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कानपुर रेल हादसे के बाद पूरा देश व्यथित है। ये हादसा देश को कौन सा सबक देगा? बेशक रेलवे के आधुनिकीकरण की न जाने कितनी परियोजनाएं पूरी हो चुकी हैं, लेकिन अब रेल ट्रैक के जाल का विस्तार करने पर ध्यान देना ही होगा।
आर.के. सिन्हा
कानपुर रेल हादसे से सारा देश उदास है। मरने वालों की संख्या 146, घायल 226 हैं जिनमें की कुछ की हालत गंभीर बनी हुई है। इस घटना के बाद से समूचा देश मृतकों को अश्रुपूरित विदाई दे रहा है, लेकिन मांग करने वाले यह मांग कर रहे हैं कि रेल मंत्री इस्तीफा दें। चूंकि, उन्हें रेलवे संजाल के विभिन्न पक्षों के संबंध में या तो अधकचरी जानकारी है या फिर उन्हें अपनी राजनीतिक की रोटी सेंकनी है। अत: वे कुछ भी कह सकते हैं। अभिव्यक्ति की आजादी जो मिली हुई है। लेकिन, याद रखें कि सभी रेल हादसों के मूल में कारण रेल ट्रैकों की भारी कमी और उनपर लगातार बढ़ता बोझ है। रेल ट्रैकों की संख्या में बड़े स्तर पर इजाफा किए बिना हम शायद ही कभी भी रेल हादसे रोक नहीं पाएंगे। अब आप पूछेंगे कि मौजूदा रेल ट्रैकों की संख्या को बढ़ाने में किस स्तर पर अवरोध हैं? उन्हें दूर क्यों नहीं किया जाता? आपके प्रश्न उचित हैं। कोई भी शख्स ये सवाल तो पूछेगा ही। लेकिन, जब तक भूमि अधिग्रहण बिल संसद से पारित नहीं हो जाता तब तक रेलवे के नए ट्रैक बनेंगे कहां से? और जरा गौर कीजिए कि कानपुर हादसे के बाद रेल मंत्री से इस्तीफा मांगने वाले वे ही महानुभाव हैं जो भूमि अधिग्रहण बिल का संसद में तगड़ा विरोध कर रहे थे। आजादी के वक्त देश की आबादी मात्र 33 करोड़ थी। आज सवा सौ करोड़ है। पहले लोग इक्का-दुक्का ही जरूरत पड़ने पर ही सफर किया करते थे। कलकत्ता में काम करने वाले हमारे गांव के ज्यादातर नवयुवक या तो ईद पर गांव आते थे या फिर होली पर। अब तो हर महीने आते हैं, कभी-कभी दो बार। पहले छात्र राज्यों के बाहर कम ही पढ़ने के लिए जाते थे। अब तो छात्र-छात्राएं सभी धड़ल्ले से बाहर जाते हैं। बचपन में पटना से दिल्ली और कलकत्ते के लिए एक-एक ट्रेनें ही जाती थी, अब दर्जनों में है।
कायदे से देश भर में कम से कम छह या सात रेल ट्रैक हर जगह बनने चाहिए। दो यात्री गाडि़यों के लिए एक अप और एक डाउन ट्रैक। इसी प्रकार दो मालगाडि़यों के वास्ते। पांचवा सेना, पुलिस बल, राहत कार्य ट्रैक निरीक्षण आदि के लिए आपातकाल ट्रैक। छठा, जिस पर बारी-बारी से निरंतर मेटिनेंस कार्य जारी रहे। क्या ये सब हम करने की स्थिति में हैं? अगर नहीं हैं तो हमें ये सब करने के लिए संसाधन जुटाने ही होंगे। क्योंकि, सिर्फ दो ट्रैकों पर रोज करोड़ों मुसाफिरों को उनके गंतव्य स्थल पर सुरक्षित पहुंचाने से लेकर लाखों टन सामान से लदी मालगाडि़यों की आवाजाही करना संभव नहीं है। ट्रैकों का तो कचूमर निकल गया है। यदि हम यह सब कर रहे हैं तो इसका मतलब स्पष्ट है कि हम अपने रेल संजाल के साथ न्याय नहीं कर रहे और यात्रियों की जिन्द्गी से खिलवाड़ कर रहें हैं।
रेल और गोरे
अंग्रेजों ने भारत में रेल सेवा की शुरुआत 16 अप्रैल 1853 को अपने लाभ के लिए की थी न कि भारत की जनता के लिए। अंग्रेजों ने बम्बई, कोलकाता, मद्रास को रेल संजाल से जोड़ा, ताकि गोरे वहां के बंदरगाहों से कोयला, लौह अयस्क और अन्य खनिज, कपास कपड़े, सोना-चांदी आदि दूसरा सामान ब्रिटेन भेज सकें। गोरे तो यात्री रेल से ज्यादा माल गाड़ी के संजाल को लेकर गंभीर थे। देश की आजादी से पहले आमतौर पर मालगाड़ी में ही कुछ डिब्बे जोड़ दिए जाते थे जिसमें बड़े अंग्रेज अफसर या राजे-रजवाड़े सफर करते थे। ये सैलूननुमा होते थे। उन्होंने सामान्य आम हिन्दुस्थानी के हित की तो कभी नहीं सोची।
चीन से सुस्त
