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अगर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की छवि विकास- परक है और उन्होंने अपने शासनकाल में विकास किया है तो फिर यूपी चुनाव में सपा उनके नेतृत्व में उतरने से कतरा क्यों रही है। वे पार्टी के लिए भविष्य का चेहरा हैं या सिर्फ सियासी मोहरा?
सुनील राय
माजवादी पार्टी को नियंत्रित करने वाले यादव परिवार का ड्रामा अभी भी जारी है। प्रदेश अध्यक्ष का पद पाने के बाद चाचा शिवपाल यादव काफी तेजी में हैं। वे अखिलेश यादव और रामगोपाल यादव के करीबियों की ढूंढ-ढूंढ कर छटनी कर रहे हैं और ऐसा करें भी क्यों ना! सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने उन्हें प्रदेश अध्यक्ष की कमान जो सौपी है। आम जन-मानस में चर्चा है कि वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव के ठीक पहले सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश यादव को प्रदेश अध्यक्ष बनाया था। यह प्रयोग पूर्ण रूप से कामयाब रहा था और सपा को अभूतपूर्व विजय प्राप्त हुई और उसने प्रचंड बहुमत के साथ सरकार बनाई जो अब अपना कार्यकाल पूरा कर रही है और चुनाव सिर पर हैं तो अखिलेश के नेतृत्व से परहेज क्यों?
चुनाव में अब मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को जवाब देना है। ऐसे में मुलायम सिंह ने अखिलेश को सपा के प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाकर शिवपाल को बैठा दिया है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2011 तक शिवपाल प्रदेश अध्यक्ष थे, जब चुनाव नजदीक आया तब तेज और युवा छवि को भुनाने के लिए सपा ने अखिलेश को सपा का प्रदेश अध्यक्ष बनाया। सपा का प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद अखिलेश यादव ने पूरे प्रदेश में रथ यात्रा निकाली थी।
अखिलेश ने 2012 में पार्टी में कई प्रकार के बदलाव के संकेत दिए थे। उस दौरान उनकी पार्टी के कुछ नेता, माफिया छवि वाले डी.पी. यादव को पार्टी में लेना चाहते थे मगर अखिलेश ने उन्हें पार्टी में नहीं आने दिया। उन्होंने पार्टी के एक वरिष्ठ नेता मोहन सिंह को महज एक गलत बयान के चलते पद से हटा दिया था। अखिलेश ने युवाओं को नौकरी, बेरोजगारी भत्ता, छात्रों को लैपटाप देने का वादा किया था। उनकी जनसभाओं में युवाओं का अपार जन समूह उमड़ा था। अखिलेश की उन जनसभाओं में गगन भेदी नारा लगता था— 'जिस ओर जवानी चलती है, उस ओर जमाना चलता है।'
वर्ष 2012 के चुनाव के बाद सपा को पहली बार पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ, चुनाव के पहले यह घोषणा नहीं की गई थी कि अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाया जाएगा। मगर पूर्ण बहुमत मिलने के बाद मुलायम सिंह ने अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा की। उस समय शिवपाल और आजम खान ने जब इसका विरोध किया तो मुलायम ने दोनों को मनाया। तब मुलायम ने आजम खान को मनाने के लिए विधानसभा अध्यक्ष का पद भी ऑफर किया था। मगर आजम खान ने यह पद लेने से इनकार कर दिया था।
डी.पी. यादव जैसे माफिया को पार्टी में आने से रोकने वाले, अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद, उनके चाचा शिवपाल और पिता मुलायम सिंह ने माफिया छवि वाले नेताओं को धीरे-धीरे पार्टी में प्रवेश देना शुरू कर दिया। बाहुबली अतीक अहमद को भी लोकसभा चुनाव में काफी मशक्कत के बाद श्रावस्ती से टिकट मिला। भदोही जनपद से विजय मिश्रा सरीखे माफिया पहले से ही पार्टी में मौजूद हैं।
हद तो तब हो गई, जब कुख्यात माफिया मुख्तार अंसारी और अफजल अंसारी की पार्टी कौमी एकता का सपा में विलय कराने के लिए शिवपाल यादव और माध्यमिक शिक्षा मंत्री बलराम यादव ने प्रयास किया। विलय की तैयारी हो चुकी थी तभी मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने बलराम यादव को मंत्री पद से बर्खास्त कर दिया। मुख्यमंत्री इस बात से नाराज थे कि कौमी एकता का विलय कराने के लिए बलराम यादव सक्रिय भूमिका निभा रहे थे। उनकी बर्खास्तगी के बाद पार्टी में अंदरूनी हलचल शुरू हो गयी।
