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सूचना प्रसारण मंत्रालय द्वारा एनडीटीवी इंडिया पर पहले एक दिन के प्रतिबंध की घोषणा और फिर इसपर अमल को स्थगित करने के दौरान सोशल मीडिया में एक प्रतिक्रियात्मक उफान दिखा. मुख्यधारा के मीडिया को डपटती, व्यंग्य करती आईना दिखाती यह प्रतिक्रियाएं इसलिए खास हैं क्योंकि इनमें गैर जिम्मेदार बताए जाते सोशल मीडिया का एक अलग रूप है. क्या आम लोग या मीडियाकर्मी उस पत्रकारिता को राह दिखाने आगे आने लगे हैं जिसकी प्रतिष्ठा को पैंदे में बैठाने का काम खुद प्रतिष्ठित पत्रकारों या चैनलों ने किया!
अश्वनी मिश्र
नडीटीवी इंडिया में काम कर चुके प्रखर श्रीवास्तव की तीखी फेसबुक पोस्ट एनडीटीवी के साथ उनके एक ऐसे अनुभव से जुड़ी थी जिसने आम जन को पत्रकारीय ताकत का अनुभव कराने वाले सोशल मीडिया के चबूतरे पर देखते-देखते प्रतिक्रियाओं की तरंगें पैदा कर दीं। सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा चैनल पर एक दिन के आंशिक प्रतिबंध की घोषणा के बाद आपबीती बताते हुए उन्होंने लिखा,''#ठऊळश् इंडिया पर बैन के खिलाफ कई पत्रकार अपनी आवाज उठा रहे हैं… लेकिन जो इस चैनल को करीब से जानता है और जो यहां काम कर चुका है, वह मुश्किल से ही सरकार के फैसले के विरोध में खड़ा होगा। मैं इन्हीं में से एक हूं।… मैंने चैनल में करीब 15 महीने काम किया है और इसी दौरान मुंबई में 26/11 हमला हुआ था। मैं उस रात ऑफिस में डेस्क पर काम कर रहा था। ताज होटल में भयंकर गोलीबारी हो रही थी। तभी रात को 3 बजे चैनल के सबसे वरिष्ठ संवाददाता का मुंबई से फोन आया जो हमले को कवर कर रहे थे। उन्होंने फोन पर कहा कि एक आतंकी को सुरक्षाबलों ने सुरक्षित बाहर जाने का रास्ता दे दिया है। मैंने उसे बाहर जाते देखा है। इस खबर को अभी चलाओ। लेकिन मुझे लगा इसे चलाना ठीक नहीं है। मैंने चैनल के कार्यकारी संपादक से बात की उन्होंने भी यही कहा कि इसे अभी चलाओ। मैंने विरोध किया कि ये खबर मुझे ठीक नहीं लगती। लेकिन बॉस के दबाव में खबर चलानी पड़ी। …आज तक मुझे लगता है कि यह खबर झूठी है और सुरक्षा बलों का मनोबल तोड़ने और देश को शर्मिदा करने वाली थी। इसलिए इस चैनल के जो पत्रकार खुद को पीडि़त बता रहे हैं, बार-बार दुहाई दे रहे हैं कि हम सच्ची पत्रकारिता करते हैं और इसलिए हमारे चैनल को यह सजा मिली है। तब ऐसे में ये बताना जरूरी है कि यह सच नहीं है।''
ये चौंकाऊ खुलासा एक पूर्णकालिक पत्रकार को संभवत: जल्दी ही झकझोरने लगा। पोस्ट डिलीट कर दी गई लेकिन इससे पहले इसके स्क्रीन शॉट तेजी से साझा होने लगे।
सोशल मीडिया प्रतिक्रियाओं का सागर है। जिस लहर को आप किनारे पर खत्म हुआ मान लेते हैं थोड़ी ही देर बाद उसका अंतहीन सिलसिला देखने को मिलता है।
प्रतिबंध पर राहुल सिंगला की राय थी कि ''एनडीटीवी को तो पूरी तरह बंद कर देना चाहिए, हमें इसकी जरूरत नहीं है।'' आलोक वर्मा गुस्से में जरा ज्यादा ही भन्नाए दिखे। उन्होंने अपने फेसबुक वॉल पर लिखा,''पत्रकारिता जगत पर काले धब्बे जैसा है एनडीटीवी।'' सोशल मीडिया पर हजारों की तादाद में टिप्पणियों की भरमार है जो मंत्रालय की ओर से चैनल पर लगाए गए एक दिन के प्रतिबंध को जायज ठहराती और मीडिया की खास मौकों पर 'अतिस्वतंत्रता' पर प्रश्न खड़े करती नजर आती हैं।
