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अभाव मिटे, विदेशी प्रभाव हारे

by
Dec 5, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 05 Dec 2016 17:36:07


 

 

आर्थिक विकास को विदेशी दबाव से मुक्त रखने का आग्रह

नेहरू शासन में उद्योगों से ज्यादा उद्योगपतियों को तरजीह मिली।उन लघु और कुटीर उद्योगों की अनदेखी हुई जिन पर करोड़ों की आजीविका आश्रित थी।तब  पं. दीनदयाल उपाध्याय और श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी  ने भारत के अनुकूल स्वदेशी अर्थचिंतन प्रस्तुत कर विकास की राह पर आगे बढ़ने का खाका सामने रखा

भगवती प्रकाश शर्मा

 विश्व मंगल हेतु हिन्दुत्व के प्रेरक बोध-वचन 'सर्वे भवन्तु सुखिन:…' के अनुरूप मानव मात्र के योगक्षेम पर केन्द्रित स्वदेशी की संकल्पना संघ के विचारों में प्रारम्भ से ही अन्तर्निहित रही है। स्वदेशी का भाव केवल आर्थिक व्यवहारों, उपभोग व उत्पादन तक ही सीमित न होकर भाषा, भूषा, भोजन, भजन अर्थात् उपासना पद्धति, संस्कार व जीवन मूल्य पर्यन्त समाज जीवन के सभी आयामों में राष्ट्रीयता का प्रसार है जो संघ के स्वंयसेवकों के जीवन में दृष्टिगोचर होता है। संघ की प्र्रार्थना में परम वैभव का जो वेद-प्रणीत ध्येय सूत्रबद्घ है, उसकी प्राप्ति स्वदेशी भाव से ही संभव है। बीसवीं सदी के पंूजीवाद व साम्यवाद के मध्य शीतयुद्ध-कालीन टकराव के दौर में पण्डित दीनदयाल उपाध्याय व श्री दत्तोपन्त ठेंगड़ी जैसे चिन्तक मनीषियों ने क्रमश: 'एकात्म मानव दर्शन' व 'तीसरे पथ' के रूप में स्वदेशी के इन्हीं संस्कारों को धारणक्षम विकास के आधार के रूप में प्रस्तुत किया है। इसके अतिरिक्त देश के आर्थिक विकास व सामयिक आर्थिक नीतियों को विदेशी प्रभावों व दबावों से मुक्त रखने का सदैव ही संघ का आग्रह रहा है। आगे, इन आग्रहों का संक्षिप्त विवेचन किया गया है।

आजादी से ही विदेशी प्रभाव का विरोध
स्वाधीनता काल से ही देश में कार्यरत सरकारों द्वारा बाहरी दबाव में देश हित के विरुद्ध लिये गये अनेक आर्थिक निर्णयों के विरुद्ध संघ के कार्यकर्ताओं द्वारा समय-समय पर जन जागरण किया जाता रहा है। स्वाधीनता के तत्काल बाद जब केन्द्र सरकार ने 19 सितंबर, 1949 को विश्व बैंक से ऋण लेने हेतु रुपए का 30़ 5 प्रतिशत अवमूल्यन किया, तब श्री गुरुजी ने विदेशी ऋण लेने व रुपये के अवमूल्यन, सरकार के इन दोनों ही कदमों को अनुचित ठहराते हुये, उसके गम्भीर दुष्परिणामों की चेतावनी दी थी। श्री गुरुजी ने तब सरकार का 95़18 लाख रुपये के विदेश व्यापार घाटे के प्रति भी चिंता करने का आवाह्न किया था। इस अवमूल्यन के कारण ही प्रति डॉलर रुपए की कीमत 3़ 23 से गिरकर 4़ 76 रुपए रह गई। दिसंबर 1946 में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने रुपये का मूल्य जो 30़ 23 सेण्ट निश्चित किया था, उसे तत्कालीन जवाहरलाल नेहरू सरकार ने 21 सेण्ट तुल्य कर दिया। पाकिस्तान ने तब रुपये का अवमूल्यन नहीं किया था इसलिये पाकिस्तानी रुपये की तुलना में भी भारतीय रुपए की कीमत 1़ 44 हो गई। इस पर तब संघ के प्रमुख कार्यकर्ताओं ने चिंता व्यक्त की थी और सरकार व जनता को भी सावधान किया था। इस अवमूल्यन के कारण ही हम जहां अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष व विश्व बैंक के विश्व के पांच शीर्ष अंश धारकोें में से थे, उस अंश की कीमत गिर जाने से 1963 में इन संस्थाओं में अपने स्थायी निदेशक का पद तक खो बैठे थे। विश्व बैंक के ही प्रभाव में राष्ट्रीय हितों की अनदेखी कर पाकिस्तान के साथ 1965 में सिन्धु जल बंटवारे के विरुद्ध भी श्री गुरुजी ने सरकार व जनता को सावधान करते हुये सरकार को देश को नीतियों के निर्धारण व अन्य देशों से समझौते में बाहरी दबावों के प्रति पुन: सावधान रहने को कहा था। 

