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विधानसभा चुनाव में जहां राज्य के मुद्दे हावी रहते हैं, वहीं पार्टी की साख और जनता के बीच उसके कामों का आकलन भी होता है। उत्तर प्रदेश, पंजाब, गोवा, उत्तराखंड और मणिपुर की जनता सभी दावेदारों को परख रही है और उसकी कसौटी जाति, मजहब और कुनबे की राजनीति नहीं, बल्कि विकास की राह है चुनाव पूर्व हुए विभिन्न सर्वेक्षण ऐसा ही
अवधेश कुमार
5 राज्यों के विधानसभा चुनावों की तिथियां घोषित किए जाने के साथ ही, उत्तर प्रदेश का कुनबा-कांड पूर्व-नियोजित सा थम ही नहीं गया बल्कि पिता-पुत्र के बयानों में अचानक एक-दूसरे के लिए मिठास आती दिख रही है। भाजपा सहित अन्य दलों ने अपने उम्मीदवारों की क्रमश: सूचियां जारी की हैं। मुकाबला शक्ल लेने लगा है। पर्चे भरे जा रहे हैं। इस मौके पर कई चुनाव-पूर्व सर्वेक्षण भी आए हैं। इन सर्वेक्षणों का मूल स्वर क्या है? ज्यादातर सर्वेक्षणों मंे भाजपा को बढ़त मिलती दिखाई गई है। ये सर्वेक्षण उन लोगों की उम्मीदों पर तुषारापात जैसे हैं जो मान रहे थे कि नोटबंदी के बाद भाजपा के खिलाफ जनता में गुस्सा है और वह इसके खिलाफ मतदान करेगी। यहां तक कि पंजाब में भी 10 वर्ष तक अकाली दल-भाजपा की सरकार होने के बावजूद कुछ सर्वेक्षण यदि उनके इस बार सत्ता से बाहर होने की बात कर रहे हैं तो कुछ मं उनकी सत्ता में वापसी की भविष्यवाणी की गई है। यानी पंजाब में सर्वेक्षण बंटा हुआ है।
सर्वेक्षणों मंे भाजपा को बढ़त मिलती दिखाई गई है। ये सर्वेक्षण उन लोगों की उम्मीदों पर तुषारापात जैसे हैं जो मान रहे थे कि नोटबंदी के बाद भाजपा के खिलाफ जनता में गुस्सा है, वह इसके खिलाफ मतदान करेगी। पंजाब में सर्वेक्षण बंटा हुआ है। उत्तर प्रदेश में सर्वेक्षणों ने भाजपा को सबसे आगे बताया है।
सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में सभी सर्वेक्षणों ने भाजपा को सबसे आगे बताया है। यही बात उत्तराखंड के संदर्भ में भी है। चुनाव पूर्व सर्वेक्षण परिणाम नहीं हैं, लेकिन उन्हें वैज्ञानिक तरीके से करके ईमानदारी से उसकी गणना को सामने लाया जाए तो उससे जन प्रवृत्तियों का आभास मिलता ही है। हम इन सर्वेक्षणांे के साथ पिछले विधानसभा एवं लोकसभा चुनावों के अंकगणित तथा वर्तमान स्थितियों के आलोक में एक स्पष्ट पूर्वावलोकन कर सकते हैं।
भाजपा ने उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा एवं मणिपुर में किसी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं बनाया है। यह उसकी रणनीति है। इसका मतलब यह हुआ कि भाजपा अपने चेहरे से ज्यादा दूसरी पार्टियों के चेहरे तथा अपनी केन्द्र सरकार एवं राज्य सरकारों के कार्य के रिकॉर्ड तथा सत्तारूढ़ पार्टियों सहित अन्य पार्टियों के ट्रैक रिकॉर्ड को मुख्य मुद्दा बना रही है। उसके लिए यह रणनीति काफी अनुकूल है।
किसके पाले उत्तर प्रदेश?
