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नया दौर

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Sep 5, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 05 Sep 2016 11:27:10

अमेरिका के विदेश मंत्री जॉन कैरी की हालिया भारत यात्रा ने कई सलवटें दूर करते हुए दुनिया के सामने साफ कर दिया है कि भारत-अफगानिस्तान और अमेरिका का त्रिपक्षीय सहयोग इस क्षेत्र में शांति का उपाय कर सकता है। इससे भूराजनीति का नया दौर शुरू हुआ है
 प्रशांत बाजपेई
अगस्त के अंत में भारत आए अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन कैरी ने जब यह घोषणा की कि अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता लाने के लिए भारत, अमेरिका और अफगानिस्तान सितंबर में त्रिपक्षीय सहयोग प्रारंभ करेंगे, तो यह भारत के क्षेत्रीय ताकत के रूप में उभरने की घोषणा ही थी। इससे इस बात पर भी मुहर लग गई कि दशकों पुरानी चुनौतियों से निबटने के लिए भारतीय विदेश नीति अब बिल्कुल नए तेवर के साथ नई जमीन पर कदम बढ़ा रही है। इस त्रिस्तरीय वार्ता की घोषणा 13 सितंबर को न्यूयॉर्क में प्रारंभ होने जा रही 71वीं संयुक्त राष्ट्र संघ की बैठक की पृष्ठभूमि में और भी महत्वपूर्ण हो जाती है, जिसमें पाकिस्तान ने कश्मीर मुद्दे को उठाने की धमकी दी है।
इसका दूसरा पहलू भी है कि वषार्ें से अफगानिस्तान की अस्थिरता भारत की सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा बनी हुई है। अफगानिस्तान पाकिस्तान के जिहादी आतंक के कारखाने का मुख्य निशाना, प्रयोगशाला और भंडार स्थल है। आईएसआई इसे अपना उपनिवेश समझती है। इसके बावजूद अफगानिस्तान में भारत को सीधी भूमिका निभाने के लिए कभी आमंत्रित नहीं किया गया था, क्योंकि यह पाकिस्तानी फौज को मंजूर नहीं हो सकता और पाकिस्तान तथाकथित रूप से अमेरिका के साथ मिलकर अफगानिस्तान में जिहादी आतंक के विरुद्ध लड़ रहा है। यह प्रहसन आज भी जारी है, लेकिन भारत के इस खेल में शामिल हो जाने से रावलपिंडी वालों को तगड़ा झटका लगा है। राहिल शरीफ के लिए दम साधने का समय शुरू हो गया है। अफगानिस्तान के सीने में तालिबान, विशेष रूप से हक्कानी नेटवर्क रूपी अपने नाखून गढ़ाने और अफगानियों का अधिक से अधिक खून बहाने की अपनी क्षमता के चलते पाकिस्तानी फौज अमेरिका से मोल-भाव और 'ब्लैकमेलिंग' करती आई है। मोल-तोल की पहली शर्त, भारत को अफगानिस्तान से बाहर रखने की रही है। यह भारत की ओर से करारा तमाचा है।
आतंकवाद को 'अच्छे और बुरे' की श्रेणियों में नहीं बांटा जा सकता, विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और जॉन कैरी का यह संयुक्त बयान भी पाकिस्तान के दोगलेपन पर किया गया कटाक्ष ही है। पाकिस्तान सत्ता अधिष्ठान के लिए कुंठित करने वाली एक बात और रही कि उसका हुक्म बजाते हुए नवाज सरकार ने कश्मीर मुद्दे के अंतरराष्ट्रीयकरण के लिए अपनी जान झोंक डाली है, लेकिन कैरी ने कश्मीर के 'क' का भी उच्चारण नहीं किया, और दोनों 'शरीफों' द्वारा मनाए जा रहे आतंकी बुरहान वानी के मातम में शरीक होने से दुनिया ने साफ इनकार कर दिया है।     
