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भारत की तरह इस्रायल भी पूरी दमदारी से इस्लामी कट्टरवाद से लोहा ले रहा है। आतंक के खिलाफ दोनों देशों के बीच तकनीकी और सैन्य सहयोग काफी अहम माना जा रहा है
सुधेन्दु ओझा
इस्रायल के राष्ट्रपति रेउवेन रिवलिन की छह दिवसीय भारत यात्रा, दोनों देशों के बढ़ते संबंधों की दिशा में एक और ठोस कदम है। कुल लगभग 85 लाख 400 लोगों की अनुमानित जनसंख्या वाला यह देश मध्य एशिया में अपने धुर विरोधी मुस्लिम देशों लेबनान, सीरिया, जॉर्डन और मिस्र से घिरा हुआ है। देश की लगभग 75 फीसद जनसंख्या यहूदी मत को मानने वाली है, 20 फीसद अरब मुस्लिम हैं जबकि 5 फीसद जनसंख्या अन्य मतावलंबियों की है। भारत की तरह इस्रायल भी शत्रु राष्ट्रों से घिरा हुआ है। राजधानी तेल अवीव को फिलिस्तीनी आतंकवाद की त्रासदी की मार रह-रहकर झेलनी पड़ती है। किन्तु, इन विकट स्थितियों को सफलतापूर्वक कुचलते हुए इस्रायल न केवल अपने स्वतंत्र अस्तित्व को बनाए रखने में कामयाब हुआ है बल्कि उसने अपने से कई गुना अधिक समर्थ एवं शक्तिशाली अरब सेनाओं को हर युद्ध में कड़ी पराजय भी दी है।
वर्तमान में भारत और इस्रायल के सामने पेश चुनौतियां बहुत कुछ समानता लिए हुए हैं। दोनों देशों के बीच 1992 में कूटनीतिक संबंध स्थापित होने के बाद रिवलिन भारत आने वाले दूसरे इस्रायली राष्ट्रपति हैं। 20 वर्ष पहले 1996-97 में पूर्व राष्ट्रपति एजेर वेइजमैन भारत आए थे। रिवलिन के साथ आने वाले प्रतिनिधिमंडल में कारोबार और शिक्षा जगत के प्रमुख लोग शामिल थे। विदेशी मामलों के जानकारों के अनुसार इस्रायली राष्ट्रपति की भारत यात्रा, प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के प्रस्तावित इस्रायल दौरे के संदर्भ में काफी महत्वपूर्ण है। हथियारों के निर्माण में प्रधानमंत्री मोदी के मेक इन इंडिया कार्यक्रम से इस्रायल ने अपनी पूरी प्रतिबद्धता प्रकट की है। वहीं भारत में इस्रायली राजदूत ने इन परस्पर दृढ़ होते सम्बन्धों पर हर्ष प्रकट किया है।
यहां ध्यान देने योग्य यह बात है कि 1992 तक भारत तथा इस्रायल के मध्य किसी प्रकार के संबंध नहीं थे। हालांकि इस्रायल के स्थापना के बाद तत्कालीन जवाहर लाल नेहरू सरकार ने उसे 1950 में मान्यता दे दी थी, लेकिन फिलिस्तीन पर कब्जे और वहां से विस्थापन के प्रश्न पर मतभेदों के कारण यह संबंध वहीं जड़ हो गया था। बाद के वषोंर् में अरब-इस्रायल युद्धों में नए क्षेत्रों पर इस्रायल के कब्जे को लेकर मतभेद के कारण दोनों देशों के संबंधों में कोई प्रगति नहीं हुई। भारत एक गुट निरपेक्ष राष्ट्र था और पूर्व सोवियत संघ का समर्थक था तथा दूसरे गुट निरपेक्ष राष्ट्रों की तरह इस्रायल को मान्यता नहीं देता था। वह फिलिस्तीन की आजादी का भी समर्थक था परन्तु 1989 में कश्मीर में अलगाववाद उभरने, सोवियत संघ के पतन तथा पाकिस्तान की गैर कानूनी घुसपैठ के चलते राजनीतिक परिवेश में परिवर्तन आया और भारत ने अपनी सोच को बदलते हुए इस्रायल के साथ संबंधांे को मजबूत करने पर जोर दिया।
संबंधों की राह
अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बनने के बाद भारत और इस्रायल के मध्य सहयोग बढ़ा। इस्लामिक कट्टरपंथ के प्रति एक जैसी सोच होने तथा मध्य-पूर्व एशिया में यहूदी समर्थक नीति की वजह से दोनों देशों के संबंध प्रगाढ़ हुए। अगर कारोबारी रिश्तों पर नजर डालें तो 1992 में दोनों देशों के बीच होने वाला व्यापार महज 20 करोड़ डॉलर था जो 2013 तक बढ़कर 4़34 अरब डॉलर हो गया था। इस्रायल भारत के रक्षा उपकरणों के बड़े आपूर्तिकर्ता के रूप में भी उभरा है। सन् 2000 में जसवंत सिंह इस्रायल जाने वाले पहले विदेश मंत्री बने। आज यह देश, रक्षा सौदों में रूस और अमेरिका के बाद भारत का सबसे बड़ा सैन्य सहायक और निर्यातक है।
अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञ भारत में चुनाव परिणाम आने से पहले ही अनुमान लगा रहे थे कि दोनों देशों के बीच रक्षा समझौतों, विशेषकर सैन्य करारों को बढ़ावा मिलेगा। राष्ट्रपति रिवलिन की यात्रा से ऐसा ही हुआ है। पूर्व की भांति दोनों देशों के नेता मौजूदा संबंधों की मजबूती के बारे में बात करने में अब संकोच नहीं दिखाते। भारत में इस्रायली राजदूत डेनियल कारमोन ने पिछले साल मार्च में दोनों देशों के बीच बढ़ते सैन्य संबंधों के बारे में कहा था- ''हमें न तो संकोच है, न ही हम इन बढ़ते संबंधों से शमिंर्दा हैं।''
इस्रायल के वित्त मंत्री मोशे यालून ने फरवरी 2015 में भारत का दौरा किया था। उन्होंने उस दौरान माना था कि इस्रायल के सैन्य उद्योग के लिहाज से भारत विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। उन्होंने भारत के साथ तकनीकी दक्षता और विशेषज्ञता क्षेत्र में सहयोग करने की इच्छा भी जताई थी। एक अनुमान के अनुसार बीते एक दशक के दौरान दोनों देशों के बीच करीब 670 अरब रुपए का कारोबार हुआ है। वर्तमान में भारत इस्रायल से सालाना करीब 67 अरब से 100 अरब रुपए के सैन्य उत्पाद आयात कर रहा है। ये आंकड़े तब और अधिक महत्वपूर्ण लगते हैं जब इस तथ्य की ओर ध्यान जाता है कि दोनों देशों के बीच कूटनीतिक संबंधों की शुरुआत ही जनवरी, 1992 में हुई थी।
संकट में दिया साथ
यहां इस बात का उल्लेख आवश्यक है कि 1999 के कारगिल युद्ध के दौरान इस्तेमाल किए गए लेजर गाइडेड बम और मानवरहित खोजी विमानों को भारत ने आपात स्थिति में इस्रायल से ही प्राप्त किया था। संकट के समय भारत के अनुरोध पर इस्रायल की त्वरित प्रतिक्रिया ने उसे भारत के लिए भरोसेमंद हथियार आपूर्ति करने वाले देश के बतौर स्थापित किया। मौजूदा समय में इस्रायल भारत को मिसाइल, एंटी मिसाइल सिस्टम, यूएवी, टोही तकनीक, इलेक्ट्रॉनिक वारफेयर सिस्टम, युद्धक विमानों में इस्तेमाल होने वाली तकनीक और गोला-बारूद बड़ी मात्रा में निर्यात कर रहा है।
भारत के रक्षा बाजार में इस्रायल की महत्ता उस सौदे से भी जाहिर होती है, जब भारत को मई, 2009 और मार्च, 2010 में 73़ 7 अरब रुपए में रूस में निर्मित युद्धक विमान इल्यूशिन-76 के लिए फाल्कन एयरबोर्न वार्निंग एंड कंट्रोल सिस्टम (अवाक्स) बेचा था।
वर्तमान में भारतीय वायु सेना के पास तीन ऑपरेशनल अवाक्स मौजूद हैं, इसके अलावा दो अन्य के जल्दी ही भारतीय वायु सेना में शामिल होने की उम्मीद है। उल्लेखनीय है कि अमेरिका ने यह तकनीक चीन को हस्तांतरित नहीं होने दी थी।