इन पांचों राज्यों में सबसे ज्यादा महत्व उत्तर प्रदेश का है जहां से देश में सबसे ज्यादा 403 विधायक एवं 80 सांसद आते हैं। भाजपा के लिए यह राज्य इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि उसने लोकसभा चुनाव में अकेले 71 तथा अपना दल के साथ 73 सीटें जीतीं थीं। विश्लेषक सामान्यत: जातीय समीकरणांे को बहुत ज्यादा महत्व देते हैं। 2014 में नरेन्द्र मोदी नाम से जो आलोड़न पैदा हुआ, उसने सारी जातीय दीवारों को ध्वस्त कर दिया। हालांकि इस बार मतदाताओं को नरेन्द्र मोदी को मुख्यमंत्री नहीं बनाना है, लेकिन वे पार्टी की गारंटी हैं। वे कहते हैं,''हमें वोट दीजिए, हम ऐसी सरकार देंगे जो अपराध खत्म करेगी, अपराधियों को खत्म करेगी, प्रदेश को भ्रष्टाचार से मुक्त करेगी तथा विकास की धारा में प्रदेश को ले जाएगी।'' वे केन्द्र सरकार के ढाई साल से ज्यादा के तथा भाजपा शासित राज्यों के कार्यों का उदाहरण देते हैं। यह बात लोगों को कितनी लुभा रही है, इसका पता तो चुनाव परिणाम के साथ ही चलेगा। किंतु एक बात साफ है कि भाजपा 2007 और 2012 में जिस दुर्दशा का शिकार हुई थी, उससे पूरी तरह से बाहर निकल चुकी है।
2012 के विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में ज्यादातर स्थानों पर सपा और बसपा के बीच दो दलीय मुकाबला ही था। भाजपा लड़ाई में थी ही नहीं। भाजपा को उसके उभार के बाद से सबसे कम केवल 15 प्रतिशत मत तथा 47 स्थान आए। वह केवल 55 क्षेत्रों में दूसरे स्थान पर थी। यानी भाजपा कुल मिलाकर केवल 102 स्थानों पर ही लड़ाई में थी। कांग्रेस तो लंबे समय से उत्तर प्रदेश में केवल नाम की पार्टी रह गई है। कांग्रेस ने 11.63 प्रतिशत मत पाकर 28 सीटें जीतीं तथा केवल 31 में दूसरे स्थान पर थी। यानी कांग्रेस केवल 59 स्थानों पर ही लड़ाई में थी। द्विपक्षीय टक्कर में 29.15 प्रतिशत मत पाकर सपा ने बाजी मार जी। उसे 224 स्थान मिले। बसपा को 25.91 प्रतिशत मत एवं 80 सीटंे मिलीं। भाजपा के धुर विरोधी भी यह स्वीकार करेंगे कि इस बार स्थिति बदली हुई है। कांग्रेस ने पूरा दमखम लगाकर देख लिया कि उसकी दाल ज्यादा गलने वाली नहीं है। प्रशांत किशोर एंड कंपनी के नुस्खे भी कांग्रेस को ऊर्जा नहीं दे पाए। राहुल की 3,000 कि. मी. की यात्रा तथा खाट सभाएं कांग्रेस के लिए रामबाण नहीं बन सकीं। इसलिए अंतत: उसे अपनी रणनीति बदलकर अखिलेश यादव की सपा के साथ समझौता करना पड़ रहा है। उसने अपने को सिमटा लिया है।
2014 का लोकसभा चुनाव उत्तर प्रदेश के चुनावी इतिहास में एक मोड़ साबित हुआ जिसमें प्रदेश के दोनों मुख्य खिलाडि़यों सपा और बसपा को मंुह की खानी पड़ी। भाजपा ने 42.30 प्रतिशत मत तथा 71 सीटें पाईं। समाजवादी पार्टी को 22.20 प्रतिशत मत आए एवं केवल 5 सीटें मिलीं। बहुजन समाज पार्टी को मत तो 19.60 प्रतिशत आए पर वह एक भी सीट जीतने में सफल नहीं हुई। सपा एवं बसपा को यह परिणाम सकते में डालने वाला था। इन्होंने दु:स्वप्नों में भी ऐसी बुरी पराजय की कल्पना नहीं की थी। कांग्रेस की तो पूछिए ही नहीं, वह 7.50 प्रतिशत मत पाकर दो सीटें जीतने में कामयाब रही। ये दोनों सीटें भी सोनिया गांधी एवं राहुल गांधी की ही थीं। लोकसभा चुनाव