    गुटनिरपेक्षता के जमाने से चली आ रही वर्जनाएं टूट रही हैं। इस 15 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लालकिले से बोलते हुए भारत की विदेश नीति के नए आगाज का इशारा किया था। पहली बार किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में बलूचिस्तान का नाम लिया और कश्मीर मुद्दे को उछालने की पाकिस्तानी कोशिशों पर नया पलटवार भी किया। पाकिस्तान ने पहले बेहद शातिर ढंग से कश्मीर घाटी और जिहादी बुरहान वानी को लेकर हो-हल्ला मचाया। उधर घाटी के अंदर पाकिस्तानपरस्तों द्वारा पैसे देकर पत्थर चलवाए गए। इस प्रकार बिगड़ी हुई फिजा की तस्वीर पेश की गई। फिर भारत को बातचीत का न्योता भेज दिया गया, ताकि बातचीत पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद पर न होकर कश्मीर घाटी तथा हुर्रियत कॉन्फ्रेंस जैसे मुद्दों को केंद्र में रखकर हो, और यदि भारत बातचीत की पेशकश ठुकरा दे तो उस पर बातचीत को लेकर गंभीर न होने का आरोप लगाया जा सके। पाकिस्तान स्वयं को सफल होते देख रहा था, लेकिन लालकिले से बलूचिस्तान, सिंध, गिलगित-बाल्टिस्तान और पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर का जिक्र सुनकर, जो कि उसकी दुखती रगें हैं, उसके पैरों तले की जमीन खिसक गई। मोदी बोले, ''आज लालकिले की प्राचीर से मैं कुछ लोगों का विशेष अभिनंदन और आभार व्यक्त करना चाहता हूं। पिछले कुछ दिनों से बलूचिस्तान के लोगों ने, गिलगित के लोगों ने, पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के लोगों ने जिस प्रकार से मुझे बहुत-बहुत धन्यवाद दिया है, जिस प्रकार से मेरा आभार व्यक्त किया है, मेरे प्रति जो सद्भावना जताई है, दूर -दूर बैठे हुए लोग, जिस धरती को मैंने देखा नहीं है, जिनसे मेरी मुलाकात नहीं हुई है, वे लोग हिंदुस्थान के प्रधानमंत्री का अभिनंदन करते हैं, आदर करते हैं, तो ये सवा सौ करोड़ देशवासियों का आदर है। इसलिए बलूचिस्तान के लोगों का, गिलगित के लोगों का, पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के लोगों का आज मैं तहेदिल से आभार व्यक्त करना चाहता हूं।''
इस वक्तव्य के बाद भारत के अंदर और बाहर हलचल मच गई। ऑल इंडिया रेडियो ने बलूच भाषा में कार्यक्रम शुरू करने की घोषणा की। बलूचिस्तान से लेकर, सिंध और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर तक मोदी को धन्यवाद ज्ञापित हुए। यह एक बहुप्रतीक्षित और जरूरी कदम था। कूटनीति के जानकारों के अनुसार यह कदम दशकों  पहले उठा लिया जाना चाहिए था। पाकिस्तान में भारत के उच्चायुक्त रहे जी. पार्थसारथी कहते हैं, ''भारत जरूरत से ज्यादा संकोची रहा है, जबकि पाकिस्तान लगातार कश्मीर पर दुष्प्रचार करता आया है कि, कश्मीर मुद्दा विभाजन की विरासत है। यदि कश्मीर मुद्दा विभाजन की विरासत है तो बलूचिस्तान भी विभाजन की विरासत है। आखिरकार जिन्ना ने बलूचिस्तान के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकारा था। …पाकिस्तान को रास्ते पर लाने के लिए कुछ तो होना चाहिए।''
भारत आए बंगलादेश के सूचना प्रसारण मंत्री हसनल हक ने 18 अगस्त को बयान दिया कि बंगलादेश बलूचिस्तान में पाकिस्तानी फौज द्वारा किए जा रहे मानवाधिकार हनन पर जल्दी ही नीतिगत घोषणा करेगा। हक ने कहा कि बलूचिस्तान में पाकिस्तान का फौजी अधिष्ठान वैसे ही खूनखराबा कर रहा है जैसा कि उसने 1971 में बंगलादेश में किया था। 20 अगस्त को अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई दिल्ली में थे। मोदी का समर्थन करते हुए उन्होंने कहा,''पाकिस्तान हमेशा से अफगानिस्तान और भारत पर खुलकर टीका-टिप्पणी करता आया है, लेकिन यह पहला मौका है जब भारत के प्रधानमंत्री ने बलूचिस्तान पर बोला है।''   

