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जूनापीठाधीश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि जी ने हाल ही में आचार्य सभा की ओर से आदि शंकराचार्य की दीक्षा स्थली ओंकारेश्वर में एक शोध संस्थान और उनकी एक विशाल प्रतिमा स्थापित करने का आह्वान किया है जिसे प्रदेश सरकार ने सहर्ष स्वीकारते हुए काम शुरू कर दिया है। गत दिनों शांकारी परंपरा, धर्म, अध्यात्म और कन्वर्जन के संदर्भ में पाञ्चजन्य के सहयोगी संपादक आलोक गोस्वामी ने उनसे विस्तृत बातचीत की। प्रस्तुत हैं उसी वार्ता के प्रमुख अंश :
भारत-भूमि की ज्ञान परंपरा में आदि शंकराचार्य का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने संपूर्ण भारत में ज्ञान की अलख जगाई है। इस संदर्भ में आपने गत दिनों ओंकारेश्वर में जो संकल्पना व्यक्त की, उसके बारे में बताएं।
गोविंदपाद और उनके गुरु गौड़ापाद हमारी शांकारी परंपरा अथवा ऋषि या वैदिक परंपरा के संवाहक रहे हैं। उन्होंने ओंकारेश्वर में भगवान आदि शंकराचार्य को दीक्षा दी है। देखा जाए तो आदि शंकराचार्य ने धर्म को संगठित किया, 4 पीठ बनाए और उसके माध्यम से दशनाम परंपरा स्थापित की, संन्यासियों को संगठित किया। सप्तपुरियों, द्वादश ज्योतिर्लिंगों और चार धामों के माध्यम से संदेश दिया कि पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण को जोड़ा जा सकता है। तो भारत की एकता, अखंडता, संप्रभुता के लिए आध्यात्मिक गलियारों में सूत्र निकाले गए। भारत में एकात्मता, अखण्डता आध्यात्मिकता, धर्म, संप्रदाय, मान्याताओं अैर तीर्थों के कारण है। तो आदि शंकराचार्य ने भारत को एकात्म बनाने का, एक सूत्र में पिरोने का काम किया। आज आप देखेंगे कि दक्षिण के नंबूदिरी उत्तर में रावल के रूप में पूजा करवा रहे हैं। चारों धामों में ऐसा ही है। तो जिन आदि शंकराचार्य ने ऐसा काम किया हो, जिन्होंने प्रस्थानत्रयी दी हो, जो भाष्यकार हों, जिन्होंने मूल तत्व को नए ढंग से प्रकाशित किया हो, ऐसे भगवान शंकराचार्य के दीक्षा स्थान पर हमने चाहा है कि शोध संस्थान बने। इसके माध्यम से हम उत्तर को दक्षिण से भी जोड़ सकते हैं। इस वक्त उत्तर को दक्षिण से जोड़ने के लिए कोई राजनीतिक मसौदा, नहरें, भौगोलिक सीमाएं काम नहीं आएंगी।
देश की एकता-अखंडता के एकमात्र माध्यम बन सकते हैं आदि शंकर। ओंकारेश्वर में भगवान शंकराचार्य की गुफा है जहां उनके गुरुदेव ने उन्हें दीक्षा दी। तो ऐसे स्थान से कोई संदेश जाता है तो वह एक बड़ी बात होगी। इस संदर्भ में केन्द्र और राज्य, दोनों सरकारें वहां जल के निकट अनेक कार्य कर रही हैं। नमामि नर्मदे अभियान के साथ भगवान शंकराचार्य का पुण्य स्मरण बड़ी बात है। मैं तो यहां तक कहना चाहूंगा कि पूर्ववर्ती सरकारें इनका नाम लेने से घबराती रही हैं। कम से कम वर्तमान सरकार को सुध आई है। मैं साधुवाद देता हूं।
वहां आदि शंकराचार्य की प्रतिमा की स्थापना भी की जानी है?
