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लहूलुहान लोकतंत्र

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Oct 17, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 17 Oct 2016 11:24:54

केरल से फिर एक मनहूस खबर। कन्नूर में फिर एक भाजपा कार्यकर्ता की हत्या। रेमित की बर्बर हत्या के पीछे माकपाई गुंडों का हाथ बताया जा रहा है। असहिष्णुता और सत्ता के सिर पर सवार खून को करीब से देखना हो तो केरल अवश्य आइए।
दशकों ऐसा होता रहा कि दिल्ली पहुंचने से पहले वामपंथी हिंसा की खबरें दबा दी जाती थीं। लेकिन राज्य में भाजपा के तेज उभार और मीडिया की पक्षपाती घेराबंदी तोड़ने में सोशल मीडिया की सफलता ने अब वामपंथी क्रूरता की अनकही कहानियों को दुनिया के सामने उजागर करना शुरू कर दिया है।
जर्जर लाचार प्रशासन और राजनैतिक रक्तपात की वामपंथी कहानियों को मीडिया कितनी और किस रूप में जगह देता है, यह दीगर बात है। वास्तविकता यह है कि माकपा का चेहरा यही है। यह भी प्रचारित किया जा रहा है कि केरल में दलीय टकराव और हिंसा-हत्याएं भाजपा-वाम दोनों के लिए आम बात हंै और इसके लिए किसी एक को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। परन्तु इसे सच को ढकने की शरारत से ज्यादा कुछ नहीं मानना चाहिए।
इस धूर्तता की छंटाई के लिए इतिहास की धूल हटाना और मार्क्सवादियों का असली चेहरा लोगों के सामने लाना जरूरी है।
दिल्ली को पता हो न हो, केरल में पिछले करीब पांच दशक से जनता माकपा को इसी खूंखार-खूनी रूप में देखती आई है। राजनैतिक विश्लेषकों की जिम्मेदारी बनती है कि वे केरल में वामपंथी सत्ता की पकड़ और भय में जकड़ी जनता की वस्तुस्थिति सामने लाएं। (देखें पाञ्चजन्य 8 मई, 2016)
गरीब-गुरबों का हिमायती होने का दम भरने वाले वामपंथियों को लजाने के लिए यह तथ्य काफी होना चाहिए कि केरल में उनका पहला शिकार कोई वर्गशत्रु या शोषक नहीं था। अनुसूचित जाति और निर्धन परिवार के वडिक्कल रामकृष्णन को वामपंथियों ने 1969 में मौत के घाट उतारा दिया था। और उंगलियां किधर उठीं? आप चौंक जाएंगे यह जानकर कि थलास्सेरी के गरीब टॉफी बेचने वाले की हत्या का 'दाग' पोलित ब्यूरो सदस्यों एवं पूर्व व तत्कालीन राज्य सचिवों पर था। खुद पिनरई विजयन और कोडियरी बालकृष्णन उस वक्त पार्टी पदाधिकारी थे।
दिल्ली में मानवाधिकार की डफली बजाने वाले वामपंथ का यह दानवी रूप उनकी असलियत है।  संघ और भाजपा समर्थकों पर लगातार प्राणघातक हमलों को देखते हुए पुराने संदर्भ खंगालना और इन्हें साथ जोड़कर देखना जरूरी है।
दस बरस बाद अप्रैल 1979 में खुद ईएमएस नंबूदरीपाद थालसरे में यह फुंफकारते सुने गए थे कि मार्क्सवादी जल्दी ही संघ पर आक्रमण करेंगे। मार्क्सवादियों के मन में संघ के प्रति भरे गुस्से के उदाहरण कम नही हैं। राष्ट्रप्रेमी शक्तियों के लिए यह जहर उनके मन में सदा से उबलता रहा। राज्य के गृहमंत्री, रामाकृष्णन ने 11 अक्तूबर 1980 को यह घोषित किया था कि राज्य के मार्क्सवादी केरल से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को पूरी तरह समाप्त कर देंगे।
वर्तमान मुख्यमंत्री पिनरई विजयन के गृहग्राम में उनके घर से कुछ सौ मीटर दूर रमित की हत्या हुई है। मई से अब तक छह माह में पिनरई विजयन की सरकार ने सुशासन के भले छह डग न भरे हों, 50 राजनैतिक हमले और आधा दर्जन हत्याओं का फर्राटा बताता है कि सरकार की प्राथमिकताएं और प्रशासन का हाल क्या है।
बहरहाल, राष्ट्रवादी शक्तियां और संगठन माकपा के निशाने पर हैं इसमें दो राय नहीं लेकिन उससे बचा कौन है? इसी वर्ष अलेप्पी में मारे गए पूर्व कांग्रेसी कार्यकर्ता या नादपुरम में माकपाइयों द्वारा बम मारकर उड़ा दिए गए मुस्लिम लीग के तीन कार्यकर्ता, माकपा की जीभ हर उस विचारधारा, संगठन और व्यक्ति को निगलने के लिए लपलपा रही है जिसे वह शत्रु मानती है।
फिर इलाज क्या है? उन लोगों का-जो लोकतंत्र में भरोसा नहीं रखते, जो सत्ता प्राप्ति के बाद भी जनकल्याण की बजाय वर्गसंघर्ष को तेज करना ही अपना उद्देश्य मानते हैं, जो मानते हैं कि जनता की राय का कोई मतलब नहीं और सत्ता की राह बंदूक की गोली से ही निकलती है! बंगाल में पचासियों हजार राजनैतिक हत्याओं के बाद वामपंथियों को सत्ता की मुंडेर से धकेलने का उदाहरण सामने है। ममता बनर्जी ने वामपंथियों का झूठ उघाड़ा और जनता को साथ लेकर उन्हें सत्ता से बेदखल किया।
बहरहाल, दुनिया से मिटा, शासन और मानवीयता के पैमाने पर पिटा और सिर्फ इक्का-दुक्का राज्यों में सिमटा वामपंथ अपने आखिरी दौर में जनता और अन्य राजनैतिक दल-संगठनों से किस भाषा में संवाद की अपेक्षा रखता है? लोकतंत्र में भरोसा न रखने वालों की भाषा ठीक करने का अधिकार तो लोकतंत्र के प्रहरियों को अपने पास रखना ही होगा। यह सवाल केवल किसी एक राजनैतिक दल की पक्षधरता या विरोध का नहीं बल्कि लोकतंत्र की अस्मिता और उसमें भरोसा रखने वालों का है। भारतीय राजनीति को अपने लोकतंत्र को लहूलुहान करने वालों से छुटकारा पाना ही होगा। 

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