के अनुसार भाजपा को 328 सीटों पर बढ़त थी तथा उसके साथी अपना दल की 9 पर। समाजवादी पार्टी-42,कांग्रेस-15 एवं बसपा केवल 9 स्थानों पर ही आगे थीं। कह सकते हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव तथा 2017 के होने वाले विधानसभा चुनाव की प्रकृति, परिवेश में अंतर है, लेकिन इतना तो मानेंगे कि भाजपा मुख्य लड़ाई मंें है और प्रभावी है। चुनाव शास्त्र के अनुसार विश्लेषण करें तो इस बार 27-28 प्रतिशत मत पाने वाला सरकार बना सकता है। इसके आधार पर भाजपा की पराजय तभी होगी जब लोकसभा चुनाव में उसके प्राप्त मतों में से कोई एक पार्टी 15 प्रतिशत मत काट ले। यह सामान्य बात नहीं है। ऐसा प्राय: कम ही होता है। बिहार में 4 प्रतिशत मत काटने से चुनाव परिणाम बदला था। उत्तर प्रदेश में 15 प्रतिशत मत काटने होंगें।
उत्तर प्रदेश का राजनीतिक-सामाजिक समीकरण वही नहीं है जो 2012 में था। सपा का विभाजन हो चुका है। इससे उसका मूल यादव-मुस्लिम (भाई) समीकरण दरका है। मुलायम सिंह ने कह दिया है कि अखिलेश यादव ने मुसलमानों के लिए कुछ नहीं किया। सपा को आपकी लड़ाई का खामियाजा भी भुगतना पड़ेगा। ऐसा 1992 में सपा के जन्म के बाद पहली बार हुआ है। पिता-पुत्र के संघर्ष में चुनाव आयोग ने भले पुत्र को 'साइकिल' पर बैठा दिया, लेकिन ऐसा ही उत्तर प्रदेश की जनता करेगी, यह मानना कठिन है। अखिलेश के कार्यकाल में दंगे, अपराध और आरंभिक ढाई-तीन साल तक अविकास और अकाम की स्थिति को जनता ने देखा है। मुलायम सिंह उनकी खुलेआम आलोचना कर चुके हैं। शिवपाल खार खाए बैठे हैं।
बसपा की हालत क्या है? मायावती ने 2007 और 2012 के दलित-ब्राह्मण के समीकरण के उलट आरंभ में इस बार दलितों और मुसलमानों का गठबंधन बनाने की कोशिश की। एक दिन में 21 ब्राह्मणों का टिकट काटकर वे सभी मुसलमानों को दे दिए। उन्होंने कुल 97 मुसलमानों को टिकट दिया है। वे खुलेआम मुसलमानों को कह रही हैं कि सपा आपसी संघर्ष में है, वह भाजपा को नहीं हरा सकती इसलिए आप हमें वोट दीजिए। हालांकि बाद में उनकी नीति बदली और फिर उन्होंने ब्राह्मणों की ओर झुकाव दिखाया। फिर लगा कि नहीं, जो पिछड़ी जातियां हमें वोट देती थीं, उनको भी मिलाने की कोशिश की जाए तो वे पिछड़ों का सम्मेलन करने लगीं। तो, मायावती की ढुलमुल नीतियां रही हैं। अभी ऐसा लगता है कि इन सबका लाभ भाजपा को मिलना चाहिए। सपा और बसपा, दोनों का पुराना सामाजिक समीकरण दरककर भाजपा की ओर आ सकता है। भाजपा यदि उम्मीदवारों का चयन ठीक से करे तथा चुनाव प्रचार को थोड़ा और आक्रामक कर दे तो उसके पक्ष में मतों का सुदृढ़ीकरण हो सकता है।
कांग्रेस से फिसलता उत्तराखंड