मेरा सामान्य सा यत्किंचित सुझाव था कि हर घर से धातुएं आएं और भगवान शंकराचार्य की भव्य प्रतिमा बने। वहां के मुख्यमंत्री ने हमारी बात मानी और उसकी सार्वजनिक रूप से घोषणा की। अब वहां प्रतिमा बन रही है। वैसे मैं जब कोई विचार देता हूं तो वह मेरा व्यक्तिगत विचार नहीं होता, आचार्य सभा का विचार होता है और संयोग से वर्तमान में आचार्य सभा का मुख्य दायित्व मेरे पास है। तो यह सभी आचार्यों का अभिमत है।
महाराजश्री, अच्छा लगता है जब हम देश भर में और विदेशों में भी कथा-प्रवचन, संत-सत्संग के प्रति लोगों में रुझान बढ़ता देखते हैं। लेकिन इसके साथ ही, समाज में एक प्रकार का स्वार्थ, संयम में कमी, बेचैनी और आपस में सौहार्द की रेखाएं पार होती दिखती हैं। यह कैसी विडम्बना है?
आज विशुद्ध रूप से आर्थिक अथवा भौतिक युग है। इस युग में एक और नई चीज निकलकर आई है, जिसका नाम है तकनीक। ऐसा भी कह सकते हैं कि इस युग ने सूचना तकनीक और संचार की क्रांति देखी है। वे सारे साधन भी देखे जो तात्कालिक लाभ, स्वास्थ्य, सौंदर्य और भौतिकीय अनुकूलताएं देने का आश्वासन देते हैं। स्वतंत्रता के बाद से आज तक इस देश ने बहुत-सी विषमताएं देखी हैं। इन सबके कारण एक ऐसी प्रवृत्ति ने जन्म लिया है कि हमें तत्काल, बिना श्रम-साधना किए, बिना योग्यता-पात्रता के लाभ मिल जाए। फिर यह लाभ चाहे तकनीक से मिले, किसी के आश्रय से अथवा राजनीतिक गलियारों से। इस चीज ने व्यक्ति को बड़ा आत्मकेन्द्रित कर दिया है। व्यक्ति का ध्यान समाज से हटकर परिवार और परिवार से भी हटकर स्वयं में आ गया है।
आज सबके रुचि के साधन अलग-अलग हैं। पहले घर में सबके लिए एक ही भोजन बनता था। सब उसे प्रसाद मानकर ग्रहण करते थे, लेकिन अब सबके अलग-अलग स्वाद हैं, अलग-अलग रुचियां हैं। आपका प्रश्न बड़ा स्वाभाविक है कि इस युग ने हमें स्वार्थी बनाया है, आत्मकेन्द्रित किया है और जीवन सिर्फ अपनी हित-सिद्धि तक सिमटकर रह गया है। मतलब, मेरा हित, मेरा सुख-सम्मान आदि। इस युग में एक प्रवृत्ति और आई है कि 'मैं अच्छा दिखूं, भले मैं अच्छा न होऊं।' तो ऐसे कितने ही तरीके-साधन आ गए जो आपकी श्रेष्ठता को सिद्ध कर रहे हैं। तो हम आज जिस तरह का समाज देख रहे हैं उसमें व्यक्ति आत्मकेन्द्रित हुआ है। पहले व्यक्ति को संकोच होता था जब कोई उसकी श्रेष्ठता, पूज्यता, शील, पावित्र्य, विद्या अथवा उसके किसी बड़े कार्य या उपलब्धि को उजागर करता था। वह बड़ा सकुचाकर कहता था कि 'नहीं, यह तो माता-पिता का आशीर्वाद है, गुरुजनों का अकारण अनुग्रह है, मुझमें ऐसी योग्यता कहां।'' लेकिन आज हुआ ऐसा है कि व्यक्ति को अच्छा लगता है जब कोई उसकी प्रशंसा करता है। वह स्वयं भी सोचता है कि 'मैं जरा बता दूं कि मैं भी कुछ हूं।' आज तात्कालिक लाभ प्रवृत्ति प्रचण्ड है। लाभ में भी यश, सम्मान और यशोगान। आज अकारण ही किसी का यशोगान हो तो वह सकुचाता नहीं है।
आप सम श्रेष्ठ संत समाज में धर्म जागरण का महती कार्य कर रहे हैं। व्यक्ति के जीवन में धर्म की महत्ता क्या है?
