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इस सप्ताह की सुर्खियां विश्व के दो सबसे महत्वपूर्ण लोकतंत्रों के रंग में रंगी हैं। पहला है विश्व का सबसे पुराना लोकतंत्र अमेरिका। नारंगी बालों वाले श्वेत अमेरिकी डोनाल्ड ट्रम्प की जीत में जनमत का वह चटख रंग है जिसकी अनदेखी अमेरिकी मीडिया कर रहा था। दूसरा है दुनिया का सबसे जीवंत भारतीय लोकतंत्र। कालेधन पर सरकार के निर्णायक प्रहार ने जहां अधिकांश जनता के चेहरे खिला दिए हैं वहीं राजनीति के भ्रष्ट चेहरों का पीला पड़ना शुरू हो गया है।
वैसे, सप्ताह की इन दो सबसे बड़ी घटनाओं की टुकड़ा-टुकड़ा और केवल तात्कालिक रिपोर्ट के ढेर में एक प्रश्न संभवत: दबा ही रह गया। क्या यह केवल संयोग है कि वैश्विक आतंकवाद और चीनी हेकड़ी की जैसी आंच अमेरिकी जनता अनुभव कर रही थी उसे भांपने में अमेरिकी (और बाकी दुनिया का भी) मीडिया एकदम असफल रहा?
और, क्या इसे भी केवल संयोग ही माना जाए कि काले धन पर निर्णायक कार्रवाई से सबसे ज्यादा कराहें उन कोनों से उठीं जो खुद को वंचित, समाजवादी, नववामपंथी और सेकुलर धाराओं का प्रतिनिधि पक्ष बता कर राजनीति करते रहे हैं!
दरअसल, जनता का रुख भांपने में मीडिया की असंवेदनशीलता और वैचारिकता के नाम पर ढोंग करने वाली राजनीति का विश्लेषण इस घड़ी की सबसे बड़ी जरूरत है।
चुनावी विश्लेषण और भविष्यवाणियों के लकदक मंच बताते हैं कि 'समझदारी की ठेकेदारी' का भाव मीडिया को जनसंपर्क और छवि निर्माण की मुनाफेदारी की ओर भले ही लाया हो किन्तु इससे सत्य की सूचना रखने और देने वाली पत्रकारिता छीजी ही है। ट्रम्प की जीत ने इसे साबित कर दिया। रिपब्लिकन प्रत्याशी को भारी अंतर से पिछड़ा और तुलनात्मक रूप से अयोग्य ठहराने वाले चैनल और पत्रकार परिणाम आ जाने के बाद अपनी पत्रकारीय अयोग्यता के लिए किसे दोषी ठहराएंगे?
इसी तरह, कल तक कालेधन पर छाती कूटने वालों का दम 500-1000 रु. के उन नोटों को रद्दी किए जाते ही क्यों फूलने लगा जिनका हिसाब आयकर विभाग से छिपाकर रखा गया है! सरकार को पूंजीपतियों का हितरक्षक और खुद को सर्वहितैषी बताने वाले लोग कालेधन से लड़ाई के मामले में अब खुद को किस पाले में रखेंगे? आप बेहिसाब धन के साथ खड़े हैं तो जनता के साथ कौन है?
समय विडंबनाओं को उजागर करने वाला सबसे बड़ा दर्पण है। देश और विश्व के पंचांग में नवंबर, 2016 ऐसा ही समय लेकर आया है जब दशकों की वैचारिक विडंबनाएं क्षण भर में उजागर हो गईं।
इस्लामी उन्माद को पहचानने और तीव्रता से ललकारे जाने की जरूरत जनता अनुभव करती है और मीडिया इसकी अनदेखी करता है तो यह पूर्वाग्रह मीडिया की समस्या है। वामपंथ की समस्या है। जनता की नहीं।
यदि जनता अपने 1000-500 रु. के नोटों का हिसाब लगाकर बैंक से सहज मुद्रा परिवर्तन को तैयार है तो उन अडि़यल, बौखलाई राजनीतिक मुद्राओं का कोई मतलब नहीं जिनके अनगिनत सियासी समीकरण इस एक मार में चरमरा गए हैं।
जनाकांक्षाओं का प्रतिबिंब होना मीडिया की आवश्यकता है। संदेहों की धुंध छांटकर पारदर्शी व्यवस्था स्थापित करना सत्ता का काम। यदि मीडिया और सत्ता इस काम और आवश्यकताओं से मुंह चुराएंगे तो कैसे चलेगा?
बहरहाल, रूस के साथ अच्छे तालमेल और भारत के साथ सक्रिय साझेदारी के अमेरिका से उभरे संकेत अच्छे हैं। कालेधन पर चोट की 'आकस्मिकता' कुछ कुनबा-कोटरियों में भले कराहें पैदा करे किन्तु पूरे देश के लिए बहुत अच्छी है।
सबसे बड़ी बात, समय के दर्पण में वह दोमुंहापन उजागर हो गया है जिनका उजागर होना बहुत जरूरी था।
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