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यह बेहद चुभने वाली बात है कि कुछ लोगों और चंद संस्थाओं की करतूतों के चलते गैर सरकारी संस्था क्षेत्र (एनजीओ) की साख छीज रही है। चौंकिए मत, झब्बा दाढ़ी, शीट का चश्मा और गाढ़े का कुर्ता या फिर बड़ी-सी बिंदी, बस्तर ज्यूलरी, और आदिवासी प्रिंट का खासा कीमती झोला… इस सब से अब समाज सेवा नहीं झलकती। ऐसे लोगों को समाज संशय भरी नजरों से देखने लगा है। ज्ञात-अज्ञात स्रोतों से मिलते चंदे पर पलती इस सादगी की चमक पर चर्चाएं होती हैं जो पूरी तरह तथ्यहीन भी नहीं होतीं। इस सादगी के पीछे भरपूर पैसा है। जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर सिविल सोसाइटी स्टडीज का आकलन है कि आज यदि सभी एनजीओ को जोड़कर किसी देश के रूप में देखा जाए तो इनकी अर्थव्यवस्था विश्व में पांचवें नंबर पर बैठेगी।
यह तथ्य भी कम आश्चर्यजनक नहीं है कि भारत में लगभग हर 400 लोगों पर औसतन एक एनजीओ है (स्रोत: ्रल्लाङ्मूँंल्लॅी) दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में इतने तो शायद चुनाव बूथ भी नहीं बनते? करीब 33 लाख गैर सरकारी संस्थाएं! पूरी राजनीति को, पूरे बॉलीवुड को खंगालें तो इतने नेता-अभिनेता न मिलें जितने बैनर इस एक क्षेत्र में टंगे हैं।
तथ्यों का अतिसामान्यीकरण न भी करें तो भी एक छान-फटक तो बनती ही है? सभी एनजीओ गलत नहीं करते। लेकिन सभी सही भी नहीं करते। बहुत से हैं जो कुछ करते ही नहीं। बहुत से करना बहुत कुछ चाहते हैं परंतु इस भीड़ से न वे होड़ ले पाते हैं, न आगे बढ़ते हैं, न ही उनकी परख हो पाती है। इसमें दोराय नहीं कि इस आपाधापी से उन संस्थाओं का कामकाज भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित होता है जो बेहद प्रामाणिकता और गहरी संवेदनशीलता के साथ काम में जुटी हैं। अविश्वास और संदेह का यह माहौल उनके लिए सरकारी व निजी क्षेत्र से मिलने वाले अनुदान और सहयोग को घटा देता है। शासकीय वर्ग और अन्य सहयोगकर्ता रियायतों से हाथ खींचने लगते हैं।
विडंबना ही है कि सरकारी नियंत्रण से परे जिस क्षेत्र को सबसे ज्यादा अनुशासित, आत्मनियंत्रित दिखना था, आज वहीं सबसे ज्यादा हड़बोंग और भ्रष्टाचार की स्थिति दिखती है।
इतने बड़े क्षेत्र में इतनी ज्यादा बढ़ चुकी समस्याएं एकाएक नहीं हैं। अरसे से चली आ रही ढिठाई की अनदेखी और गड़बडि़यों को मिलती रही अनकही शासकीय ढाल पर सवाल कभी तो उठेंगे! निश्चित ही इसके लिए किसी सरकार को दोषी ठहराना ठीक नहीं। इसकी जिम्मेदार कालीनों पर चलने की आदी हो चुकी वह लंबी राजनीति है जिसे जमीन पर पांव रखने की बजाय एनजीओ की बैसाखी के सहारे चलना ज्यादा रास आया है।
इसके जिम्मेदार एनजीओ के वे रीढ़विहीन कर्ताधर्ता हैं जो पेज-3 की पार्टियों और टीवी बहसों में भले जितने दमकते दिखें, लेकिन जिनकी हैसियत दूसरों के एजेंडा को पूरा करने वाले 'मोहरों' से ज्यादा नहीं है।
दीमक! जिन्होंने सत्ता और सेवा क्षेत्र में धीरे-धीरे ऐसी बांबियां बना लीं कि दोनों की मजबूती और पहचान को विकृत कर डाला।
सेवा के नाम पर 'साजिश' और व्यवस्था को धता बताने की जिद चाहे 'कुछ' की रही हो परंतु यह रवैया आज स्थिति को उस बिंदु पर ले आया है जहां न्यायपालिका को एनजीओ क्षेत्र की वित्तीय घपलेबाजियों पर संकेत करती कड़ी टिप्पणी करनी पड़ी और सरकार को गड़बड़ संस्थाओं को काली सूची में डालकर आपराधिक मामला दर्ज करने के लिए कहा गया।
ज्यादा गंभीर बात यह भी है कि सिर्फ वित्तीय अनियमितताएं नहीं बल्कि कुछ एनजीओ के क्रियाकलापों में समाज विभाजक, राष्ट्र विद्वेष का रंग भी घुला है। सोचिए, बस्तर के किसी गांव में आदिवासियों को क्या पड़ी है कि अपनी सीधी-सादी जीवनचर्या छोड़ किसी 'दयालु समाजसेवी' के घर प्रदर्शन करने आ जुटें? या फिर ऐसा क्या समाजसेवी जो अपने सहयोगी रहे लोगों के सवालों से ही बेपर्दा हो जाए?
यह दुख और चिंता की बात है कि समाज और मानवता हित के पावन लक्ष्यों की बात करते अभियान सरकार से टकराव और समाज में विभाजक रेखाएं खींचने की सीमा तक बढ़ आए और 'कुछ मछलियों' द्वारा फैलाई जा रही गंदगी ने पूरे तालाब में ही दुर्गंध पैदा कर दी।
न्यायालय की टिप्पणी भले अब आई हो लेकिन यह देर से बजे उस अलार्म की तरह है जो अचानक बेतहाशा धड़कनें बढ़ाने के बावजूद यह घोषणा करता है कि काम अब टाला नहीं जा सकता। 27 फरवरी को दुनिया विश्व एनजीओ दिवस मनाएगी। क्या उससे पहले हम भारत में एनजीओ क्षेत्र में बजबजाती गंदगी साफ करने का संकल्प ले सकते हैं? विश्व एनजीओ दिवस पर पाञ्चजन्य में हम कुछ प्रेरक, दृढ़जीवी, कमाल के एनजीओ की संकल्प कथाएं प्रकाशित करेंगे क्योंकि चंद बुरी खबरों के बीच सैकड़ों अच्छी पहलों की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
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