1966 में पुन: 6 जून को रुपये का 57़ 5 प्रतिशत अवमूल्यन कर इसकी कीमत 4़ 76 रुपए से घटाकर 7़ 50 रुपए प्रति डॉलर कर दी गई थी। तब संघ के स्वयंसेवकों ने पुन: देश को इसके प्रति सावधान किया, देश भर में इस मुद्दे पर जन जागरण किया था। तब पण्डित दीनदयाल उपाध्याय ने इस विषय को देश भर में जन सभाएं आयोजित कर जनता में उठाया और 'फाल ऑॅफ इण्डियन रुपी' शीर्षक से एक पुस्तक भी लिखी थी। यह पुस्तक तब आर्थिक जगत में सर्वाधिक चर्चित रही। तत्कालीन सरकार की इन जनविरोधी नीतियों के प्रति स्वयंसेवकों के जन जागरण के कारण ही 1967 के आम चुनावों में कांग्रेस की लोकसभा में 78 सीटें कम हुई थीं, मत प्रतिशत काफी घट गया था। वस्तुत: 1961-66 की तीसरी पंचवर्षीय योजनावधि में 5़ 6 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि का लक्ष्य रखा गया था। लेकिन दोषपूर्ण नीतियों के कारण वृद्धि दर मात्र 2़ 4 प्रतिशत रह गई। आर्थिक अस्थिरता व तीसरी पंचवर्षीय योजना की विफलता के कारण ही 1966 से 1969 तक तीन वर्ष पर्यन्त सरकार चौथी योजना बनाने की स्थिति में ही नहीं रही। इसलिये चौथी योजना 1 अप्रैल, 1966 के स्थान पर 1969 से लागू की गई। देश की आर्थिक बदहाली पर स्वयंसेवकों के जन जागरण के कारण ही लोकसभा में कांग्रेस की सीटों में भारी कमी आई थी। इस चुनाव में उठाये गये आर्थिक मुद्दों से भारतीय जनसंघ के सांसदों की संख्या लोकसभा में 14 से बढ़कर 35 हो गई थी। बाद में 1977 में बनी मोरारजी देसाई सरकार ने जब देश को स्वावलम्बी बनाने हेतु अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष का सारा ऋण चुका दिया था। लेकिन, पुन: श्रीमती इंदिरा गांधी ने 1981-82 में मुद्राकोष से 500 करोड़ विशेष आहरण अधिकार (एस़ डी़ आर.) ऋण का आवेदन कर 390 करोड़ एस़ डी़ आर. ऋण ले लिया। संघ के स्वयंसेवकों, विशेष रूप से दत्तोपन्त ठेंगड़ी जी ने इस ऋण पर गम्भीर चिन्ता व्यक्त की थी। यह ऋण मुद्राकोष के इतिहास में किसी देश द्वारा लिया तब तक का सबसे बड़ा ऋण था। 1987 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा देश पर बाहरी ऋण के चलते भी आयात को अत्यन्त उदार कर दिया गया था। उसके भी गम्भीरतम परिणामों की चेतावनी संघ के कार्यकर्ताओं ने तब दे दी थी। उसी 1981-82 के ऋण व 1987 के आयात उदारीकरण के परिणामस्वरूप देश 1991 के भुगतान संकट में फंसा था। तब देश को सोना गिरवी रखना पड़ा और बाद में ऋण के बदले तब मुद्राकोष व विश्व बैंक की सुझायी नीतियों को 'आर्थिक सुधार', 'आर्थिक उदारीकरण' व 'आर्थिक वैश्वीकरण' आदि भिन्न-भिन्न नामों से लागू करना पड़ा था। इनके साथ ही, 1986 में प्रारम्भ हुई गैट वार्ताओं के आठवें चक्र मंे 1989 में डंकेल प्रस्ताव अस्तित्व में आये और उन्हीं के अनुरूप 1995 में विश्व व्यापार संगठन का गठन हुआ तथा उसी के अधीन विविध बहुपक्षीय समझौते अस्तित्व में आये। इनका भी तब 1989 से ही संघ के स्वयंसेवकों ने पुरजोर विरोध प्रारम्भ किया व 1991 में स्वदेशी जागरण मंच के अस्तित्व में आने पर मंच के तत्वावधान में स्वयंसेवकों ने विरोध जारी रखा। विश्व व्यापार संगठन के बन जाने के बाद भी विश्व व्यापार संगठन के दोहा सम्मेलन में 2001 से स्वदेशी जागरण मंच के प्रयत्नों से बनी विकासशील देशों की एकता के बाद वहां अब नये विशेष समझौते न हो पाने के कारण बहुराष्ट्रीय कंपनियां अब मुक्त व्यापार समझौतों का सहारा लेकर अपना कारोबार फैलाने को प्रयासरत हैं।