चैनल के प्रसारण पर प्रतिबंध के पीछे मंत्रालय की अंतर मंत्रिस्तरीय समिति ने पठानकोट हवाई अड्डे पर हुए आतंकवादी हमले की कवरेज के दौरान संवेदनशील व गोपनीय जानकारियों के प्रसारण का आधार दिया था। यह प्रसारण नियमों का साफ उल्लंघन था। हालांकि मंत्रालय ने मामले की समीक्षा तक चैनल के प्रतिबंध को स्थगित करने का भी आदेश पारित किया है।
लेकिन इस पूरे घटनाक्रम पर सोशल मीडिया में जबरदस्त प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है। मीडिया के कुछ कोनों से चैनल के पक्ष में और प्रतिबंध के विरुद्ध स्वर उठे तो सोशल मीडिया पर गैर पत्रकारों ने मीडिया मठाधीशों को ही कठघरे में खड़ा करना शुरू कर दिया।
चैनल के समर्थन में पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने लिखा,''भारत के सबसे संयमित और जिम्मेदार चैनलों में से एक एनडीटीवी इंडिया को प्रसारण मंत्रालय एक दिन के लिए बंद कर रहा है। आज एनडीटीवी है, कल कौन होगा?'' प्रश्नों की जंग सिर्फ पत्रकारों में नहीं थी। पेशे से व्यवसायी जसप्रीत सिंह ने फेसबुक पर लिखा,''एनडीटीवी पर एक दिन के प्रतिबंध की मैं कड़ी निंदा करता हूं… मैं एनडीटीवी पर स्थायी तौर पर प्रतिबंध लगाने की मांग करता हूं।'' वामपंथी पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन ने ट्वीट दागा,'' चैनल पर सरकार का एक दिन का प्रतिबंध सरकार की मनमानी और ताकत का दुर्भावनापूर्ण उपयोग है। एनडीटीवी को इसे अदालत में चुनौती देनी चाहिए। ''
@sirjadeja हैंडल के ट्वीट में ऐसे तकार्ें का सटीक जवाब था। लिखा गया, ''प्रिय रवीश कुमार, अगर आपको लगता है कि एनडीटीवी को बैन करने की बात गलत है तो आप तथ्यों के साथ न्यायालय में चुनौती दीजिए। सहानुभूति पाने के लिए इस बैन को फ्रीडम ऑफ स्पीच पर बैन की तरह मत पेश कीजिए। '' जिस समय मीडिया स्वतंत्रता और स्वच्छंदता की इस बहस में झूल रहा हो ऐसे में यह सवाल महत्वपूर्ण हो जाता है कि मीडिया की अतस्वितंत्रता, पूर्वाग्रह और आत्ममुग्धता आकिर किसके लिए खतरनाक है। मीडिया विशेषज्ञ सुभाष सूद कहते हैं, ''सरकार द्वारा प्रतिबंध से मीडिया की भवें तनना एक बात है लेकिन सोशल मीडिया पर जनता की ऐसी प्रतक्रियिाओं से उसे जागना चाहिए। अगर नहीं जागे तो ऐसी लंबी नींद के लिए तैयार रहिए जिससे बाहर आना आपके बस में नहीं होगा। मीडिया ने अपना एजेंडा चलाया और जनभावना की अनदेखी की तो जनता इसे खारिज कर देगी।'' सूद मीडिया के प्रति जनता के जिस अनदेखे क्षोभ का उल्लेख कर रहे थे वह दल्लिी वश्विद्यिालय में पढ़ रहे अभिषेक रंजन के फेसबुक वॉल पर मौजूद था- ''अगर न्यायालय जाएंगे तो एक्सपोज हो जाएंगे। फ्रीडम ऑफ एक्सपे्रशन का गाना गाएंगे और सहानुभूति बटोरने की कोशिश करेंगे। बिना लगाम के घोड़े कब तक लोकतंत्र और देश की सुरक्षा को रौंदते रहेंगे?''