अब करीब 16 लाख कर्मचारियों, प्रतिदिन चलने वाली 11 हजार ट्रेनों, 7 हजार से अधिक स्टेशनों एवं करीब 65 हजार किलोमीटर रेलमार्ग के साथ भारतीय रेल संजाल पहली नजर में बहुत विशाल लगता है। इसमें कोई विवाद भी नहीं हो सकता। लेकिन, हमें अपनी रेल की रफ्तार की चीन से भी तुलना कर लेनी चाहिए। चीन का रेल संजाल महज 27 हजार किमी़ लंबा था 1947 तक। लेकिन अब 78 हजार किलोमीटर हो गया यानी कि 188 प्रतिशत की वृद्धि। भारत में 1947 में रेल लाईनंे 5 हजार किलोमीटर थीं। आज भारत में 64 हजार किलोमीटर रेल ट्रैक है। यानी मात्र 16 प्रतिशत की वृद्धि। चीन का ध्यान रहता है अपने ट्रैकों के विस्तार करने में। हमने 70 साल में क्या किया? कौन जवाब देगा इसका? बेशक, भारत में तकनीक का तो विकास हुआ, यात्रियों की संख्या भी बढ़ी, लेकिन ट्रैक निर्माण में वृद्धि नहीं हुई। ये गंभीर मसला है। आंकड़े बताते हैं कि 1980 में जहां 61,240 हजार किलोमीटर रेलवे का संजाल था, वहीं 2012 में 64,600 हजार किलोमीटर। यानी 32 साल में महज 3,360 किलोमीटर ही रेल लाइन को बिछाने में कामयाबी मिली। इतना ही नहीं 20,275 किमी. पर ही इलेक्ट्रिक ट्रेन दौड़ती हंै, जो कुल संजाल का महज 32 फीसद ही है जबकि यात्रियों की संख्या में वेतहाशा वृद्धि हो रही है।
इस बीच, भूमि अधिग्रहण बिल को कानून का स्वरूप मिलने में मालूम नहीं कि कितना वक्त और लगेगा। ये भी कहा नहीं जा सकता कि हमारा विपक्ष इसे कानूनी जामा पहनाने में कितना सरकार का साथ देता है। पर रेल मंत्रालय अब ट्रैक बिछाने में भी तेजी ला रहा है। रेल विभाग हर दिन 19 किलोमीटर ट्रैक बिछाने लगा है। यानी सालाना 6965 किलोमीटर रेल ट्रैक की लंबाई बढ़ेगी। अगर इस लक्ष्य को हासिल कर लिया जाता है तो अगले चार वषोंर् में भारत के अनेक प्रमुख इलाकों तक ट्रेन पहुंच जाएगी। पर इतना भी काफी नहीं है। देश का लक्ष्य तो ट्रैकों का विस्तार करना होना चाहिए। सिर्फ दो साल पहले यानी वर्ष 2014 तक हर दिन 4-5 किलोमीटर ही ट्रैक बिछाए जाते थे। जाहिर है, ट्रैकों के फैलाव के स्तर पर हमारी गति शर्मनाक रही है।
गति से संबंध
समझ लेना चाहिए कि ट्रैकों का जाल फैलाना और रेलों की गति का सीधा संबंध है। देश को ट्रेनों की गति बढ़ाने की जरूरत है। क्योंकि ट्रेनों की गति से व्यक्ति और देश दोनों की गति जुड़ी है। लोग जब जल्दी अपनी मंजिल तक पहुंचेंगे तो उनके कामकाज में तेजी आएगी जिसका सीधा फायदा देश को मिलेगा।
एक बात मुझे और समझ नहीं आ रही कि रेलवे ने अपने कामकाज में सुधार के लिए बीते कुछ सालों के दौरान राकेश मोहन, बिबेक देबराय, सैम पित्रोदा के नेतृत्व में समितियां बनाईं। इन सबने रेलवे के आधुनिकीकरण, सुरक्षा, सेवा, आपूर्ति, प्रतिस्पर्धा का मुकाबला करने, मैनेजमेंट, दूसरे बिन्दुओं पर सरकार को अपनी गहन रिपोर्ट सौंपीं। कई सिफारिशें कीं। पर हैरानी होती है कि किसी ने भी रेल ट्रैकों के जाल का तेजी से विस्तार करने के संबंध में सरकार को कोई खास सिफारिशें नहीं कीं। बिना ट्रैक बढ़ाये सुरक्षा कैसे सुनिश्चित हो सकती है।
कानपुर हादसे के बाद पूरा देश व्यथित है। ये हादसा देश को कौन सा सबका देगा? ये वक्त बताएगा। बेशक रेलवे के आधुनिकीकरण की न जाने कितनी परियोजनाएं पूरी हो चुकी हैं, लेकिन अब रेल ट्रैक के जाल का विस्तार करने पर ध्यान देगा होगा। कानपुर की रेल दुर्घटना डाइवर की लापरवाही से नहीं बल्कि ऊपर के अधिकारियों की लापरवाही से हुई। यह मैं अखबारों में छपी रिपोटोंर् के आधार पर कह रहा हूं। जब ट्रेन झांसी से कानपुर के लिए रवाना हुई तब कुछ देर बाद ही एक बोगी में झटके आने लगे और विचित्र प्रकार की आवाजें आने लगीं। ड्राईवर ने कई बार ट्रेन रोकी, समझने की कोशिश की। जब खराबी समझ में नहीं आई तो ऊपर के अधिकारियों को समस्या बताई। ऊपर से आदेश मिला कि कानपुर सेन्ट्रल स्टेशन पहुँचकर कर मरम्मत करवाओ। काश ऐसा आदेश देने वाले अधिकारी ने एक पल यह भी सोच लिया होता कि उसके लापरवाहीपूर्ण आदेश का क्या परिणाम हो सकता है। ल्ल
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