स्वदेशी जागरण मंच का गठन
25 वर्ष पूर्व नरसिंह राव सरकार में वित्त मंत्री  डॉ़ मनमोहन सिंह ने जब 1 जुलाई, 1991 को रुपये की कीमत में अवमूल्यन से प्रारम्भ कर जब, आयात व विदेशी पूंजी निवेश को प्रोत्साहन की नव उदारवादी नीतियों को, विश्व बैंक व मुद्राकोष के संरचनात्मक समायोजन कार्यक्रमों के अधीन लागू करना प्रारम्भ किया, तब संघ के स्वयंसेवकों ने स्वदेशी भाव जागरण हेतु 22 नवंबर, 1991 को स्वदेशी जागरण मंच का गठन कर संगठित रूप से स्वदेशी भाव जागरण का सूत्रपात किया था। रा. स्व. संघ द्वारा वरिष्ठ प्रचारक दत्तोपन्त ठेंगड़ी जी, मदनदास जी जैसे प्रमुख कार्यकर्ताओं व सभी स्वयंसेवकों द्वारा समाज जीवन में चल रहे विविध समाज कायोंर् यथा भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ, विश्व हिन्दू परिषद, राष्ट्र सेविका समिति, ग्राहक जागरण पंचायत, सहकार भारती व भारतीय जनता पार्टी में कार्यरत स्वयंसेवकों को प्रेरित कर मंच की स्थापना में सक्रिय किया और स्वदेशी को एक सतत गतिमान आन्दोलन जैसे अभियान का स्वरूप प्रदान किया। 4-5 सितंबर, 1993 को मंच का प्रथम सम्मेलन दिल्ली में सम्पन्न हुआ और 1-15 दिसंबर तक सम्पूर्ण देश में एक व्यापक जन जागरण अभियान चलाया गया। नव उदारवादी नीतियों एवं तत्कालीन उरुग्वे वार्ताओं में प्रस्तावित विश्व व्यापार संगठन की स्थापना व उसके अधीन विविध ऐसे बहुपक्षीय व्यापार समझौते, जो देश की संप्रभुता एवं विकास में बाधक होने वाले थे, के विरुद्ध तब संघ ने देश भर में जन सभायें, संगोष्ठियां, प्रदर्शन आदि आयोजित किये व घर-घर पत्रक वितरित किये।

25 वषार्ेें में सुधारों के दुष्प्रभाव  
1991 में विश्व के तात्विक सकल घरेलू उत्पाद में रुपये की विनिमय दर के आधार पर भारत का अंश 3़ 2 प्रतिशत था जो  आज मात्र 2़ 6 प्रतिशत है। 1991-92 मंे भारत का विदेशी व्यापार घाटा मात्र 2़ 6 अरब डॉलर था, वह आज 118 अरब डॉलर है जो दो वर्ष पूर्व 181 पर पहुंच गया था। तब 18 रुपये बराबर एक डॉलर था। वही आज रुपए 67़ 7 का एक हो गया है। आयात की भरमार से देश के उद्यम रुग्ण या बंद हो रहे हैं या विदेशी कंपनियों द्वारा अधिग्रहीत किये जा रहे हैं। देश के उत्पादन तंत्र का 60 से 80 प्रतिशत तक या कुछ क्षेत्रों में 100 प्रतिशत तक भी विदेशी नियंत्रण में चला गया है। उदाहरणत: देश में टीवी, फ्रिज जैसी टिकाऊ  उपभोक्ता वस्तुओं का 73 प्रतिशत, शीतल पेय में शत-प्रतिशत, सीमेंट में आधे से अधिक, कारों का 85 प्रतिशत, स्कूटर में 60 प्रतिशत बाजार विदेशी उत्पादकों के नियंत्रण में गया है, जो तथाकथित सुधारों के पूर्व शत-प्रतिशत भारतीयों के नियंत्रण में था। आज वैश्विक विनिर्माणी उत्पादन अर्थात् वर्ल्ड मेन्यूफैक्चरिंग में भारत का अंश मात्र 2़ 04 प्रतिशत रह गया है, जबकि हम विश्व की 16 प्रतिशत जनसंख्या वाले देश हैं। वहीं चीन का अंश, जो 1991 में मात्र 2़ 4 प्रतिशत था आज बढ़कर 23 प्रतिशत हो जाने तथा अमेरिका का अंश 17़ 2 प्रतिशत ही रह जाने से वह क्रमांक 2 पर चला गया है।

