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एक तरफ जहां संपूर्ण विश्व में भारत की साख बढ़ रही है तो वहीं भारत के अंदर से ही कुछ तत्वों द्वारा इस साख को बट्टा लगाने का काम किया जा रहा है। यह वर्ग किसी न किसी प्रकार से भारत को नुकसान पहुंचाने का षड़यंत्र रच समाज को उद्देलित करने का काम करता है
कर्ण खर्ब'
समय तेजी से बदल रहा है। विमुद्रीकरण के बाद स्पष्ट दिख रहा है कि आमजन अब वोट की राजनीति करने वाले नेताओं और दलों के जाल में फंसने वाला नहीं है। रोजमर्रा के छोटे खचार्ें के संबंध में आने वाली दिक्कतों के बावजूद, लोगों ने 500 एवं 1000 के नोट बंद किए जाने के बाद भी विपक्षी दलों द्वारा घोषित 'भारत बंद' का हिस्सा बनने से इनकार कर दिया था। लगातार उपहासपूर्ण भाषणबाजी, सोशल मीडिया पोस्ट, टीवी बहसों, परस्पर वार्तालाप एवं उन्मादी प्रचार के बावजूद, भारतवासियों ने कैश की कमी और बैंकों व एटीएम की लाइनों में देर तक खड़े रहने की समस्याओं का हिम्मत से सामना किया। सरकार में विश्वास, धैर्य एवं अभूतपूर्व संयम का देश की जनता ने इस अवसर पर पूरा परिचय दिया। यही नहीं, छद्म युद्ध को अंजाम देने वालों एवं उनके आकाओं को इस पहल से गहरा झटका लगा। नतीजतन, कश्मीर घाटी एवं देश के पूर्वी और मध्य क्षेत्रों के नक्सलवादी हिंसाग्रस्त इलाकों में मौजूद किराये के लोगों द्वारा मुहिम छोड़ चले जाने की खबरें आई हैं।
इसलिए कहना न होगा कि तीर निशाने पर बैठा है। लोग जाति, समुदाय एवं क्षेत्रीय आधार पर अब तक देश को बांटने वाली वोट बैंक की तुष्टीकरण वाली उस राजनीति के घेरे से आजाद होने लगे हैं जिसने देश को 'सशक्तिकरण से मिलने वाली स्वतंत्रता' की बजाय 'परतंत्रता' की संस्कृति का मोहताज बनाया हुआ था। भारत में भाजपा एवं वामपंथी दलों के अतिरिक्त अधिकांश राजनीतिक दलों पर कुछ गिने-चुने राजनीतिक घरानों का कब्जा रहा है। भाजपा और वामदल लगातार अपनी राजनीतिक विचारधाराओं पर कायम रहे हैं। हालांकि उनकी विचारधाराएं एक दूसरे की धुर विरोधी हैं। एक ओर जहां भाजपा 'राष्ट्रवाद' के सिद्धांत पर कायम रही है जिसे अक्सर प्रगतिशील हिंदुत्व भी कहा जाता है, वहीं वामदल अब भी लुप्तप्राय हो चुके 'साम्यवाद' के सिद्धांत को पुन: स्थापित करने को प्रयासरत दिखते हैं। इसके अतिरिक्त, भारत की अन्य सभी राजनीतिक इकाइयों का लक्ष्य ज्यादा से ज्यादा ताकत और धन बटोरने का रहा है। इसे वह आमजन को लुभाने या डराने के लिए इस्तेमाल करते हैं। 'राष्ट्रवादी' ताकतों को दरकिनार रखने के अपने प्रयास में वामपंथी दल भाजपा-विरोधी गठबंधनों को सहयोग या सहमतियां देते रहे हैं। हाल में विमुद्रीकरण से पड़े असर के बाद उनके यह प्रयास बहुत गंभीर हो गए। सवाल उठता है कि क्या वामदलों के पास काला धन है या वे भी उसकी आवाजाही का माध्यम
बने हैं?
