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मेरा जन्म एक ईसाई परिवार में हुआ है और मैं नियमित रूप से चर्च जाता हूं। मुझे रा. स्व. संघ के बारे में बहुत कुछ जानने का सुअवसर मिला। देश में जमीनी स्तर पर काम करने वाले इस संगठन के अनुशासन को देखकर मेरे मन में इसके प्रति गहरी श्रद्धा जाग उठी थी। 1979 तक मैं इस संगठन की कई खूबियों से अवगत हो चुका था। उस समय मैं कोझिकोड में अतिरिक्त जिला न्यायाधीश था। उस दौरान मुख्य न्यायाधीश थे ए़ आऱ श्रीनिवासन, जो बेहद ईमानदार थे। उनकी सच्चाई और न्यायिक निष्ठा अद्वितीय थी। इसी तरह देश के प्रति उनकी प्रतिबद्धता भी अभूतपूर्व थी। उनका अनुशासित जीवन एक मिसाल था। उनकी सेवानिवृत्ति के बाद मैंने बतौर जिला न्यायाधीश कार्य संभाला। वे सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद संघ से जुड़ गए थे। हम दोनों अक्सर कई मुद्दों पर विचार साझा करते। इन्हीं मुलाकातों के दौरान मेरे अनेक पूर्वाग्रह दूर हुए, जिनमें संघ से जुड़ीं चंद पूर्वनिर्मित धारणाएं भी थीं। निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा संघ के खिलाफ फैलाए गए दुष्प्रचार को भेद कर सत्य की परतें मेरे सामने खुलने लगी थीं। मैं इस संगठन का प्रशंसक बन गया। विभिन्न विषयों पर निष्पक्ष तरीके से सोचने का मेरा प्रयास जारी रहता ही था। लिहाजा, मैंने ठान लिया कि संघ सहित अन्य संगठनों के खिलाफ पूर्वाग्रही सोच को त्याग दूंगा।
संघ पर लगे महात्मा गांधी की हत्या के आरोप पर जब मैंने गहराई से विचार किया तो मुझे यह बेहद अन्यायपूर्ण और अमानवीय प्रतीत हुआ। मैंने इस बारे में अधिकाधिक जानकारी प्राप्त की। बेशक महात्मा गांधी का हत्यारा एक समय संगठन से जुड़ा था, परंतु इस कारण समूचे अनुशासित संगठन को हत्या का दोषी नहीं कहा जा सकता। एक बार पूर्व सरसंघचालक स्वर्गीय के़ एस़ सुदर्शन जी के साथ चेन्नै से अपने पैतृक निवास तक सफर करने का मुझे अवसर मिला था। उनकी विद्वता और सरल जीवन शैली देखकर मुझे अहसास हुआ कि सादा जीवन और उच्च विचार इस संगठन के सदस्यों की विशेषता है। वे बाइबिल के उपदेश एवं भगवद्गीता के श्लोक से सजे क्रिसमस कार्ड एक-दूसरे को देते। इस जान-पहचान से मुझे संघ को और अधिक समझने का अवसर मिला।
मैं मानता हूं कि संगठन ने सबसे कठोर परीक्षा आपातकाल के दुर्भाग्यपूर्ण दिनों में दी थी, जब इंदिरा गांधी ने संविधान के मूलभूत प्रावधानों पर रोक लगा दी थी। उस समय संघ ही एकमात्र गैर-राजनीतिक संगठन था जो निडरता से काम कर रहा था। इसी की बदौलत तानाशाही का ग्रहण भी हमारे महान राष्ट्र का तेज भंग नहीं कर सका और भारत में नए युग को आगाज हुआ।
संघ को अल्पसंख्यक विरोधी कहना एक बेबुनियाद दुष्प्रचार है। आखिर अल्पसंख्यक किसे कहते हैं? संघ की ही तरह मेरा भी मानना है कि आप जिस भी पंथ से हों, उसके प्रति आप पूर्णत: निष्ठावान रहें। आप जिस पंथ का पालन करते हैं उसे छोड़कर किसी और पंथ के प्रति आपका झुकाव उचित नहीं। मत-पंथों का विविध स्वरूप मानवजाति को ईश्वर की देन है। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में राष्ट्र के प्रति व्यक्ति की निष्ठा और देशभक्ति के सामने उसका पंथ गौण है।
सवाल है कि इस देश में अल्पसंख्यक कौन है? संविधान के 29वें अनुच्छेद में दी गई परिभाषा के अनुसार संस्कृति, भाषा एवं लिपि के आधार पर भारत का कोई भी वर्ग अल्पसंख्यक हो सकता है। सुविधा वंचित समूह भी इस श्रेणी में आ सकते हैं बशर्ते उनकी संख्या कम हो। पंथ के आधार पर अल्पसंख्यकों की परिभाषा सिर्फ अनुच्छेद 30 में दी गई है, वह भी सीमित प्रयोजन के लिए। यदि कोई संविधान का अध्ययन करते समय अनुच्छेद 29 पहले पढ़ता है तो उसे पंथ के नाम पर अल्पसंख्यक वर्ग की परिकल्पना का अंदाजा भी नहीं हो सकेगा। मैं सवार्ेच्च न्यायालय की 11 सदस्यीय खंडपीठ का सदस्य था जिसने पहली बार टी.एम.ए. पै मामले की सुनवाई की थी। उस समय अधिकांश जजों का मानना था कि अनुच्छेद 30 में परिकल्पित शिक्षा पंथनिरपेक्ष होनी चाहिए, न कि व्यावसायिक। परंतु दुर्भाग्यवश हमारी खंडपीठ सुनवाई पूरी न कर सकी और फैसला नहीं हो सका। एक पंथनिरपेक्ष गणतंत्र में किसी व्यक्ति की पहचान बस एक भारतीय के तौर पर होनी चाहिए। डॉ. जाकिर हुसैन के राष्ट्रपति बनने पर टी.वी.आर. शिनॉय ने उन्हें बधाई देते हुए कहा था कि यह पंथनिरपेक्षता की जीत है। इस पर डॉ़ हुसैन के शब्द थे, ''पंथनिरपेक्षता तभी सफल होगी जब आपको मेरे पंथ का पता ही न हो।''
लेखक पद्म भूषण से अलंकृत सवार्ेच्च न्यायालय के
पूर्व न्यायाधीश हैं।
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