स्वदेशी जागरण मंच के अभियान व उपलब्धियां
संघ ने 1925 में स्थापना के समय से ही राष्ट्रीयता के संस्कार देने तक ही अपनी भूमिका परिमित रखते हुये, समाज जीवन के लिये सभी आवश्यक कायोंर् के लिये स्वयंसेवकों को सतत सन्नद्ध रहने का संस्कार दिया है। उसी संस्कार से युक्त स्वयंसेवकों ने स्वदेशी जागरण मंच का गठन किया। स्वदेशी भाव से प्रेरित यह अनेक संगठनों, बुद्धिजीवियों व आन्दोलनधर्मी व्यक्तियों व समूहों के साझे मंच के रूप में उन नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के प्रतिकार में सहभागी रहा है जो देश हित के विरुद्ध हंै। इसके साथ ही यह आर्थिक राष्ट्र-निष्ठा, राष्ट्रीय तकनीकी परिष्कार, रोजगार संवर्द्धन, पर्यावरण, कृषि संवर्द्धन, उद्योग, विशेषत: लघु उद्योगों के संरक्षण, परिवार संस्कार व जीवन में मूल्य-परकता के विस्तार के लिये स्वयंसेवकों, सम-विचारी संगठनों व समाज को नेतृत्व देने वाले समाज के बंधुआंे व बहनों के सहकार से निरन्तर अभियान व आन्दोलन को गतिमान रखे हुये है। इन अभियानों में 1994 का राष्ट्रव्यापी जन जागरण अभियान, 1995 में देश के हितों के विरुद्ध शर्तों पर, एनरान कंपनी की विद्युत परियोजना के विरुद्ध आन्दोलन, 1995 में ही यांत्रिक कत्लखानों के विरुद्ध पशुधन रक्षा आंदोलन, 1996 में बीड़ी रोजगार रक्षक आंदोलन, 1996 में मछुआरों के हितों की रक्षार्थ विदेशी कंपनियों द्वारा गहरे समुद्र में मत्स्याखेट पर रोक का आन्दोलन आदि मंच की स्थापना के प्रारंभिक वषार्ें के अत्यन्त प्रभावी आंदोलन रहे हैं। खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी, जी़ एम. फसलों के दुष्प्रभावों पर जन जागरण तथा बी़ टी़ बैंगन, जी़ एम़ सरसों आदि के विरुद्ध व्यापक जन जागरण, चीनी वस्तुओं के विरुद्ध जन जागरण अभियान, मुक्त व्यापार समझौतों में राष्ट्रीय हितों के संरक्षण के लिये दबाव निर्माण जैसे शताधिक अभियान व आन्दोलन मंच के तत्वावधान में स्वयंसेवकों ने चलाये हैं।
विश्व व्यापार संगठन में सिंगापुर मुद्दों के विरुद्ध भारत सहित 69 देशों का प्रतिरोध खड़ा करने हेतु भी समस्त विकासशील देशों के हितों के संरक्षण की दिशा में पहल जैसी कई उपलब्धियां स्वदेशी जागरण के माध्यम से संघ के स्वयंसेवकों ने समाज हित में अर्जित की हैं। वस्तुत: विश्व की 65,000 बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों के सामने विश्व के 7़ 2 अरब जन-समाज के हितों को वरीयता दिलाने एवं प्रत्येक देश के संसाधनों को उस देश के नागरिकों के सहभाग से वहां मानव मात्र के लिये उचित योगक्षेम की दिशा में नियोजित करने के परम वैभव और विश्व मंगल के मार्र्ग पर अग्रसर करने हेतु मंच सतत सक्रिय है।
भारत एक समर्थ, सक्षम, सबल राष्ट्र के रूप में विश्व मांगल्य का प्रेरक बने, इस कार्य में मंच के माध्यम से संघ के सभी स्वयंसेवक पूरी तरह से सन्नद्ध हैं और सम्पूर्ण समाज को भी तद्नुरूप सक्रिय करने हेतु सचेष्ट हैं।
लेखक पेसेफिक विश्वविद्यालय, उदयपुर के कुलपति हैं 

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