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स्वामी विवेकानंद ने दुनिया भर में सिर्फ भारत की आध्यात्मिक थाती का ही प्रवार-प्रसार नहीं किया था, अपितु स्वतंत्रता के प्रति समाज में चेतना जगाने में भी उनकी प्रमुख भूमिका रही थी। उन्होंने समाज को उसके गौरव का भान कराया था
रराजेंद्र कुमार चड्ढा
''भारत भूमि पवित्र भूमि है। भारत मेरा तीर्थ है। भारत मेरा सर्वस्व है। भारत की पुण्य भूमि का अतीत गौरवमय है। यही वह भारतवर्ष है, जहां मानव प्रकृति एवं अंतर्जगत के रहस्यों की जिज्ञासाओं के अंकुर पनपे थे।''
स्वामी विवेकानंद के उक्त शब्दों से भारत, भारतीयता और भारतवासियों के प्रति उनके प्रेम, समर्पण और भावनात्मक संबंध स्पष्ट परिलक्षित होते हंै। स्वामी विवेकानंद को युवा सोच का संन्यासी माना जाता है। विवेकानंद केवल आध्यात्मिक पुरुष नहीं थे वरन् विचारों और कायार्ें से एक क्रांतिकारी संत थे। इस बात को सभी स्वीकार करते हैं कि भारत के प्रति जो अगाध प्रेम स्वामी जी ने अन्य व्यक्तियों में संचारित किया था, वही स्वतंत्रता आन्दोलन की मुख्य प्रेरणा थी। नवजीवन प्रकाशन, कलकत्ता से प्रकाशित भूपेन्द्र नाथ दत्त की पुस्तक 'पेट्रिओट प्रोफेट स्वामी विवेकानंद' में उल्लेख है कि अपनी फ्रांसीसी शिष्या जोसेफाइन मोक्लियान से स्वामी जी ने कहा कि 'क्या निवेदिता जानती नहीं हैं कि मैंने स्वतंत्रता के लिए प्रयास किया, किन्तु देश अभी तैयार नहीं है, इसलिए छोड़ दिया।' संभवत: स्वामी जी ने देश भ्रमण के दौरान पूरे देश के राजाओं को जोड़ने का प्रयत्न किया होगा, जिसका संकेत उक्तचर्चा में मिलता है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन पर विवेकानंद का प्रभाव, फ्रांसीसी क्रांति पर रूसो अथवा रूसी और चीनी क्रांतियों पर कार्ल मार्क्स के प्रभाव की तुलना में किसी भी तरह से कमतर नहीं था।
राष्ट्र-भाव का जागरण
कोई भी स्वतंत्रता आंदोलन व्यापक राष्ट्रीय चेतना की पृष्ठभूमि के बिना संभव नहीं है। सभी समकालीन स्रोतों से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत में राष्ट्रीयता की भावना के जागरण में विवेकानंद का सबसे सशक्त प्रभाव था। वास्तव में, जिस तरह रामकृष्ण परमहंस बिना किसी पुस्तकीय ज्ञान के वेदांत के एक जीवंत प्रतीक थे, उसी प्रकार स्वामी विवेकानंद राष्ट्रीय जीवन के प्रतीक थे। अंग्रेज पहले ही आशंकित हो चुके थे। अल्मोड़ा में पुलिस स्वामी जी की गतिविधियों पर दृष्टि रख रही थी। श्रीमती एरिक हैमंड को भेजे अपने पत्र में भगिनी निवेदिता ने लिखा, ''आज सुबह एक भिक्षु को यह चेतावनी मिली थी कि पुलिस अपने जासूसों के द्वारा स्वामी जी पर दृष्टि रख रही है। नि:संदेह, हम सामान्य रूप से इस बारे में जानते हैं। किन्तु अब यह और स्पष्ट हो गया है और मैं इसे अनदेखा नहीं कर सकती, यद्यपि स्वामीजी इसे गंभीरता से नहीं लेते हैं। सरकार अवश्य ही मूर्खता कर रही है या कम से कम तब ऐसा स्पष्ट हो जाएगा, यदि वह उनसे उलझेगी। वह पूरे देश को जगाने वाली मशाल होगी। और मैं इस देश में जीने वाली अब तक की सबसे निष्ठावान अंग्रेज महिला, उस मशाल से जागने वाली पहली महिला होऊंगी।'' हम स्वामी जी के शब्दों का प्रभाव कुख्यात 'विद्रोह कमेटी' की रिपोर्ट में देख सकते हैं। जो कहती है, ''उसके (स्वामी विवेकानंद के) लेखों और शिक्षाओं ने अनेक सुशिक्षित हिन्दुओं पर गहरी छाप छोड़ी है।''
