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आज से ढाई बरस पहले जनाकांक्षाओं से जुड़ी राजनीति ने एक करवट ली थी। इसके कारणों की पड़ताल करने की बजाए तब इसे तात्कालिक करिश्मे के तौर पर ज्यादा परिभाषित किया गया लेकिन इन तीस माह के दौरान क्या ज्यादा जवाबदेह होने की राजनीति आकार ले रही है?
सवाल दिलचस्प है और सिर्फ केंद्र की सत्ता में हुए बदलाव तक सीमित नहीं रह सकता। खासकर उस वक्त जब राजनीतिक साख की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण, उत्तर प्रदेश जैसे बड़े सूबे में विधानसभा चुनाव की दुंदुभियां फूंकी जा रही हों। ललितपुर से लखीमपुर और सोनभद्र से सहारनपुर तक सत्ता की परख हो रही है। सरोकारों की राजनीति जनाकांक्षाओं की खराद पर नया आकार लेती दिखती है।
प्रदेश में सिर चढ़कर बोलते अपराध, गन्ना किसानों की बेबसी और सिसकियों में दबी बलात्कार की कहानियों से इतर नई बात यह है कि बारी-बारी से सत्ता सुख लेते रहे नेताओं की ताजा भंगिमाएं काम और दावों के पलड़े पर विरोधाभासी बैठती हैं। ऐसे में विकल्प क्या है? जनता जनार्दन के मन में घुमड़ते इस प्रश्न में ही बदलाव की कौंध छिपी है। क्या उत्तर प्रदेश की सत्ता बदलेगी? क्या राज्य में जिम्मेदार, जवाबदेह शासन का सूत्रपात होगा?
बिना भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद शासन होता कैसा है? आज लखनऊ में इसका उत्तर चाहना या तो उन पत्थरों पर सिर पटकने जैसा है जिन्हें बहन जी ने इंसानों से ज्यादा महत्व दिया या फिर उस मुस्टंडे के सामने गुस्ताखी जो नेताजी का सिरचढ़ा है और जिसके लिए हर सवाल का जवाब है उसका लट्ठ।
टिकट वितरण में अल्पसंख्यक मतों को साधने का शीर्षासन करते हुए 'बहुजन मंत्र' का जाप करने का कमाल देखना हो तो यूपी आइए। हाथ छोड़कर (और, परिवारों की परस्पर राजनीतिक असहजता भी) साइकिल चलाने का कमाल देखना हो तो यूपी आइए। और तो और साम्य और समता देखने वाला समाजवाद भीतर से कैसा है, यह जानना हो तब भी आपको यूपी ही आना पड़ेगा। तुष्टीकरण का सुरमा लगाने के बाद समाजवाद की आंखें मिचमिचाने लगती हैं। लोहिया का सपना, अयोध्या में रामायण महोत्सव बंद हो जाता है। जो सैफई में ठुमके लगाता पकड़ा गया, अगर वही समाजवाद है तो इसकी खबर जनता क्यों न ले? प्रतिमाओं के लिए पत्थर हो जाने वालों की खबर भी तो आखिर इसी जनता ने ली थी?
जिस तरह निदान को रोग नहीं बताया जा सकता उसी तरह विनाश को भी विकास नहीं बताया जा सकता। ठीक। घपलेबाजी के आरोपों से घिरने के बाद निरस्त भर्तियां। लाखों निराश युवा। ठप कारखानों के हजारों उदास मजदूर।
बारी-बारी से राज करने वालों की बातों पर जनता के सिर हताशा में हिल रहे हैं या हामी में मीडिया के लिए यह शोध का विषय होना चाहिए।
किसी एक राज्य में किसी एक पार्टी के 58 माह के शासन में 1035 दंगे! कोई कल्पना कर सकता है? मरने वाले हिन्दू थे कि मुसलमान, यह जिक्र छेड़ना बेमानी है। सुलगता सवाल यह है कि जब हजारों चूल्हे बुझे थे तब लखनऊ में किसकी देग चढ़ी थी?
सत्ता से सवालों के सैलाब हर ओर हैं। हर जिले, हर तहसील में। जनता के दु:खों, उसके भय को नकारकर इठलाने वाली सत्ता अब चलती नहीं। जिस दौर में जनता राजनीति से अधिक पारदर्शी और जवाबदेह होने की उम्मीद करे, वहां पत्थर दिलों की मनमानी और लठैतों की घेरेबंदी काम नहीं करती। तकनीक के दौर में सहज रिस जाने, सर्वत्र फैल जाने और अंतत: जनता द्वारा परीक्षण कर सत्यापित कर स्वीकार लिए जाने वाले संवाद लोकतंत्र को ही सींच रहे हैं। जब तथ्य हों, तुलनाएं हों, तकनीक हो, और चुनने के लिए विकल्प भी हों तो लोकतंत्र में जनता की बेचैनी बनी नहीं रह सकती। लंबी कुनमुनाहट कभी एक बड़े निर्णय के रूप में फूटती है। विकलता बह निकलती है। विकलता की इस लहर ने कहां क्या-क्या बदला, यह कहने की जरूरत नहीं, देखना यह है कि और क्या-क्या बदलने जा रहा है।
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