उत्तराखंड में प्रवेश करें। यहां कांग्रेस की बजाय मुद्दा हैं मुख्यमंत्री हरीश रावत। नरेन्द्र मोदी ने अपनी सरकार का समर्पण गरीबों के लिए बताया तो कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने ऋषिकेश में कुर्ते की फटी जेब दिखा कर कहा, देखो, ये होती है गरीबी। ऐसी स्टंटबाजी से लोगों को आकर्षित नहीं किया जा सकता। वैसे उत्तराखंड में कांग्रेस की सरकार जरूर है लेकिन 2012 के चुनाव में उसे बहुमत नहीं मिला था। 70 सदस्यीय विधानसभा में उसे 32 सीटें तथा भाजपा को 31 सीटें मिली थीं। मतों का अंतर देखिए। कांग्रेस को 33.79 प्रतिशत मत तथा भाजपा को 33.13 प्रतिशत मत आए थे। तो दोनों के बीच केवल .66 प्रतिशत मत का ही अंतर था। इतने कम मतों का अंतर पलट देना कठिन है क्या? वैसे भी हरीश रावत के विरुद्ध कांग्रेस में विद्रोह हुआ और वे सब भाजपा का दामन थाम चुके हैं। पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा तक भाजपा में हैं। एक ओर ऋषिकेश में राहुल गांधी का कार्यक्रम था तो दूसरी ओर कांग्रेस के दो कद्दावर नेता, यशपाल आर्य एवं उनके पुत्र संजीव आर्य तथा केदार सिंह रावत भाजपा में शामिल हो रहे थे। यशपाल आर्य कांग्रेस का प्रमुख दलित चेहरा थे। वे सब कांग्रेस को क्या क्षति नहीं पहुंचाएंगे? बिल्कुल पहुंचाएंगे और लाभ भाजपा को होगा। उत्तराखंड में बसपा भी कुछ मत पाती रही है। पिछले चुनाव में उसने 12.19 प्रतिशत मत पाकर 3 सीटें जीतीं, लेकिन उसके विधायक सत्ता के लिए कांग्रेस के समर्थन में चले गए। उत्तराखंड डेमोक्रेटिक पार्टी ने भी 1 सीट जीती। तीन निर्दलीय उम्मीदवार जीते थे। इन सबके समर्थन से कांग्रेस की सरकार बनी थी। कहने का तात्पर्य यह कि परिस्थितियों ने कांग्रेस को सत्ता में पहंुचा दिया अन्यथा….। हर बार बिल्ली के भरोसे छींका नहीं टूटता। वैसे भी 2014 के लोकसभा चुनाव के अनुसार विश्लेषण करें तो भाजपा ने प्रदेश की पांचों सीटें जीती थीं और 63 विधानसभा क्षेत्रों में उसे बढ़त मिली थी। कांग्रेस केवल 7 विधानसभा स्थानों में आगे थी। अर्थात् पासा बिल्कुल पलट गया था। भाजपा को 55.30 प्रतिशत तथा कांग्रेस को 34 प्रतिशत मत मिले थे। 21 प्रतिशत का अंतर बहुत बड़ा होता है।
चुनाव शास्त्र के अनुसार कांग्रेस यदि भाजपा के मतों में से कम से कम 11 प्रतिशत मत काटे तो ही उसकी संभावना बन सकती है। इसके लिए नेतृत्व के प्रति जैसा अप्रतिम आकर्षण चाहिए, सरकार के कामों से जनता में जितना गहरा संतोष तथा पार्टी के प्रति बहुमत की सहानुभूति चाहिए। वैसा वहां किसी तटस्थ विश्लेषक को नजर नहीं आ रहा। हरीश रावत ने मुसलमानों को नमाज के लिए डेढ़ घंटे की छुट्टी देकर इस उन्हें खुश करने की कोशिश की है। किंतु हिन्दुओं में इसकी प्रतिक्रिया भी हो रही है। हो सकता है, मुसलमानों के वोट पाने के चक्कर में रावत हिन्दुओं के कुछ मत खो दें और वही कांग्रेस के लिए पराजय का कारण बन जाए।
गोवा में बहुदलीय मुकाबला