कुछ ऐसे जरूरी सवाल भी हैं कि यदि जिनके जवाब नहीं दिए गए तो भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा पहुंच सकता है। यह सवाल हैं कि क्यों देश के वामदल चीन द्वारा सीमा उल्लंघन पर चुप रहते हैं या चीन द्वारा भारत की संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता, एनएसजी या फिर जैश-ए-मोहम्मद और उसके सरगना मसूद अजहर पर सुरक्षा प्रस्ताव के संबंध में रोक लगाने पर क्यों कुछ बयान नहीं देते? जेएनयू, हैदराबाद एवं जाधवपुर विश्वविद्यालयों में भारत विरोधी नारेबाजी के प्रति सहयोगी और सांत्वनापूर्ण नजरिया अपनाने की राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल, सीताराम येचुरी एवं डी़ राजा की क्या मजबूरी रही थी? आतंकी अफजल की फांसी पर, बाटला हाउस एवं अमदाबाद के इशरत मुठभेड़ मामले में पूर्व गृह मंत्री पी़ चिदम्बरम एवं विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद द्वारा अफसोस क्यों जाहिर किया गया? बात यहीं समाप्त नहीं होती। कथित 'केसरिया/हिंदू आतंक' पर जब-तब पुरजोर तरीके से आवाज बुलंद की जाती रही। 2009 में राहुल गांधी ने भारत में अमेरिका के तत्कालीन राजदूत टिम्थी रोमर को कहा था, ''संभवत: बड़ा खतरा (इस्लामिक आतंकवाद से भी बड़ा) कट्टरवादी हिंदू गुटों का है जिनके कारण मुस्लिम समुदाय के साथ मजहब के नाम पर तनाव और राजनीतिक टकराहट होती है।'' वहीं कश्मीर मुद्दे पर अरविंद केजरीवाल का रुख वहां के अलगाववादियों एवं पाकिस्तान से अलग नहीं है जो कि वहां से सेना की वापसी के साथ-साथ, 'अशांत इलाकों' से सशस्त्र बल विशेष अधिनियम की समाप्ति चाहते हैं।
राजनेताओं की बात जाने दें, सच तो यह है कि दुनिया के किसी अन्य स्वायत्त लोकतांत्रिक देश में किसी भी धड़े से ऐसे देश विरोधी पक्ष बर्दाश्त नहीं किए जाते। ऐसे सभी तत्वों पर बंद कमरों में राजद्रोह का मुकदमा चलाकर उन्हें कठोर दंड दिया जाता है। विदेशी यात्राओं पर जाने पर इन नेताओं में से कुछ अपना भ्रमण संबंधी ब्योरा गोपनीय रखना पसंद करते हैं या फिर कभी ऐसे स्थानों पर भी दिखते हैं जो उनकी यात्रा का हिस्सा नहीं होते। जम्मू एवं कश्मीर के अलगाववादियों एवं छत्तीसगढ़-ओडिशा-झारखंड क्षेत्र के नक्सलवादियों के साथ उनका आपसी सौहार्द इस बात का बड़ा प्रमाण रहा है। कई नेताओं एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा चलाए जाने वाले गैर सरकारी संगठनों की गतिविधियां भी ऐसे तकलीफदेह प्रश्न उठाती हैं। हालांकि इस बात में शक है कि शत्रु वर्ग के साथ उनकी सांठ-गांठ के कभी पुख्ता प्रमाण मिल पाएंगे, लेकिन इसमें शक नहीं कि सतह पर जो कुछ भी दिखाई देता है, उसकी जड़ें कहीं गहरे धंसी हैं।्र दरअसल, यह जिम्मेदारी हमारे देश की सुरक्षा एजेंसियों की है कि वे तथ्यों की तस्दीक करें क्योंकि ऐसी अफवाहें अक्सर सुनने को मिलती हैं कि पाकिस्तान एवं चीन में बैठे दलालों के भारत के राजनीतिक एवं मीडिया हलकों की कई बड़ी हस्तियों से संबंध हैं। दूसरी ओर, ओछी शब्दावली एवं तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करने के प्रयासों से भारतीय राजनीति में गिरावट का बिल्कुल ही नया दौर देखने को मिल रहा है। रक्षा एवं सुरक्षा, विदेश नीति, समग्र विकास संबंधी एवं सरकार की नीतियों और कार्रवाइयों की स्वीकार्यता को सहयोग देने का चलन लगभग समाप्त हो चला है।
इस संबंध में हमारी राजनीतिक गिरावट के प्रत्यक्ष प्रमाण देखे जा सकते हैं। गत वर्ष भारतीय सेना द्वारा 'सर्जिकल स्ट्राइक' के बाद केजरीवाल ने सीमापार के लश्कर-ए-तैयबा एवं आईएसआई के सुर में सुर मिलाते हुए अभियान के 'सबूत' मांगे थे। कांग्रेस ने सैन्य कार्रवाई पर शंका न जताते हुए इस बारे में सेना की जीत के दावों पर सवाल दागा था। यह सुनकर कुछ ऐसा महसूस होता है कि जैसे सेना कोई स्वायत्त संस्था हो जो सरकार की रजामंदी एवं निर्देश के बिना अपने अभियानों को अंजाम देती हो। कहना न होगा कि हर बार इस तरह के राजनीतिक जुमलों और सरकार विरोधी बयानों को देश के अंदर और बाहर दोनों ओर से वाहवाही मिलती है। तो क्या यह अंदाजा लगाना गलत होगा कि देश में छद्म युद्ध को सहयोग देने वाले तत्वों की गहरी पैठ है? आज छद्म युद्ध का एक नया रूप भी देखा जा रहा है। इसमें प्रचारकों द्वारा सहयोग के माध्यम से विदेशी मुद्रा के साथ-साथ आतंक के सुसुप्त तत्वों को सहयोग दिया जा रहा है जिनकी सरपरस्ती जाकिर नाईक के इस्लामिक रिसर्च फाउंडेशन एवं अन्य कुछ जानी-अनजानी संस्थाओं द्वारा की जाती है। दुर्भाग्यपूर्ण सच यह है कि हमारे राजतंत्र एवं मीडिया के कुछ तत्व देश के नैतिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने के जीतोड़ प्रयास में लगे हैं। इसके लिए वे राष्ट्रीयता के बुनियादी सिद्धांतों को धता बताते हुए देश विरोधी ताकतों को अनकहा सहयोग दे रहे हैं। इसलिए जरूरत है कि देश का बौद्धिक, मीडिया एवं प्रशासन तंत्र राष्ट्र विरोधी काम करने वालों की पहचान कर उनका पर्दाफाश करे।
(लेखक एनएसजी में कार्यरत रहे हैं)
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