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पश्चिम की लोकोक्ति है- 'मौके बहुत हौले से दस्तक देते हैं इसलिए इन्हें सुनना सीखिए।' यानी अवसर को नहीं पहचानना व्यक्ति के लिए पिछ़ड़ने और पछताने का कारण बनता है।
कहावतों का कोई एक भूगोल नहीं होता इसलिए बात पश्चिम में सही है तो पूरब में भी सही है। भारतीय राजनीति और राष्ट्रीय आवश्यकता के क्षितिज द्वार पर कुछ मौके लंबे समय से थे। कमाल की बात यह कि इनकी पदचाप भी हल्की नहीं थी बल्कि पूरे माहौल में गड़गड़ा रही थी। लेकिन जिसने 'ना सुनने' की ठान ली हो, उसे कौन सुनाए! अनसुनी करने वालों ने पिछड़ना ही था। दो बरस पहले संप्रग सरकार ने जिन मुद्दों को खो दिया वही मुद्दे वर्तमान राजग सरकार के पक्ष में हर्ष-कोलाहल की लहरें उठा रहे हैं।
जाकिर नाईक की घेराबंदी और कालेधन की रोकधाम के लिए बड़े नोटों को बंद करने का फैसला कुछ ऐसे ही उदाहरण हैं। देश की जड़ें खोखली करने वालों से निबटने के तौर-तरीकों में तब और अब क्या अंतर है? जो अंतर है, वह साफ दिख भी रहा है।
नोटबंदी की दिशा में बढ़ने की बात तब भी सोची गई थी। कारण यही थे। आयकर विभाग (इसे आप पूरी कर व्यवस्था भी पढ़ सकते हैं) को बौना साबित करते कालेधन का पहाड़ और रिजर्व बैंक को फर्जी देनदारियों के बोझ से पस्त करते पाकिस्तान में छपे नकली नोटों का और क्या तोड़ हो सकता था? करना तब भी यही था मगर सूत्र बताते हैं कि पी. चिदंबरम के वित्त मंत्री रहते इस दिशा में कदम बढ़ाने की बात पहले ही 'लीक' हो गई। ऐसा नहीं है कि यही फैसला संप्रग सरकार करती तो लोग ज्यादा परेशान या नाराज होते। समाज का अधिकांश वर्ग अगर आज सुकून अनुभव कर रहा है और इस कारण एटीएम कतारों में भी संयम का परिचय दे रहा है तो भारत के लोगों की पहले भी यही प्रतिक्रिया होनी थी। लेकिन तब जनता में जहां साहसिक निर्णय देखने की इच्छा थी,
वहां भ्रष्टाचार की सड़ांध और राजनीतिक इच्छाशक्तिकी छीजन दिखी।
इसी तरह दूसरा मामला जाकिर नाईक का है जिसके लिए नाहक ही 'उपदेशक ' जैसे सकारात्मक शब्द को गलत जगह प्रयुक्त किया जा रहा है। घोर नकारात्मकता, अन्य धर्म-पंथों के लिए विषैला भाव…जाकिर की क्या यही पहचान तब नहीं थी? क्या 'पीस टीवी' वास्तव में शांति की बात करता था? 'हार्मनी मीडिया' ने इस्लाम से इतर आस्था रखने वालों के लिए तब कौन-सी सद्भावना और सहिष्णुता का भाव जताया था? आज राष्ट्रीय जांच एजेंसी जाकिर के विभिन्न ठिकानों, उसके एनजीओ और करीबियों पर छापेमारी कर रही है तो उसकी वजहें पुरानी हैं। यही तो चल रहा था। सब देख रहे थे। इस्लामी उन्मादियों को प्रेरणा (जैसा कि बांग्लादेश में 'काफिरों' को कत्ल करते आतंकियों को देखने और उनके बयानों से पता चला) मिल रही थी। बाकी लोग घुट रहे थे, कुढ़ रहे थे, गुस्से से उबल रहे थे। जाकिर की जहरीली बातों का समय पर इलाज होता तो जनता के गुस्से पर संतोष के छींटे ऐसी ही राहत देते लेकिन तब संप्रग सरकार तुष्टीकरण का कंबल ताने सोती रही। बटला हाउस पर 'आंसू बहाने' और जाकिर के मंच पर चढ़कर उसकी तारीफ करने वालों के पास जनता का हाल जानने की फुरसत कहां थी?
समय निकल गया। जो मौके संप्रग के पास थे वे राजग के पास आए। ये सिर्फ कोरे अवसर नहीं थे, पारदर्शिता और प्रबल इच्छाशक्ति की ऐसी अग्निपरीक्षा इनके साथ थी जो किसी भी राजनैतिक नेतृत्व को बेचैन करने के लिए काफी थी।
बेचैनी को झटकते हुए नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने जनता की उम्मीदों को पहचाना और राष्ट्र के लिए चुनौती बनती समस्याओं को ऐसे अवसरों में बदल दिया। उनके विरोधी चित हैं, हांफ रहे हैं, चिल्ला रहे हैं। पर जनता राहत की सांस ले रही है।
एक कहावत भारत में भी है—मौका चूके इनसान और डाल से चूके बंदर, दोनों का हाल बुरा होता है। हाल किसका बुरा है, कितना बुरा और हो सकता है, देखते जाइए।
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