जितेन्द्र सिंह की फेसबुक वॉल पर यह आक्रोश और गहरा हो गया। संदेश था- ''रवीश कुमार और एनडीटीवी पर बैन से काम नहीं चलेगा। इन पर देशद्रोह का मुकदमा चले।'' मामले को बढ़ते देख सूचना और प्रसारण मंत्री वेंकैया नायडू ने अपने एक बयान में इस पूरे प्रकरण पर कहा ''एक चैनल पर प्रतिबंध की आलोचना राजनीति से प्रेरित है और एक दिन के लिए चैनल बंद करने की कार्रवाई देश की सुरक्षा को ध्यान में रखकर उठाया गया कदम है।''गौरतलब है कि सूचना प्रसारण मंत्रालय ने जून, 2015 में प्रोग्राम कोड में संशोधन करके एक नियम को जोड़ा था। नियम में था कि जब तक आतंकियों के खिलाफ ऑपरेशन खत्म नहीं हो जाता तब तक सरकारी प्रवक्ता जो जानकारी देंगे, मीडिया बस उसे ही प्रसारित कर सकता है। लेकिन चैनल ने इस नियम को दरकिनार किया और 'मीडिया गाइड लाइन' को भुलाते हुए गोपनीय जानकारियों का प्रसारण किया।
सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता सार्थक चतुर्वेदी सोशल मीडिया में लिखते हैं,'' चैनल ने जिन जानकारियों को उजागर किया इसमें बिलकुल भी संदेह नहीं कि वह जानकारी आतंकियों के लिए मददगार साबित हुई हों।'' पठानकोट हमले के बाद दर्शकों ने चैनल की तीखी आलोचना की थी और ट्वीटर पर '#एनडीटीवी बैन' टें्रड किया था। जबकि यह पहला मौका नहीं था जब दर्शकों द्वारा चैनल की रर्पिोटिंग पर सवालिया निशान लगाया गया हो। इससे पहले भी इस पर सवालिया निशान लगते रहे हैं। हाल ही में आतंकी बुरहान वानी की मौत के बाद कश्मीर के हालात पर भी चैनल को एकतरफा रिपोर्टिंग करने के कारण विरोध का सामना करना पड़ा था। हालांकि मंत्रालय के बैन की घोषणा के बाद एक तबके ने इसे 'बोलने की स्वतंत्रता' से जोड़कर आपातकाल तक बोल दिया। जबकि यह पहला मौका नहीं था जब सरकार की ओर से किसी चैनल को प्रतिबंधित करने की बात कही गई हो। इससे पहले भी संप्रग सरकार ने कई बार विभन्नि चैनलों को अभद्र भाषा के चलते प्रतिबंधित किया था। बहरहाल, इस प्रकरण के दौरान सोशल मीडिया ने प्रमुख धारा की मीडिया और उसके कुछ तथाकथित पत्रकारों को सर्फि आईना ही नहीं दिखाया है बल्कि उनके गलत तकार्ें को जमकर काटा भी है। पत्रकारिता के ऐसे दौर में जब मीडिया पर 'सुपारी पत्रकारिता' के लांछन तक लगे हों तब तकनीक से लैस दर्शक, पाठक या 'श्रोता' का 'सरौता' हो जाना अपने आप में दिलचस्प बदलाव है।
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