बलूचिस्तान पर बाहर से समर्थन मिला लेकिन पुरानी लकीर पीटने वाले कुछ पत्रकार और राजनेता खुश नहीं थे। सवाल उठाया गया कि 'जब शर्म अल शेख में भारत और पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री क्रमश: मनमोहन सिंह तथा गिलानी के वक्तव्य में बलूचिस्तान का जिक्र आया था तो भाजपा ने इसका विरोध किया था, जबकि अब सत्ता में आकर उसने स्वयं बलूचिस्तान का जिक्र छेड़ दिया है।' यह जमीनी सचाइयों से दूर, विरोध करने के लिए दिया गया कुतर्क प्रतीत होता है। शर्म अल शेख में पाकिस्तान ने स्वयं पर कश्मीर में आतंक फैलाने के आरोप को हल्का करने के लिए, संयुक्त बयान में बलूचिस्तान को जोड़कर, बलूचों के संघर्ष को 'आतंकवाद' एवं पाकिस्तान को भी 'बाहरी आतंक (भारत द्वारा प्रायोजित) का शिकार' घोषित करवा लिया था, जबकि मोदी ने बलूचिस्तान के लोगों के प्रति संवेदना जताकर वहां पाकिस्तानी फौज द्वारा किए जा रहे भयंकर दमन की ओर दुनिया का ध्यान खींचा है। बलूचिस्तान के उल्लेख से इस्लामाबाद और रावलपिंडी में पैदा हुई बदहवासी को पाकिस्तान की मीडिया रपटों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की चर्चाओं में अनुभव किया जा सकता है।
खैर, करजई ने आगे कहा, ''हालांकि भारत को किसी की इजाजत की आवश्यकता कभी नहीं थी, लेकिन यह खुशी की बात है कि अमेरिका अफगानिस्तान की सेना को मजबूत करने में भारत की सहायता का इच्छुक है। भारत को कदम बढ़ाना चाहिए। भारत अफगानिस्तान की सहायता करने में सक्षम भी है, और सैनिक साजो-सामान तथा सैन्य प्रशिक्षण आदि के क्षेत्र में बहुत बड़ा सहयोग दे सकता है।'' डेढ़ हफ्ते बाद जॉन कैरी ने अफगानिस्तान में भारत की बढ़ती भूमिका  का प्रमाण दे दिया, जब सितंबर में भारत-अमेरिका-अफगानिस्तान संयुक्त वार्ता की घोषणा की गई।
 पाकिस्तान की फौज के लिए यह दु:स्वप्न है। कश्मीर पर वे काला दिन मना रहे हैं। विश्व पटल पर मौके-बेमौके कश्मीर को उछाल रहे हैं। नवाज शरीफ ने दुनिया में इसका रोना रोने के लिए 22 सांसदों को छांटा है, और इधर उसके अपने ही 'उपनिवेश' अफगानिस्तान में भारत और गहरे प्रवेश कर गया है। पाकिस्तान देख रहा है कि अफगानिस्तान में कूटनीतिक हालात नाटकीय ढंग से बदले हैं, जिससे भविष्य में सामरिक समीकरण भी प्रभावित होने वाले हैं। हामिद करजई के सत्ता से जाने के बाद अफगानिस्तान के नए राष्ट्रपति अशरफ गनी ने आते ही (सितंबर 2014 ) भारत के साथ दूरी बनानी शुरू कर दी थी, क्योंकि उन्हें लगता था कि तालिबान को बातचीत की मेज पर लाना है तो पाकिस्तानी फौज की खुशामद करनी जरूरी है। उनके पूर्ववर्ती करजई अफगान फौज के अफसरों को प्रशिक्षण के लिए भारत भेजते थे, लेकिन गनी ने उन्हें पाकिस्तान भेजना शुरू कर दिया। यह एक भयंकर गलती थी। अफगानिस्तान के फौजी ढांचे को तबाह करने को संकल्पित आईएसआई पूरी अफगान फौज को संक्रमित कर सकती थी।
सत्ता संभालने के दो माह बाद गनी पाकिस्तान गए और प्रोटोकॉल तोड़कर जनरल राहिल शरीफ से उनके मुख्यालय रावलपिंडी जाकर मिले। भारत आने में उन्होंने 7 महीने लगा दिए, जबकि भारत वहां महत्वपूर्ण परियोजनाएं चला रहा था, जिसमें सड़क और आधारभूत ढांचे से लेकर जल-बिजली परियोजनाएं तक शामिल थीं। पर गनी के विचार अमेरिका, ब्रिटेन, चीन, सऊदी अरब और पाकिस्तान के दायरे में कैद थे। इस बीच भारतीय नेतृत्व इंतजार करता रहा, क्योंकि उसका अनुमान था कि काबुल पर तालिबान का परचम स्थापित करने को बेकरार पाकिस्तानी खाकी से गनी का मोहभंग होकर ही