प्रसिद्ध देशभक्त-क्रांतिकारी ब्रह्मबांधव उपाध्याय और अश्विनी कुमार दत्त से चर्चा के दौरान हेमचन्द्र घोष ने 1906 में टिप्पणी की, ''मुझे अच्छी तरह याद है कि स्वामीजी ने मुझे बंगाली युवाओं की अस्थियों से एक ऐसा शक्तिशाली हथियार बनाने को कहा था, जो भारत को स्वतंत्र करा सके।''अपनी प्रेरणादायी रचना 'द रोल ऑफ ऑनर: एनेक्डोट ऑफ इंडियन मार्टिर्स' में कालीचरण घोष बंगाल के युवा क्रांतिकारियों के मन पर स्वामीजी के प्रभाव के बारे में लिखते हैं, ''स्वामीजी के संदेश ने बंगाली युवाओं के मनों को ज्वलंत राष्ट्र-भक्ति की भावना से भर दिया और उनमें से कुछ में कठोर राजनैतिक गतिविधि की प्रवृत्ति उत्पन्न की।'' स्वामी विवेकानंद के देहांत से पूर्व देश उन संगठनों के महत्व के प्रति जागरूक हो गया था जो बड़े पैमाने पर शारीरिक उन्नति, खेल, तलवारबाजी, पाण और लाठी के खेल, समाज-सेवा, राहत कार्य आदि करते थे। 1902 तक ऐसे संगठन उभर आए थे, जिनमें प्रखर राष्ट्रवाद के साथ ही 'एक आध्यात्मिक भावना' भी थी, जैसे सतीश मुखर्जी और पी. मित्रा के नेतृत्व में अनुशीलन समिति।
स्वामी विवेकानंद के बौद्धिक जगत में तैयार किए विक्षोभ के वातावरण के विस्फोट का आभास उनके देहांत के बाद बंगाल में क्रांतिकारी आंदोलन के नेता के रूप में श्री अरविंद के उद्भव के तौर पर सामने आया। भगिनी निवेदिता ने स्वामी विवेकानंद के देशभक्ति और राष्ट्र निर्माण के आदशार को एक आधारभूत संबल प्रदान किया।1910 में जब श्री अरविंद को दूसरी बार गिरफ्तार करने की चर्चा चली, उस समय निवेदिता की सलाह थी कि नेता घर से दूर रहते हुए भी घर जितना काम कर सकता है और इस सलाह ने उनके फ्रांसीसी उपनिवेश पांडिचेरी जाने का मार्ग प्रशस्त कर दिया।
आकस्मिक हुआ बदलाव
हम राष्ट्रीय परिदृश्य पर स्वामी विवेकानंद के उभरने से पहलेे की स्थिति पर एक दृष्टि डालें। अंग्रेजी शिक्षा, देसी साहित्य, भारतीय प्रेस, कांग्रेस सहित विभिन्न सुधार आंदोलन और राजनीतिक संगठन अस्तित्व में आ चुके थे और उनका प्रभाव फैल चुका था। इन सबके बावजूद, एक सर्वव्यापी राष्ट्रीय चेतना का अभाव था। अगर ऐसा नहीं होता तो मद्रास से प्रकाशित होने वाला द हिंदू 1893 की शुरुआत में हिंदू धर्म के बारे में यह कैसे लिख सकता था कि ''यह मर चुका है और इसकी क्षमता चुक गई है।'' पर इसी समाचार पत्र ने एंग्लो इंडियन और मिशनरी अखबारों सहित अन्य प्रकाशनों के साथ एक वर्ष (और बाद में भी) से भी कम समय में लिखा कि वर्तमान समय हिंदुओं के इतिहास में पुनर्जागरण काल के रूप में वर्णित किया जा सकता है (मद्रास क्रिश्चियन कॉलेेज पत्रिका, मार्च 1897)। इसे एक राष्ट्रीय विद्रोह का नाम दिया गया (मद्रास टाइम्स, 2 मार्च, 1895)। यह चमत्कार कैसे हुआ? हमें समकालीन विवरणों से जो एक उत्तर प्राप्त होता है वह यह कि स्वामी विवेकानंद ने शिकागो धर्म संसद में भाग लेते हुए वहां पर भारतीय धर्म और सभ्यता की महिमा का प्रचार किया और अपने देश की प्राचीन विरासत का बखान किया। इस तरह अपने देशवासियों में दीर्घकाल से खोए हुए आत्मसम्मान और आत्मविश्वास को वापस लौटाया। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि ''मुझे गर्व है कि मैं ऐसे धर्म में पैदा हुआ हूं जिसने सदियों से दुनिया को राह दिखाई।'' चेतनाहीन समाज को चैतन्य करना उनका सबसे बड़ा योगदान है।
