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पाञ्चजन्य ने सन् 1968 में क्रांतिकारियों पर केंद्रित चार विशेषांकों की शंृखला प्रकाशित की थी। दिवंगत श्री वचनेश त्रिपाठी के संपादन में निकले इन अंकों में देशभर के क्रांतिकारियों की शौर्य गाथाएं थीं। पाञ्चजन्य पाठकों के लिए इन क्रांतिकारियों की शौर्य गाथाओं को नियमित रूप से प्रकाशित कर रहा है। प्रस्तुत है 22 जनवरी ,1968 के अंक में प्रकाशित शहीद चंद्रशेखर आजाद के साथी रहे लक्ष्मीकांत शुक्ल के आलेख :-
सन् 1930 की बात है। जाड़े के दिन थे। मुझे क्रांतिकारी अभियोग में झांसी के कमिश्नर पर बम फेंकने के अपराध में आजन्म कारावास की सजा देकर झांसी जिला जेल से रातों-रात पुलिस की कड़ी निगरानी में नैनी सेंट्रल जेल ले जाया गया था। नैनी सेंट्रल जेल के प्रमुख द्वार में प्रवेश पाते ही अच्छा स्वागत हुआ। ताड़ना-सूचक शब्द दोहराये जाने लगे-
यह नैनी जेल है, नैनी।
बड़े-बड़े बदमाशों को यहां भंगी बना दिया जाता है।
बित्ता भर के तो हैं— सरऊ, डामिली (आजन्म कारावास) लइके आए हैं।
— बड़े जमादार से पूछि लेब सबेरे इनहिन का गुरधनियां दय दीन जाय।
'गुरधनियां' का अर्थ
एक बार तो कैदी लंबरदारों, पहरेदारों की बातें सुनकर धरती पांव के नीचे से खिसकती जान पड़ी। दिल कांप उठा। हड्डी पसली सिहर उठी। झांसी-जेल में ही बड़ी जेलों के गुरधनियां के हिसाब-किताब की बात सुन चुका था।
उन दिनों बड़ी जेलों में जब भी कोई कैदी सजा पाकर जाता था, तो उस पर अपना रोब गालिब करने की खातिर जेल अधिकारी अकारण ही उसकी एक खास तरीके से मरम्मत करा दिया करते थे। जेल की भाषा में उसे 'गुरधनियां' कहा जाता था। विशेषकर दुबाड़ा (कई बार के साजायाफ्ता) बंदियों पर इस प्रकार का प्रकोप कुछ ज्यादा ही होता था। जेल अधिकारियों के संकेत पर यह कार्य बंदी पहरेदारों (कनविक्ट वार्डर) के द्वारा सम्पन्न होता था। इसके एवज में इन बंदी पहरेदारों को जेल अधिकारियों से यदा-कदा बीड़ी-तंबाकू की कृपा हो जाती थी।
इस ताड़ना की अपनी प्रक्रिया होती थी। कैदी की कस के पिटाई भी हो जाए और चोट का कहीं पता न चले। एकांत स्थान में ले जाकर चार आदमी बंदी को घास-फूस के ढेर पर गिरा देते थे। दो पकड़े रहते थे और दो उसके पांव के तलुओं पर डंडों से प्रहार करते थे। तलुओं पर चोट से जब मार खाने वाला दर्द से तड़पने लगता था तो मारने वाले पहरेदार उसे अर्धमूर्छित हालत में उठाकर पास ही के पानी के हौज में डाल देते थे। यदि किसी बंदी ने इस पिटाई के प्रति रोष दिखाना चाहा तो उसे इस गुरधनियां का देर तक
मजा चखना पड़ता था, अन्यथा बीच में ही अपने को समर्पण कर देने वाले को बड़े जमादार आकर दयाभाव दिखाते हुए छुड़ा दिया करते थे।
बेडि़यों की झनकार
