रपट/ पश्चिम बंगालममता की शह पर बरकती के बोल

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दिंनाक: 16 Jan 2017 16:01:42

एक समय बंगाल को भारत के नवजागरण का केंद्र माना जाता था। स्वामी विवेकानंद, बंकिमचंद्र, महर्षि अरबिंद, कवि गुरु रवींद्रनाथ, नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसी विभूतियों ने बंगाल का नाम पूरी दुनिया में रोशन किया था। गोपाल कृष्ण गोखले कहा करते थे, ''आज बंगाल जो सोचता है, वह कल पूरा भारत सोचेगा।''
लेकिन आज ये बातें पश्चिम बंगाल के लिए मजाक बन गई हैं। इन दिनों बंगाल में जो हो रहा है, वह किसी भी नजरिए से ठीक नहीं है। कोलकाता में एक इमाम प्रधानमंत्री के लिए अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल करता है। इमाम की बातों को सुनकर वहीं बैठे तृणमूल सांसद इदरीश अली ताली बजाते हैं।  लेकिन इन लोगों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती है। इमाम हैं कोलकाता की टीपू सुल्तान मस्जिद के मौलाना रहमान बरकती।  वे जब-तब विवादास्पद बातें करते हैं और बेकार के फतवे देते रहते हैं। 12 दिसंबर, 2016 को भी बरकती ने बंगाल भाजपा के अध्यक्ष दिलीप घोष के विरुद्ध फतवा दिया था। उसमें बरकती ने कहा था, ''दिलीप घोष जहां भी दिखें, वहां उन्हें पत्थर मारो।'' इस तरह की पत्थरबाजी की बातें तो मध्ययुग में होती थीं। 21वीं सदी में ऐसी बातें सुनकर बंगाल का प्रबुद्ध वर्ग आश्चर्यचकित है। बरकती ने  9 जनवरी को पाकिस्तानी मूल के लेखक तारिक फतेह के खिलाफ फतवा जारी करते हुए कहा कि उनकी गर्दन काट दो।  
खुलेआम मार-काट की बात करने वाले बरकती को न तो सरकार का डर है और न ही पुलिस-प्रशासन का। क्योंकि उसके संबंध सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से हैं। इस कारण अभी तक बरकती के खिलाफ एफआईआर भी दर्ज नहीं हुई है। वहीं धूलागढ़ दंगे में हिंदुओं के साथ हुई बर्बरता की घटना को सही रूप में दिखाने पर कुछ पत्रकारों के विरुद्ध मामला दर्ज कर लिया गया है। इन दोनों घटनाओं से साफ है कि ममता सरकार पूरी तरह कट्टरवादियों के कब्जे में है।    पर सवाल यह है कि कैसे बढ़े बरकती?
दरअसल, बंगाल के लोग सेकुलर नेताओं के द्वारा किए गए पापों को भोगने के लिए मजबूर हो गए हैं। बरकती को बढ़ाने में माकपा और तृणमूल के नेताओंका हाथ है। 2007 से पहले उसे कोई नहीं जानता था। उन दिनों माकपा की सरकार थी। बरकती ने 17 अगस्त, 2007 को बंगलादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन के विरोध में फतवा दिया था। इस फतवे की वजह से 21 नवंबर से कोलकाता के पार्क सर्कस इलाके में दंगा शुरू हो गया। दंगा यानी एकतरफा हमला। उस दिन  उन्मादियों ने माकपा के दो दफ्तरों को भी जला दिया था। इसके बाद माकपा ने उन्मादियों के सामने घुटने टेक दिए थे। फिर वाम मोर्चा के अध्यक्ष बिमान बसु ने तस्लीमा को पश्चिम बंगाल छोड़ने को कहा। माकपा के इस रीढ़हीन निर्णय के बाद बरकती और इदरीस अली जैसे लोगों को बढ़ने का मौका मिला।