इसके बड़े व्यापक अर्थ हैं, पर एक सीधी बात है कि व्यक्ति अपने स्वभाव, सत्ता, स्वरूप, अपनी निजता, अपने अस्तित्व से अनभिज्ञ है। तो इससे न लाभ होगा, न उसकी प्रगति होगी। उसकी उन्नति के सकल द्वार बंद से ही रहेंगे, क्योंकि वह अपने प्रति अनभिज्ञ है। धर्म व्यक्ति को उसकी सत्ता का बोध कराता है। व्यक्ति के पास स्वाभाविक रूप से जो दैवीय सामर्थ्य है, उसमें जो अनंतता छिपी हुई है, धर्म व्यक्ति को उसकी उस अनंतता का बोध कराता है। धर्म व्यक्ति को अपराजित भी बनाता है। क्योंकि एक होड़ तो है ही कि 'मैं जीत जाऊं, मुझे जय मिले।' तो इस जय के लिए क्या नहीं किया मनुष्य ने, आदिकाल से आज तक! पर अगर धर्म पास है तो व्यक्ति स्वत: विजित है, और अपराजित है।
एक और बात। धर्म के जागरण से फिर आसपास में अनंत संभावनाएं उजागर हो जाती हैं। इससे फिर व्यक्ति हताश, निराश नहीं होता, आपको यह नहीं लगेगा कि अब कोई संभावना नहीं है, अब कोई द्वार नहीं रहा। धर्म के जागरण के बाद व्यक्ति में दैन्य नहीं रहता। अगर व्यक्ति में धर्म जग गया है तो फिर अभाव भी नहीं रहता। यह भाव नहीं रहता कि 'फलां तो बहुत आगे बढ़ गया, हमारे पास तो कुछ नहीं है।' तो धर्म के आने से पदाथार्ें के कम-ज्यादा होने की चिंता नहीं रहती। इससे संतुष्टि आती है।
..तो क्या ऐसा कह सकते हैं कि धर्म जागरण के बाद व्यक्ति सन्मार्ग पर चलता है?
धर्म का अर्थ हुआ कि जो आपको सत्कार्यों में संलग्न रखेगा। आपकी प्रकृति बदल जाएगी, आपका सोचने का ढंग बदल जाएगा, आपमें स्वाभाविक उदारता आ जाएगी। और फिर आप कदाचित अपने लिए ही नहीं, दूसरों के लिए भी सोचने लगेंगे। और जब आप बहुत लोगों के लिए सोचने लगते हैं तो फिर आपके सोचने-करने में अंतर आ जाता है। जिन लोगों ने इतने पेड़ लगाए, मार्ग बनाए, औषधियां बांटीं अथवा साहित्य सृजन किया, वे वही लोग थे जो सबको साथ लेकर चल रहे थे।
लेकिन समाज में ही एक वर्ग है जो कहता है कि 'धर्म की क्या आवश्यकता है, कर्म पर भरोसा करो। कर्म अच्छा करोगे तो आपका धर्म स्वत: सही रहेगा।' ऐसी सोच वालों के लिए क्या कहना चाहेंगे?
हमारे यहां चार पुरुषार्थ बताए गए हैं-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। यहां धर्म का आशय पाण्डित्य की पेचीदगियां नहीं हैं, ग्रंथ की जटिलता नहीं है, कर्म-काण्ड नहीं है। धर्म का आशय मंदिरों की प्रदक्षिणा भी नहीं है। धर्म का अर्थ है स्वरूप और स्वभाव में लौटना अथवा अपना कर्तव्य बोध होना। तो जो लोग कहते हैं धर्म की क्या आवश्यकता, उनका ध्यान कर्मकाण्ड की ओर होता है। अथवा उनका ध्यान सांप्रदायिक संकीर्णता की ओर चला जाता है। जबकि धर्म सांप्रदायिक संकीर्णता नहीं है। धर्म तो आपकी निजता है। शास्त्रों में धर्म का बड़ा अद्भुत अर्थ बताया गया है-
यतो अभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धि सह धर्म:
अर्थात्-आपके आसपास के वातावरण को, आपके इहलोक और बाद में परलोक की भी जो सिद्धि कर दे, वह धर्म है।
तो आपके वर्तमान का, आसपास का, आपकी प्रकृति-स्वभाव का जो बोध करा दे। 'यतो अभ्युदय…' यानी आपमें उन्नति, पराक्रम, पौरुष, पुरुषार्थ, शौर्य, धैर्य के भाव जगा दे। यानी जो आपको गतिमान रखता है, आपके चिंतन में प्रखरता लाता है। तो अभ्युदय का अर्थ है कि आप नित्य नूतन और नाविन्य बोध के साथ जुड़े रहें। और नि:श्रेयस सिद्धि यानी जो अज्ञात है उसके पथ की सिद्धि के लिए भी धर्म है। तो इहलोक और परलोक, दोनों स्थानों पर उत्कर्ष, विजय, उन्नति और सिद्धि के मार्ग जो प्रशस्त करता है, वही धर्म है।
शास्त्रों और आप संतों द्वारा अनेक बार धर्म की सटीक व्याख्या किए जाने के बाद भी वह वर्ग कहता है कि धर्म को राजनीति से विलग रखना चाहिए। इस बारे में आपका क्या कहना है?