जेल के फाटक पर मेरी आमद दर्ज हो जाने के बाद मुझे दो बंदी पहरेदारों के हवाले करते हुए यह आदेश दिया गया कि लोहार खाते में ले जाकर मेरी बेड़ी का डंडा कटा दिया जाए और तिरमोहानी पर बड़े जमादार के सामने पेश किया जाए।
लोहार खाते में मेरी बेडि़यों के बीच का डंडा, जो झांसी से नैनी जेल लाते समय बेडि़यों में डाला गया था, निकलने के बाद बेडि़यों की झनकार के साथ चलने में कुछ आराम मिला। मैं कई महीनां से बेडि़यों में था। उन्हें व्यावहारिक रूप से समझने में काफी समय लगा था। कई बार तो पैरों की पिंडलियों में जख्म हुए और और अच्छे भी हो गए। बेडि़यों का खुरखुरापन भी अब घिसकर चिकना हो चुका था और वह मेरे शरीर के एक अंग के समान मेरे साथ रहने लगी थीं। यथार्थ में कभी-कभी तो उनकी ताल पर खुलकर चलने में बड़ा लुत्फ आता था। परंतु जब भी उस अदा के साथ चलने का सौभाग्य प्राप्त होता, जेल का कोई न कोई अधिकारी खामख्वाह मुझ पर कुढ़ जाता था। सवाल- जवाब होते, मान-अपमान का प्रश्न उठता और फलस्वरूप मुझे ही कुछ यातनाएं भोगनी पड़तीं। जेल वालों का ख्याल था कि केवल उन्हें छेड़ने की गरज से मैं बेडि़यां झनकार कर चलता हूं और मुझे जेल की यातनाओं का जरा भी भय नहीं है, इत्यादि। उस समय सभी राजनैतिक कैदियों के जोश की बात कुछ ऐसी ही थी। यातनाओं को चुनौती देकर आगे बढ़ने में देशभक्तों के जीवन को सदैव एक नया उत्साह सा मिलता रहा, जैसा कि आज के नौजवान को एक घटिया किस्म का सिनेमा देख आने के बाद मिलता है।
'अब हीं सब ठीक ह्वे जाई'
नैनी जेल में बेड़ी का डंडा कटवाने के बाद चलने में कुछ स्वाभाविक आनंद नहीं आया, बल्कि प्रयत्न करने पर पांव की गांठें पीड़ा से सिहर उठती थीं। बेड़ी-डंडे के दो दिन के साथ ने पांव के जख्म फिर से हरे कर दिए थे। मैंने बंदी पहरेदारों को जख्म के उपचार की व्यवस्था करने के लिए कहा, जिसका उत्तर बड़े रूखे स्वर में सदैव यही मिलता रहा— 'हां-हां, बड़े जमादार के सामने चलौ—अबहीं सब ठीक ह्वे जाई।'
नैनी जेल एक मील के अधिक घेरे में बसा होगा। उसके अंदर छोटी-छोटी कई जेलों की व्यवस्था थी, जिन्हें सर्किल नंबर 1-2-3-4-5 आदि के नाम से विभाजित किया गया था। हर सर्किल की देखभाल एक जेलर के अधीन होती थी। उन सबके ऊपर एक बड़ा जेलर होता था और उन सब का सर्वेसर्वा सुपरिंटेंडेंट कहलाता था। उस जमाने से जेल सुपरिंटेंडेंट तथा बड़ा जेलर अधिकतर अंग्रेज ही होते थे। जेलरों के साथ एक बड़ी फौज वार्डरों तथा बंदी पहरेदारों की होती थी, जिनका मुखिया बड़ा जमादार कहलाता था। उसका दबदबा भी जेल के भीतर बड़े जेलर से किसी प्रकार कम नहीं होता था, बल्कि कोई-कोई जेलर उससे दबकर चलते थे। उसके अधीन सभी प्रकार के कातिल-डकैत-बदमाश आदि रहते थे और उनके बीच विचरने में जेल अधिकारियों को सदैव अपनी रक्षा की चिंता करनी पड़ती थी। ऐसी हालत में जल में रहकर मगर से वैर कौन करना चाहेगा?