हवा का रुख पलटते ही ऐसे लोग ममता के करीब हो गए। ममता को भी थोक मुस्लिम वोट चाहिए था। इसलिए उन्होंने भी इन लोगों को बढ़ावा दिया और उनके मन के मुताबिक काम करना शुरू किया। 2011 में सत्ता में आने के तुरंत बाद ममता ने मुसलमानों को खुश करने के लिए दो घोषणाएं कीं। एक घोषणा थी नियम-कानून को ठेंगा दिखाते हुए राज्य के 10,500 मदरसों को मान्यता देना। और दूसरी  घोषणा थी राज्य के इमामों और मुजाहिदिनों को भत्ता देने की। बाद में पता चला कि जिन मदरसों को मान्यता दी गई, उनमें से अनेक की गतिविधियां संदिग्ध थीं। बाद में यह मामला उच्च न्यायालय तक पहुंचा और न्यायालय ने 2 सितंबर, 2013 को सरकार की भर्त्सना करते हुए इन दोनों घोषणाओं को रद्द कर दिया। फिर भी कानून को ठेंगा दिखाकर सरकार किसी न किसी उपाय से इस तुष्टीकरण को जारी रखे हुए है। सरकारों की इन नीतियों से बंगाल में गत कुछ वर्षों से जिहादी और कट्टरवादी ताकतें सिर उठा रही हैं। तभी प्रतिबंधित संगठन सिमी के पश्चिम बंगाल के संस्थापक अध्यक्ष अहमद हुसैन इमरान को तृणमूल कांग्रेस ने राज्यसभा में भेजा।
यह भी कहा जा रहा है कि सारदा और रोजवैली जैसी चिटफंड कंपनियों ने गरीबों से करोड़ों रुपए लूटकर तृणमूल के नेताओं के साथ-साथ कट्टरवादी तत्वों को भी धन दिया है। इसके कई सबूत हैं। सारदा चिटफंड के पैसे से 'कलम' नामक एक अखबार चलता  था, जिसके संपादक थे इमरान। अब यह 'दैनिक कलम' के नाम से प्रकाशित होता है। वर्धमान के खागड़ागढ़ में तृणमूल कांग्रेस के दफ्तर के ऊपर जिहादियों के लिए विस्फोटक बनाने का कारखाना था। वर्धमान कांड के बाद आईएनए की जांच से पता चला कि चिटफंड के रुपए से पश्चिम बंगाल तथा बंगलादेश में कट्टरवादी गतिविधियां चलती थीं।
बंगाल में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो कहते हैं कि तृणमूल कांग्रेस बंगाल के कट्टरवादी तत्वों को तो बढ़ा ही रही है, बंगलादेश के कट्टरवादियों को भी पाल-पोस रही है। आपको याद होगा कुछ समय पहले बंगलादेश में मुक्ति आंदोलन से जुड़े जमाते इस्लामी के नेताओं को फांसी की सजा दी गई थी। इन पर सैकड़ों हिंदुओं की हत्या तथा महिलाओं के साथ बलात्कार करने का आरोप था। यह मामला बंगलादेश का है, पर बंगाल के मुसलमानों ने इस पर खूब हंगामा मचाया था। यही नहीं, इसके विरोध में 16 इस्लामी संगठनों ने कोलकाता में 30 मार्च, 2013 को जलसा किया था। कहा जा रहा है कि जलसे का पूरा प्रबंध तृणमूल के पैसे से हुआ था।
धीरे-धीरे ऐसे लोग सत्ता के करीब आ गए। कुछ तो दल बदल कर मंत्री भी हो गए हैं।  पिछले कुछ सालों में बंगाल की राजनीति में ऐसे लोगों ने जबरदस्त पैठ बना ली है। इनका दुस्साहस बढ़ गया है। फुरफुरा शरीफ के पीरजादे सोहा सिद्दिकी ने 18 दिसंबर, 2015 को ममता बनर्जी के सामने मांग की कि राज्य विधानसभा में मुसलमानों को आरक्षण मिलना चाहिए। तृणमूल ने उनकी इस मांग को तरजीह भी दी और गत विधानसभा चुनाव में काफी मुसलमान उम्मीदवार उतारे। सिद्दिकी के भाई काशिम भी कम नहीं हैं। काशिम ने पिछले दिनों धूलागढ़ के पास तेहट हाई स्कूल के प्रधानाचार्य के विरोध में फतवा दिया था।  काशिम उस स्कूल में नवी दिवस मनाना चाहते थे, लेकिन प्रधानाचार्य ने इसकी अनुमति नहीं दी थी। इसके विरोध में काशिम ने सैकड़ों लोगों को स्कूल के सामने इकट्ठा कर भड़काऊ भाषण दिया था। इसके बाद वहां हालात बिगड़ गए थे। 24 दिसंबर, 2016 से 6 जनवरी, 2017 तक वह स्कूल बंद रहा। शांति बहाल करने के लिए अर्द्धसैनिक बलों की तैनाती करनी पड़ी। पर काशिम के खिलाफ अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है।
बंगाल के लोग कहने लगे हैं कि बरकती जैसे कट्टरवादी पश्चिम बंगाल को बंगलादेश समझने लगे हैं। ऐसे तत्वों पर जल्दी ही लगाम नहीं लगी तो बंगाल की स्थिति और खराब होगी। लाख टके का सवाल है कि लगाम कौन लगाएगा? वोट के लालच में हर  सेकुलर नेता चुप रहना ही पसंद करता है। ममता जब तक हैं तब तक लगाम की बात भी सोचना 'गुनाह' माना जाएगा।  

-जिष्णु बसु 

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