देखिए, धर्म ने कभी राजनीति पर अंकुश नहीं लगाया। धर्म ने कभी ऐसा नहीं चाहा कि राजनीति उसकी दासता स्वीकार करे। धर्म मार्गदर्शन का नाम है, प्रकाशन का नाम है। धर्म बोध का नाम है, लक्ष्य की स्पषटता का नाम है। धर्म का अर्थ है उद्देश्य पूर्ति के लिए आप सजग रहें, सावधान रहें। तो धर्म को तो राजनीति से विलग कर ही नहीं सकते। बताइए, किस काल में धर्म राजनीति से विलग रहा है? चंद्रगुप्त के साथ चाणक्य रहे हैं, राम के साथ वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जाबाली और वाल्मीकि रहे हैं, अगस्त्य और भारद्वाज रहे हैं। आप देखें कि वह किस प्रकार का राज्य रहा होगा। कृष्ण के साथ में न जाने कितने संत हैं। और आज तक भी राजनीतिक गलियारों से जो भी अच्छा हुआ है, उसमें धर्म का आश्रय रहा है।और हमारा धर्म तो ऐसा है ही नहीं कि हमें किसी को दास बनाना है। हमारा धर्म तो यहां तक कहता है कि-
आत्मन: प्रतिकूलानी, परेषां न समाचरेत्।
यानी जो हमको अच्छा नहीं लगता वह दूसरों के साथ न करो।
आज झगड़ा किस बात का है, बताइए? वह इस भाव से है कि-'मैं श्रेष्ठ हूं, मैं ही श्रेष्ठ हूं, मेरा ही धर्म श्रेष्ठ है, मैं ही सही हूं।' इस विचार ने आज धरती पर उपद्रव पैदा किया है। मनुष्यता के सामने आज हम आतंक जैसी विभिन्न प्रकार की विपत्तियां देख रहे हैं, नाना प्रकार का नरसंहार दिेख रहे हैं। ईसा से पूर्व तो कोई ऐसी बात थी ही नहीं। मेरा किसी पर कोई दोषारोपण नहीं है, पर ईसा के बाद एक नई बात निकल कर आई कि 'हम ही श्रेष्ठ हैं, हमारी बात स्वीकार कर लो। हमारी बात स्वीकार करोगे तो सब प्रकार की अनुकूलताएं मिलेंगी, पारलौकिक भी।' हमारे धर्म में तो ऐसी बात कही नहीं गई। हमारे धर्म में तो एक और ही बात कही गई कि-आत्मन: प्रतिकूलानी…। यानी जो खुद को अच्छा नहीं लगता वह दूसरों के साथ नहीं करना। मैं एक नई बात कहूं? जो दूसरों के सम्मान, स्वाभिमान, निजता, स्वायत्तता, स्वतंत्रता, अधिकारों की रक्षा करता है वही धर्म है। और अगर आप धर्म के नाम पर किसी की निजता, स्वायत्तता, सम्मान, स्वाभिमान छीन लें तो वह धर्म नहीं है।
तो जो लोग कहते हैं कि राजनीति को धर्म से अलग रखो, मेरा उनसे कहना है कि, क्यों? राजनीति तो मात्र एक विषय है धर्म का। राजनीति मुख्य विषय नहीं है, मुख्य विषय तो सुख और सम्मान है। पर दुर्भाग्य से राजनीति इस समय मुख्य विषय बन गई है, जबकि राजनीति धर्म का मुख्य विषय कभी नहीं रही। राजनीति ने एक नई चीज दी है—वर्चस्व की प्रवृत्ति। वर्चस्व, प्रभुत्व, नेतृत्व की प्रवृत्ति। यह राजनीति नहीं है। पर अगर धर्म आपके पास आएगा तोे स्वाभाविक वर्चस्व आएगा। धर्म को राजनीति से अलग नहीं किया जा सकता।
सनातन धर्म में कहा गया है-'एकं सत् विप्रा: बहुदा वदन्ति'। सत्य एक ही है, ज्ञानी उसे अनेक रूपों में बखानते हैं। ऐसे में अगर कोई सम्प्रदाय दूसरे पर हावी होने की कोशिश करे तो उसे क्या कहा जाए?