'खतरनाक दुबाड़ा' कैदी
नैनी जेल के बीचों-बीच चौराहे पर एक गुमटी सी बनी थी जिसे तिरमोहानी कहा जाता था। बड़े जमादार साहब का दरबार इसी तिरमोहानी की गुमटी पर लगता था। मुझे ले जाकर बड़े जमादार के सामने पेश किया गया। सामने गुमटी के बीचों-बीच एक साधारण सी कुर्सी पर अपने दुबले-पतले सूक्ष्म शरीर के साथ बैठे हुए छोटी-छोटी आंखों के बीच से जमादार साहब ने मुझे घूर कर एकबार ऊपर से नीचे तक पढ़ा और बोले— 'अच्छा तो आज यही दुबाड़ा लौंडा आया है।'
जेल में कई बार के सजायफ्ता कैदी को 'दुबाड़ा' कहते हैं। उसे जेल में पहनने के कपड़े अन्य बंदियों से भिन्न प्रकार के दिए जाते थे। काले रंग की दुपप्ली टोपी तथा ओढ़ने-पहनने के कपड़ों पर काली रेखाएं रहती थीं। ऐसे बंदी जेल में विशेष रूप से खतरनाक समझे जाते थे। यद्यपि मैंने उससे पहले कभी जेल के दर्शन नहीं किए थे। फिर भी, अंग्रेजी हुकूमत की अदालत ने पुलिस की मनमानी रिपोर्ट के आधार पर मुझे एक खतरनाक दुबाड़ा घोषित कर दिया था, जिससे मुझे जेल में सुविधा और असुविधा दोनों ही मिलती थी। सुविधा तो इसलिए कि साधारण बंदी दुबाड़ा से डरता था और जेल में उसकी सेवा में लगा रहता था। असुविधा यह थी कि जेल वाले उसे खतरनाक समझकर सदैव सताते रहते थे।
अभी से यह हाल है
उस समय मेरी आयु भी 17 वर्ष के लगभग थी। मूछों की रखाएं नहीं निकली थीं, फिर भी प्रयत्न करता रहता था कि निकल आए और मैं भरपूर जवान दिखाई देने लगूं। बड़े जमादार के मुंह से दुबाड़ा लौंडे का संबोधन किसी हद तक सही होते हुए भी मुझे अच्छा न लगा। मैंने चाहा कि आगे बढ़कर पास ही पड़े हुए स्टूल पर बैठ जाऊं और फिर आराम से इसका उत्तर दूं। इससे पहले कि मैं स्टूल तक पहुंचूं, आस-पास के बंदी पहरेदारों ने मुझे दोनों ओर से पकड़ लिया और पीछे की ओर खींचते हुए डपट कर बोले— यहीं सीधे खड़े रहो।
जब तक मैं परिस्थिति को जानूं और समझूं, एकाएक फिर बड़े जमादार की गरज सुनाई पड़ी— क्या नाम है तुम्हारा?
मैंने अपना पूरा नाम बताया तो जमादार साहब अपने सामने के कागजों को गौर से उलटते हुए एक हुंकार के साथ फिर बोले—हूं, पहले और कय बार सजा काटी है?
यह मेरा पहला ही मौका है।
वाह बेटा! दाइयों से पेट छिपाया जा रहा है। अभी से यह हाल है।
मैं ठीक कह रहा हूं, यह मेरा पहला ही मौका है।
ठीक तो अभी कबूलोगे। अंग्रेज सरकार अंधी है ना। बाबूसिंह, जरा इस लौंडे को गुरधनियां खिला लाओ तो। और उसे अच्छी तरह से यह भी समझा देना कि यहां तिरमोहानी पर बड़े जमादार के पेशाब का चिराग जलता है।
बाबूसिंह, कैदी पहरेदार तीन अन्य नंबरदारों के साथ मुझे लेकर चलने लगे, तो पास ही पड़े-मूंजे की चटाई से लिपटे हुए कुछ पुराने कंबलयुक्त बिस्तरे की ओर संकेत करते हुए मुझे हुक्म दिया— यह अपना फट्टा और कंबल उठा लो। (अगले अंक में जारी)
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