 वषोंर् में बड़े पैमाने पर गोशालाओं का निर्माण हुआ है। प्रत्येक गाय को समृद्ध आहार और उनकी उपयोगिता, आयुर्वेद की दृष्टि से उपयोग और कृषि क्षेत्र में इनके उपयोग को केंद्र में रखकर शोध कार्य शुरू हो चुके हैं। साथ ही, केंद्र सरकार ने भी 'उन्नत भारत अभियान' नामक एक स्वतंत्र संस्था बनाई है जिसमें देशभर के आईआईटी के जरिये शोध कार्य को गति दी जा रही है। कम्प्यूटर वैज्ञानिक डॉ. विजय भाटकर इस संस्था का नेतृत्व कर रहे हैं। – मोरेश्वर जोशी –
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