गोवा में भी सर्वेक्षण भाजपा के पक्ष में आए हैं। कुछ विश्लेषक वहां त्रिशंकु विधानसभा की संभावना जता रहे हैं। यह बात ठीक है कि भाजपा को 2012 में केवल 21 यानी बहुमत से एक ही सीट ज्यादा आई थी लेकिन उसने केवल 28 स्थानों पर चुनाव लड़ा था। शेष 12 स्थान उसने साथी दलों को दे दिए थे। लोेकसभा चुनाव में भाजपा को दोनों सीटों के साथ 59.10 प्रतिशत मत आए जबकि कांग्रेस कोे 32.90 प्रतिशत मत प्राप्त हुए यानी 26 प्रतिशत से ज्यादा का अंतर था। भाजपा 32 सीटों में आगे थी तो कांग्रेस केवल 8 में। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मनोहर पर्रिकर एवं नितिन गडकरी को गोवा चुनाव का प्रभार सौंपा है। दोनों का अनुभव वहां काम करेगा। इस बार वहां चार समूह हो गए हैं। भाजपा, कांग्रेस के अलावा आम आदमी पार्टी है। फिर भाजपा से गठजोड़ तोड़कर महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी ने शिवसेना तथा सुभाष वेलिंगकर के गोवा सुरक्षा मंच के साथ गठबंधन किया है। जाहिर है, मतों का बंटवारा होगा, लेकिन इतना होगा कि भाजपा बिल्कुल पिछड़ जाएगी, अभी ऐसा नहीं लगता।
मणिपुर में कांटे की टक्कर
मणिपुर लंबे समय से कांग्रेस का गढ़ रहा है। लेकिन इस बार उसे भाजपा एवं एमएनएफ की ओर से कड़ी टक्कर मिल रही है। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने दोनों सीटें जीती थीं। उसे 41.70 प्रतिशत मिले थे।
भाजपा को 11.90 प्रतिशत तथा नागा पीपुल्स फ्रंट को 19.90 प्रतिशत आए थे। तो ये मत 31 प्रतिशत से ज्यादा होते हंै। पूर्वोत्तर जनतांत्रिक गठबंधन के संयोजक हेमंत बिस्वशर्मा वहां लगातार सक्रिय हैं जिसका परिणाम स्थानीय निकाय चुनावों में देखने को मिला जहां भाजपा ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया। कांग्रेस से काफी संख्या में नेता भाजपा में शामिल हुए हैं। हालांकि मुख्यमंत्री इबोबी सिंह ने नए जिलों का गठन कर वहां हिंसा की ऐसी स्थिति पैदा की है जिसमें कांग्रेस हारी हुई बाजी जीत सकती है, लेकिन ऐसा होगा ही, यह कहना कठिन है। अभी तक का संकेत यही है कि भाजपा पिछले सारे विधानसभा चुनावों से वहां अच्छा प्रदर्शन करेगी।
पंजाब: किसका चलेगा जादू?
पंजाब में अकाली दल और भाजपा ने 1967 के बाद 2012 में सत्ता में लगातार दोबारा लौटने का इतिहास रचा था। हालांकि कांग्रेस के साथ जीत का अंतर केवल 1.82 प्रतिशत था। आम आदमी पार्टी की उपस्थिति ने लड़ाई को कई जगह त्रिकोणीय जरूर बना दिया है, लेकिन ऐसी स्थिति नहीं दिख रही कि वह बाजी मार ले। ज्यादातर स्थानों पर मुख्य लड़ाई अकाली-भाजपा तथा कांग्रेस के बीच ही है। यहां भाजपा अकाली दल के छोटे साझेदार के रूप में लड़ती है। 113 सीटों में उसे 23 स्थान मिलते हैं। इसलिए यहां की जीत-हार का पूरा दारोमदार अकाली दल पर आता है।
लोकसभा चुनाव परिणामों को देखें तो भाजपा को 16, अकाली दल को 29, कांग्रेस को 37 तथा आप को 33 स्थानों पर बढ़त थी। तो भाजपा-अकाली गठबंधन उसमें भी आगे था। हां, वह बहुमत से पीछे था। आम आदमी पार्टी इन्हीं दोनों पक्षों का मत काटेगी। यह पार्टी दोनों पक्षों जीत-हार का अंतर तय करने की भूमिका निभा सकती है। नवजोत सिद्धू के कांग्रेस में जाने से पार्टी को लाभ कम, नुकसान ज्यादा होने की संभावना है, क्योंकि सिद्धू ने अपनी साख पूरी तरह गंवा दी है। अब कोई उन पर भरोसा करने को तैयार नहीं है।
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