जो लोग मूल धारा से पृथक हैं, वे ऐसी संकीर्णता में रहते हैं। सम्प्रदाय तो श्रेष्ठता अथवा पूज्यता का नाम है। तो उपरोक्त बातें पंथ में से, मजहब में से निकलकर आई हैं।
सनातनता का अर्थ है कि मैं अपने आनंद के साथ रहूं। यह भिन्न-भिन्न उपासना, मत-पंथ, पद्धतियों का, भिन्न-भिन्न भाषाओं का देश है। कितना औदार्य है सनातन धर्म में कि आप किसी भी तरीके से उसे मान सकते हैं। वह निर्गुण भी है, सगुण भी है, निर्विचार है, सविचार है, निर्वितर्क है, सवितर्क है, सबीज है, निर्बीज है, असंप्रज्ञात है, संप्रज्ञात है। धर्म आपको अभिव्यक्ति का स्वातंत्र्य देता है न कि संकीर्णता। एक छोटी सी बात और कि मनुष्य जन्म से ही कर्म और चिंतन में स्वतंत्र है। मनुष्य को ईश्वर से उपहार में कर्म की स्वतंत्रता मिली, चिंतन की स्वायत्तता मिली, अभिव्यक्ति की भी स्वतंत्रता मिली। आज जो तथाकथित पंथ हैं वे कहते हैं 'आप ऐसा ही सोचेंगे, ऐसा ही बोलेंगे। ऐसा नहीं करोगे तो अधर्म हो जाएगा।' जबकि धर्म तो व्यापकता का नाम है।
…और कन्वर्जन?
इस धरती पर सारे फसाद की जड़ कन्वर्जन है। यह शब्द बड़ी व्याकुलता पैदा करता है मेरे अंदर। कन्वर्जन ही हिंसा का कारण है। आप इतिहास देखिए। आप देखेंगे कि आतंक के मूल में उपनिवेशवाद है। दूसरे की धरा, अग्नि, जल, वायु पर आधिपत्य करने की भावना, तात्कालिक प्रलोभन देकर मनुष्य को उसकी सत्ता और मूल से विस्मृत कराना, इससे हिंसा यानी आतंक उपजा।
संभवत: इसीलिए हमारे मनीषियों ने कहा कि हिन्दुत्व का विचार ही आज दुनिया में शांति ला सकता है?
हिन्दुत्व माने मानव धर्म। जीव मात्र का धर्म। हिन्दुत्व या सनातन धर्म की बात करते हैं तो हमारा औदार्य सामने आता है-'वसुधैव कुटुम्बकम्' का। 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' का। सबको अपने जैसा देखो, चूंकि आप कुटुम्ब में हैं। पूरा विश्व ही एक कुटुम्ब माना गया है-अग्नि, अंबर, जल, वायु, निहारिकाएं, नक्षत्र, जलचर, थलचर, नभचर, अण्डज, पिण्डज, स्वेदज, उद्बिज….जो दिखाई दे रहा है एक परिवार है। तो जो दृश्यमान है, भासित है, कल्पित है, आरोपित है, विद्यमान है…वह सब ईश्वर है, और मनुष्य उसका हिस्सा है। तो मनुष्य सिर्फ दूसरे का हित करे, अहित पाप है। अगर कोई किसी का हठात् धर्म छीन रहा है तो उसे पीड़ा ही तो पहंुचा रहा है। आपके माध्यम से मैं एक बात कहूंगा कि इस धरती पर एक वातावरण बने कि बुद्धिजीवी, विचारक, मनीषी और पश्चिम के वे सभी तथाकथित लोग जो खुद को बड़ा उदार बता रहे हैं, अगर वे (पश्चिमी देश) इस धरती को आनंद देना चाहते हैं तो उनसे मेरी एक विनय है कि कन्वर्जन बंद करें। जो जैसा है उसे वैसा ही रहने दें। फिर धरती पर कोई उपद्रव नहीं होगा।
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