रहेगा। और ऐसा हुआ भी। राष्ट्रपति गनी द्वारा राहिल शरीफ की तमाम चिरौरियों और पृष्ठपोषण के बावजूद आईएसआई संचालित हक्कानी नेटवर्क ने काबुल को रक्त में भिगोना जारी रखा और उकताए हुए गनी ने पाकिस्तान पर खुलकर हमला बोलना शुरू कर दिया। चीन और पाकिस्तान की मध्यस्थता और अमेरिकी निगरानी में चल रही अफगान सरकार और तालिबान की शांति वार्ता भी बेनतीजा रही। वास्तव में यह वार्ता कभी ठीक से शुरू ही नहीं हो पाई, क्योंकि पाकिस्तान समर्थित तालिबान इसमें रोड़ा अटकाते रहे। फिर अमेरिकी ड्रोन ने बलूचिस्तान में घुसकर तालिबान प्रमुख मुल्ला मंसूर को मार गिराया, जो शांति वार्ता के लिए आगे आ रहे तालिबान गुटों को खत्म करने में जुटा था। नए तालिबान अमीर अखुंदजादा से भी कोई उम्मीद नहीं दिख रही है, ऐसे में आक्रामक विदेश नीति का प्रदर्शन कर रहा और क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ा रहा भारत अमेरिका और अफगानिस्तान की सहज पसंद बनकर उभरा।
   वैसे भी भारत अफगानिस्तान के आमजन में अमेरिका या किसी भी अन्य देश की तुलना में बहुत ज्यादा लोकप्रिय है। काबुल में दूतावास के अतिरिक्त कंधार, हेरात, जलालाबाद और मजार-ए-शरीफ में उसके कोंसुलेट हैं। अफगानिस्तान के हालात को लेकर भारत की अपनी अनेक नई और पुरानी चिन्ताएं हैं। आज तालिबान अफगानिस्तान के ज्यादातर शहरों में घातक हमले कर रहा है। खूंखार इस्लामिक स्टेट की अफगानिस्तान शाखा भी अस्तित्व में आ गई है, और कई पुराने जिहादी संगठन उससे जुड़ रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र के विशेष प्रतिनिधि ने अपनी रपट में कहा है कि ये सभी जिहादी आने वाले समय में एक झंडे के नीचे खड़े होकर जिहाद की घोषणा कर सकते हैं। जबकि पाकिस्तानी पिट्ठू हक्कानी नेटवर्क और लश्करे तोएबा यहां पहले से ही हावी हैं। दोनों ने भारत को अपना चिर शत्रु घोषित कर रखा है। यदि ये सब मजबूत होते रहे तो अफगानिस्तान को आधार बनाकर भारतीय कश्मीर और दूसरे अंदरूनी ठिकानों पर घातक हमले कर सकते हैं। पहले ऐसा हो चुका है, जब अफगानी तालिबान ने कश्मीर में दस्तक दी थी, और आत्मघाती हमले किए थे।
भारत, अमेरिका और अफगानिस्तान तीनों को इनसे खतरा है। तीनों के हित समान हैं, इसलिए तीनों स्वाभाविक साझेदार बनकर उभरे हैं। अफगानिस्तान की सुरक्षा, एशिया-हिन्द महासागर शक्ति संतुलन तथा एशिया-प्रशांत क्षेत्र के सन्दर्भ में देखा जाए तो परंपरा से आगे बढ़ते हुए यह साझेदारी सुरक्षा के क्षेत्र में विस्तृत हो रही है। जहां अफगानिस्तान ने भारत से सैन्य साजो-सामान और सैन्य प्रशिक्षण की आस लगाई है, वहीं अमेरिका ने भारत को सैन्य खरीदार से आगे बढ़कर सैन्य साझेदार बनाने में दिलचस्पी दिखाई है। रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर की अमेरिका यात्रा और जॉन कैरी की भारत यात्रा में दोनों देश सैन्य साझेदारी और नई पीढ़ी के शस्त्रों के साझा विकास की दिशा में काफी आगे आ गए हैं। अमेरिका भारत को समूचे क्षेत्र में मजबूत होता हुआ देखना चाह रहा है।