2014 से अब तक गत दो वषोंर् के दौरान, दोनों देशों के बीच कई महत्वपूर्ण सैन्य समझौते हुए हैं। सत्ता में आने के कुछ ही समय बाद सितंबर, 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार ने इस्रायली एयरोस्पेस इंडस्ट्री का बराक एंटी मिसाइल डिफेंस सिस्टम खरीदने की घोषणा की थी, यह सबसे महत्वपूर्ण समझौतों में से एक है। शत्रु देशों की मिसाइलों को नाकाम करने की दिशा में इस प्रणाली की महत्वपूर्ण भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। इस खरीदारी के लिए भारत को करीब 965 करोड़ रुपए चुकाने होंगे, विशेषज्ञों के अनुसार पिछली यूपीए सरकार इस समझौते से पीछे हट गई थी। लेकिन मौजूदा सरकार भारत की सैन्य रक्षा क्षमताओं को बढ़ाने पर जोर दे रही है। भारतीय सेना ने 8,356 इस्रायल निर्मित स्पाइक एंटी टैंक गाइडेड मिसाइल (एटीजीएम) और 321 लांचर 52़5 करोड़ डालर में खरीदने का फैसला लिया है और 2,680 करोड़ रुपए मूल्य की 10 हेरन टीपी यूएवी (मानवरहित हवाई वाहन) खरीदने की भी घोषणा की है। इसकी मदद से भारतीय सेना की दुर्गम क्षेत्रों में निगरानी करने और टोह लेने की क्षमता काफी बढ़ जाएगी। भारतीय सेनाएं आज भी निगरानी और टोह के लिए इस्रायल निर्मित 176 ड्रोन का इस्तेमाल कर रही हैं। इसके अलावा भारतीय वायु सेना के पास आईएआई निर्मित हार्पी ड्रोन भी हैं। इन परंपरागत सैन्य उपकरणों के साथ-साथ भारत-पाकिस्तान सीमा पर बाड़ लगाने से संबंधी तकनीक का भी इस्रायल से आयात किया जा रहा है। इसका इस्तेमाल जम्मू और कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर किया जाएगा।
साझे सुरक्षा हित
गृह मंत्री राजनाथ सिंह के नवंबर, 2014 के इस्रायली दौरे के समय इस्रायली प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने कहा था कि उनका देश भारत के साथ सीमा सुरक्षा तकनीकें साझा करने के लिए तैयार है। सीमा पार से घुसपैठ के बढ़ते मामले को देखते हुए भारत सरकार को इस दिशा में इस्रायल से ज्यादा सहयोग की उम्मीद है।
इसके अलावा भारत और इस्रायली सैन्य कारोबार में सह उत्पादन और संयुक्त उपक्रम अन्य महत्वपूर्ण पहलू हैं। यह लंबी और मध्य दूरी तक मार करने वाले एयर मिसाइल, ईडब्ल्यूएस, अन्य हवाई सामरिक उपकरणों के विकास के पीछे भारत के डिफेंस रिसर्च ऐंड डेवेलपमेंट आर्गेनाइजेशन (डीआरडीओ) और इस्रायली एयरोस्पेस इंडस्ट्री एवं कुछ अन्य इस्रायली फर्मों के मध्य होने वाला सहयोग है। हाल ही में दोनों देशों के संयुक्त उपक्रम को तब बड़ी कामयाबी मिली जब दोनों द्वारा विकसित बराक-8 एलआर-एसएएम (70 किलोमीटर की रेंज वाली) मिसाइल का दिसंबर, 2015 में सफलतापूर्वक प्रक्षेपण किया गया। अब इस बात की संभावना है कि दूसरे देश भी भारत और इस्रायल से ये मिसाइल खरीद सकते हैं। निस्संदेह भारत-इस्रायल के बीच सैन्य कारोबार का भविष्य काफी उज्जवल है और इसके बढ़ने की उम्मीद है। भारत की इस्रायल के साथ बढ़ती मित्रता, उसके मित्र मुस्लिम राष्ट्रों के लिए तकलीफदेह हो सकती है। ईरान इनमें प्रमुख है। यह तो निश्चित है कि किसी राष्ट्र के अंतरराष्ट्रीय संबंध किसी एक देश की सहूलियत के अनुसार नहीं चलते, किन्तु उनमें बराबर सामंजस्य बनाए रखने की आवश्यकता से भी इनकार नहीं किया जा सकता। और भारत इन चुनौतियों को नजरअंदाज नहीं कर सकता।
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