बलराम यादव ने सपा मुखिया से मिल कर अपनी स्थिति स्पष्ट की। मुलायम सिंह के हस्तक्षेप के बाद महज एक हफ्ते के अन्दर उन्हें बहाल किया गया और बलराम यादव ने फिर से राजभवन में मंत्री पद की शपथ ली।
राज्य में पिछले साढ़े चार वर्ष में अवैध खनन को लेकर मामला कई बार जोर पकड़ चुका है। मगर इस बार एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अवैध खनन की जांच के लिए सीबीआई को निर्देश दिया। सीबीआई ने अपनी जांच शुरू भी कर दी है।
खनन के मामले को गर्माता देख, मुख्यमंत्री अखिलेश ने खनन मंत्री गायत्री प्रजापति समेत एक अन्य मंत्री को बर्खास्त कर दिया। मंत्री पद से बर्खास्त होने के बाद गायत्री प्रजापति मुलायम से मिलने उनके दिल्ली स्थित आवास पहुंचे। दोनों मंत्रियांे की बर्खास्तगी के अगले ही दिन अखिलेश यादव ने प्रदेश के मुख्य सचिव दीपक सिंघल को हटा कर एक गैर महत्वपूर्ण पद पर भेज दिया। मुख्यमंत्री की इस दूसरी बड़ी कार्रवाई से हलचल काफी तेज हो गई।
माना जाता है कि सिंघल , शिवपाल यादव और अमर सिंह के करीबी हैं और इन्हीं दोनों की सिफारिश पर उन्हें मुख्य सचिव जैसे महत्वपूर्ण पद पर तैनात किया गया था।
इन सब हलचलों के बीच, शिवपाल ने भी मुलायम सिंह से बात की। उसके बाद फिर एक बड़ा बदलाव हुआ। मुलायम सिंह ने अखिलेश को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटा कर शिवपाल को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया। प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाए जाने से नाराज मुख्यमंत्री ने अपने चचा शिवपाल के सभी प्रमुख विभाग छीन लिए। इससे कुनबे में घमासान और तेज हो गया।
शिवपाल यादव के प्रदेश अध्यक्ष बने रहने पर अखिलेश ने अपनी चिंता जाहिर की कि टिकट बंटवारे में उनकी भी मर्जी चलनी चाहिए। इसके लिए अखिलेश को समाजवादी पार्टी के संसदीय बोर्ड का चेयरमैन बनाया गया है।
वहीं मुलायम सिंह ने दूर की सोचते हुए अपने निकटस्थ सहयोगी अमर सिंह को पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव बना दिया है। इस नियुक्ति से पार्टी के एक वर्ग में बेचैनी और आक्रोश व्याप्त है।
सपा समर्थक जे.पी. यादव का कहना है,''प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद शिवपाल यादव ने जिस तरह से मुख्यमंत्री के समर्थकों को पार्टी से बाहर निकाला है, उसके लिए सिर्फ यही कहा जा सकता है कि विनाश काले विपरीत बुद्धि।'' वहीं सपा के अनेक कार्यकर्ताओं का कहना है कि पार्टी में जो कुछ भी हुआ, उससे भ्रम की स्थिति पैदा
हो गई है।
भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य इस घटनाक्रम पर कहते हैं,''सपा का जहाज डूब रहा है। इसका एहसास सपा मुखिया को हो चुका है। इसलिए ही उन्होंने जनता का ध्यान भटकाने के लिए अखिलेश को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटा कर शिवपाल को प्रदेश अध्यक्ष बनाया है, जिससे मुख्यमंत्री को यह कहने का मौका मिल जाए कि चुनाव शिवपाल यादव के नेतृत्व में लड़ा जा रहा है। लेकिन ये लोग कुछ भी कर लें, इनका जहाज डूब चुका है।''
राजनीति के जानकार मानते हैं कि ''पूरा मैच फिक्स है। जब पिछली विधानसभा का चुनाव था, तब प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर एक नया और युवा चेहरा पेश कर मुलायम सिंह ने चुनाव जीत लिया था। पिछले चुनाव में सपा को प्रचंड बहुमत मिला था, इसलिए उसकी तरफ से जवाबदेही अखिलेश यादव की है। जो भी काम पूरे नहीं हुए हैं, उसका जवाब जनता के समाने अखिलेश को ही देना पडे़गा। इसीलिए मुलायम ने यह चाल
चली है।
वर्ष 2012 में अखिलेश को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया था और यह प्रयोग कामयाब रहा था। सपा को प्रचंड बहुमत प्राप्त हुआ था तो इस बार उन्हीं अखिलेश के नेतृत्व में सपा चुनाव मैदान में क्यांे नहीं उतरना चाहती? अगर यह सच है कि विकास के कार्य किए गए हैं, सभी वादे पूरे हो गए हैं, कानून-व्यवस्था पूरी तरह चाक-चौबंद है तो अखिलेश को मोर्चा संभालने का अवसर दिया जाना चाहिए। मगर ऐसा करने के बजाय उन्हें अध्यक्ष पद से ही हटा दिया गया है। जो अखिलेश साढ़े चार वर्ष से मुख्यमंत्री है, सपा उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ने से परहेज कर रही है।
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