 पाकिस्तान के लिए यह बड़ी चिंताजनक स्थिति बन गई है। जहां एक ओर अमेरिका भारत को अपनी अधिकांश सैन्य तकनीक स्थानांतरित करने का इच्छुक दिख रहा है, वहीं उसकी बरसों पुरानी एफ-16 लड़ाकू विमानों की खेप आकाश कुसुम बनकर रह गई है। कीमत भी बढ़ते-बढ़ाते 80 मिलियन डॉलर प्रति विमान तक आ गई है, जबकि स्टेट बैंक ऑफ पाकिस्तान के अनुसार 30 अगस्त, 2016 तक पाकिस्तान का विदेशी कर्ज अब तक की सबसे बुलंद ऊंचाइयां छू चुका था। हालांकि अब वह यूरो लड़ाकू विमान, रूस के बेड़े और चीनी सहायता की आशा संजोकर हौसला बांधे रखने की कोशिश कर रहा है, लेकिन अमेरिका फिर भी अमेरिका है। और 9/11 से लेकर चेचेन जिहादियों तक, चीन के सिक्यांग से लेकर फिलिपीन्स तक जिहाद की आईएसआई की खुलती कलई को भंजाने के लिए मोदी प्रतिबद्ध दिख रहे हैं। मजेदार बात है कि पाकिस्तान के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भारत के परमाणु बम और ब्रह्मोस मिसाइल से ज्यादा चर्चा मोदी और अजीत डोवाल की    होती है।
पाकिस्तान में आंतरिक हालात बेहद खराब हो रहे हैं। बलूच अलग होने को बेताब हैं। सिंध में असंतोष उबल रहा है। कराची झुलस रही है। खैबर में बिगड़ैल तालिबान सैन्य स्कूलों और सैन्य संस्थानों पर आत्मघाती हमले कर रहे हैं। पीओजेके की स्थिति भी सैन्य दमन के बल पर जैसे-तैसे संभली हुई है। ढांचे में से चरमराने की आवाजें आ रही हैं, ऐसे में कश्मीरी जिहाद का पुराना गोंद भी पानी छोड़ रहा है।
 अमेरिका पहुंचे भारतीय रक्षा मंत्री ने पेंटागन में पत्रकारों के सवाल का जवाब देते हुए कहा, ''जहां तक कश्मीर की बात है वहां मुट्ठीभर लोगों ने बहुतांश को बंधक बना रखा है। ़.़ वहां लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार ही परिस्थितियों को संभाल रही है, मुख्यमंत्री भी घाटी से ही हैं, और केंद्र सरकार (केवल) सीमा पार से आ रहे आतंक को तत्परता से समाप्त कर रही है।''  पाकिस्तान की समस्या यह है कि इस बयान में जरा सी भी अतिशयोक्ति नहीं है। दुनिया इस बयान पर प्रतिक्रिया दे या न दे, भरोसा जरूर कर रही है। और कूटनीतिक लड़ाई, जो पिछले साठ साल से भारत की जमीन पर लड़ी जाती रही है, अब उसकी जमीन पर लड़ी जा रही है। वास्तव में सुषमा स्वराज और जॉन कैरी के संयुक्त वक्तव्य में भी चर्चा कश्मीर पर न होकर कश्मीर में पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद पर की गई है। अंतरराष्ट्रीय संबंधों में भारत के पास नैतिक बल सदा से रहा है, लेकिन अब उसने उसे मनवाना भी शुरू कर दिया है।
28 अगस्त को इसरो (भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान ) ने स्क्रैपजेट इंजिन रॉकेट का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण किया। इस स्क्रैपजेट इंजिन की विशेषता यह है कि यह आस-पास के वातावरण में उपस्थित ऑक्सीजन का उपयोग ईंधन को जलाने में करता है जिसके कारण प्रक्षेपण की लागत कई गुना घट जाती है। भारत की विदेश नीति भी अपने आसपास की परिस्थितियों का उपयोग आगे बढ़ने के लिए करने लगी है। यह अच्छा संकेत है। बाजी पलटने की उम्मीद की जा सकती है।

 

भारत को किसी की इजाजत की आवश्यकता कभी नहीं थी, लेकिन यह खुशी की बात है कि अमेरिका अफगानिस्तान की सेना को मजबूत करने में भारत की सहायता का इच्छुक है। भारत को कदम बढ़ाना चाहिए। भारत अफगानिस्तान की सहायता करने में सक्षम भी है, और सैनिक साजो-सामान तथा सैन्य प्रशिक्षण आदि के क्षेत्र में बहुत बड़ा सहयोग दे सकता है।
-हामिद करजई,पूर्व राष्ट्रपति, अफगानिस्तान

पाकिस्तान लगातार कश्मीर पर दुष्प्रचार करता आया है कि, कश्मीर मुद्दा विभाजन की विरासत है। यदि कश्मीर मुद्दा विभाजन की विरासत है तो बलूचिस्तान भी विभाजन की विरासत है।  
–जी. पार्थसारथीे,
 पाकिस्तान में भारत के पूर्व उच्चायुक्त 

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