जहां रामकृष्ण परमहंस की आध्यात्मिक साधना ने स्वामी विवेकानंद के राष्ट्रवादी कार्य के लिए शक्तिपुंज का कार्य किया, वहीं स्वामी विवेकानंद के क्रांतिकारी विचार भारत में सैकड़ों-हजारों राष्ट्रवादी कायार्ें के लिए प्रेरणा सूत्र बने। स्वामीजी के विचारों तथा शिक्षा ने राष्ट्रीय जीवन व संस्कृति को काफी प्रभावित किया। भारतीय क्रांतिकारियों की अनेक पीढि़यां 20वीं सदी के प्रारंभ से ही उनके जोशीले भाषण तथा लेेखन से व्यवहारत: उठ खड़ी हुईं और दृढ़ बनीं। सुप्रसिद्ध इतिहासकार यदुनाथ सरकार के अनुसार, भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन का यदि किसी एक व्यक्ति को श्रेय जाता है, तो वह हैं विवेकानंद। देश की आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी से लेकर जितने बड़े नेता हुए, जिन्होंने देश को सब कुछ माना, उनके जीवन की प्रेरणा स्वामी विवेकानंद थे। देशभक्ति से ओत-प्रोत स्वामीजी के भाषणों द्वारा पैदा की गई विचारों की चिनगारी का असर वीर सावरकर तथा लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जैसे राष्ट्रभक्तों पर भी दिखाई देता है। अपने वृहत काव्य सप्तर्षि में सावरकर जी ने लिखा कि ''निराशा के क्षणों में उन्हें विवेकानंद के विचार ही प्रेरणा देते थे।''1901 में वैल्लोर में हुए कांग्रेस अधिवेशन के समय तिलक जी लगातार 8 दिन तक विवेकानंद जी से नियमित मिलते रहे। तिलक के लेखों में उसके बाद ही दरिद्र नारायण शब्द का प्रयोग प्रारम्भ हुआ।
दक्षिण के सुप्रसिद्ध कवि सुब्रह्मण्यम भारती की प्रारंभिक कविताओं में तमिल राष्ट्रवाद का उल्लेख मिलता है, किन्तु स्वामीजी के प्रभाव में आने के बाद जीवन के उत्तरार्ध में लिखी उनकी कविताएं भारतीय हिन्दू राष्ट्रवाद का गुणगान करती हैं। वहीं दूसरी ओर, महान स्वतंत्रता सेनानी और पत्रकार तथा युगांतर के संस्थापकों में से एक बारींद्रनाथ घोष और भूपेन्द्र नाथ दत्त (स्वामी विवेकानंद जी के छोटे भाई) को बंगाल में क्रांतिकारी विचारधारा को फैलाने का श्रेय दिया जाता है। बारींद्रनाथ, श्री अरविन्द घोष के छोटे भाई थे। भगत सिंह से पहले का भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन एक तरह से स्वामी दयानंद और विवेकानंद जैसे आध्यात्मिक पुरुषों से अनुप्राणित रहा है।
देशभक्ति का ज्वार
क्रांतिकारी ब्रह्मबांधव उपाध्याय ने बताया कि, 1901 में उनकी ढाका यात्रा के दौरान जब युवाओं का एक समूह उनसे मिला और परामर्श लिया, तो उन्होंने कहा, बंकिमचन्द्र को पढ़ो और देशभक्ति व सनातन धर्म का अनुकरण करो। यह कोई संयोग नहीं है कि स्वामी विवेकानंद के समाधिस्थ होने के तीन वर्र्ष बाद ही उनके द्वारा प्रज्वलित अग्नि ने बंगाल के विभाजन के विरुद्ध एक विशाल आंदोलन भड़का दिया था। स्वामी विवेकानंद का आह्वान भारतीय स्वतंत्रता हेतु लिए संघर्षरत क्रांतिवीरों के लिए एक मिशन बन गया। गांधी, तिलक, नेहरू से लेकर राजाजी तक, सभी इस बात से सहमत थे कि स्वामी विवेकानंद ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का नैतिक और बौद्धिक आधार रखा।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- ''यदि हमारे समाज में, इस राष्ट्रीय जीवनरूपी जहाज में छिद्र है, तो आओ, हम तो उसकी संतानें, चलकर उन छिद्रों को बंद कर दें-उसके लिए हंसते-हंसते अपने हृदय का रक्त बहा दें और यदि हम ऐसा न कर सकें तो हमारा मर जाना ही उचित है। हम अपना भेजा निकालकर उसकी डाट बनाएंगे और जहाज के उन छिद्रों में भर देंगे। पर उसकी कभी भर्त्सन्ना न करें! इस समाज के विरुद्ध एक कड़ा शब्द तक न निकाले।'' स्वामी विवेकानंद की शिक्षाओं से ही प्रेरित होकर 19वीं शती में क्रांतिकारी आंदोलन, अनुशील समिति और युगांतर का गठन हुआ।
रोमां रोलां बताते हैं कि बेलूर मठ में एक व्याख्यान में महात्मा गांधी ने स्वीकार किया था कि विवेकानंद के अध्ययन और उनकी पुस्तकों ने उनमें देशभक्ति को बढ़ाया। इस प्रकार, भारत के सभी क्रांतिकारी राष्ट्रवादी आंदोलन स्वामीजी की सिंह गर्जना-'उठो, जागो और लक्ष्य प्राप्ति तक मत रुको' के बाद ही शुरू हुए।
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