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देश विभाजन की बरसी पर भारत के भीतरी मामलों पर खम ठोकना और पड़ोसी को तिलमिलाना़…खेल पुराना था और पाकिस्तान यह खेल दशकों से सफलतापूर्वक खेल रहा था। मगर इस बार ताल ठोकते ही दांव उलटा पड़ गया। दुनियाभर में जारी उथल-पुथल के बीच यह भारत की नीतियों और कार्यशैली में आमूलचूल बदलाव का दौर है। इस देश की आजादी की 70वीं वर्षगांठ से एक रोज पहले पाकिस्तानी उच्चायुक्त अब्दुल बासित ने जब दिल्ली में अपने दूतावास में यह घोषणा की कि वे अपने स्वतंत्रता दिवस को पाकिस्तान की 'आजादी' के लिए समर्पित करते हैं तो वह पाकिस्तानी सेना और प्रधानमंत्री के इस्लामाबाद में फेंटे हुए पत्तों को ही लहरा रहे थे। इस बात से बेपरवाह कि स्थितियां बदल चुकी हैं।
पारदर्शिता और गति का पर्याय भारत का वर्तमान नेतृत्व किसी का बकाया नहीं रखता… जवाब अगले ही दिन मिल गया। यह जवाब था उस तेजी के साथ जो भारत की जनता चाहती है। उस स्वर में जो पाकिस्तान को समझ आता है और शब्द चयन की उस बारीकी से भरा जोकि कूटनीतिक विषयों के लिए जरूरी है।
सच उजागर है और पाकिस्तान बेपर्दा।
पेशानियों पर पसीना है… बाल्टिस्तान से बलूचिस्तान तक पसरे पाकिस्तानी अन्याय के गढ़ लालकिले से दागी थर्राहट से भरे हैं और भारत के मोर्चे पर दिखते परिवर्तन का अनुभव कर रहे हैं।
भारत का ताजा जवाब इतिहास की तहें और कूटनीति के नए दरवाजे खोलने वाला है। पाकिस्तान का लगातार जारी रहने वाला कश्मीर राग कितना रणनीतिक है और इस पूरे प्रांत और भूक्षेत्र की कहानियां किस कदर उलझी हैं, अब इसकी कायदे से पड़ताल की संभावना बनती दिख रही है। छह देशों को जोड़ने वाले राजनीतिक महत्व के इस पूरे इलाके का जिक्र पहले भी होता रहा है लेकिन आधे-अधूरे, संदभार्ें से कटे, अनमने तौर पर। लेकिन अब स्थिति अलग है। आशा है कि अब यह मुद्दा विश्व के सबसे अहम भू-रणनीतिक क्षेत्र पर भारतीय पक्ष को ठीक रूप में दुनिया के सामने रखेगा। सही समय पर लगे इस एक दांव से पाकिस्तानी कूटनीति का बरसों आजमाया हुआ पैंतरा एकाएक तीन तरह से चित हुआ है-पहला, यह कि बलूचिस्तान में भारत की षड्यंत्रकारी भूमिका की मनगढ़ंत पाकिस्तानी कहानियों की अब असली छान-फटक होगी और बम और बंदूक के जोर पर बंधक बनाई गई वहां की जनता का दर्द विश्व के सामने आएगा। ध्यान देने वाली बात है कि 1947 के विभाजन में देश का भूगोल तय हो जाने के बाद, मार्च 1948 में बलूचिस्तान को राजनैतिक धूर्तता और सैन्य ताकत के बूते निगलने वाला पाकिस्तान वहां के स्वतंत्रता संघर्ष को बर्बर तरीके से कुचलता रहा और दुनिया के सामने यह रोना रोता रहा कि भारत उसके क्षेत्र को अशांत करने में लगा है।
दूसरा, इस पूरे क्षेत्र में भारतीय पक्ष और दावेदारी को पर्दे के पीछे सरकाकर पूरे प्रांत की बजाय सिर्फ कश्मीर घाटी की डफली बजाने का खेल बेहतर तरीके से उजागर होगा। तीसरा, दुनिया में पाकिस्तानी लामबंदियां जब मानवाधिकारों का रोना रोएंगी तो उन्हें पाक आक्रांत कश्मीर और बलूचिस्तान की जनता के मानवाधिकारों की स्थिति भी बतानी होगी जोकि हर हाल में पाकिस्तान के लिए असहज करने वाली बात है।
खास बात यह कि ऊपरी तौर पर भारत का रुख भले प्रतिक्रियात्मक लगे किन्तु तथ्य यह है कि जवाब देते हुए हर कदम सोच-समझकर रखा गया है। नहीं भूलना चाहिए कि इस बात पर भारतीय संसद की मुहर है कि पूरा जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। सो, प्रधानमंत्री ने कोई नई बात नहीं की है। हां, उन्होंने एक बिसराई हुई बात, संसद और इस पूरे राष्ट्र की भावना, को सही समय पर उठाकर भारत की कूटनीति को ऐसी रणनीतिक बढ़त दिला दी जिसकी जरूरत अरसे से महसूस की जा रही थी।
ऐसा भी नहीं है कि गिलगित-बाल्टिस्तान का जिक्र पाकिस्तान द्वारा ताव दिलाने पर बिना तैयारी के शून्य से उभर आया हो। एक वर्ष पूर्व भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अफगानिस्तान से लगती 100 किलोमीटर लंबी सीमा का जिक्र कर चुके हैं-यह सीमा गिलगित-बाल्टिस्तान का सीमावर्ती क्षेत्र ही है। सो, कहा जा सकता है कि भारत द्वारा दिए गए जवाब का समय, स्थान और स्तर.़.. कुछ भी अचानक नहीं है, बल्कि सब कुछ बारीकी से तय किया गया है। स्वतंत्रता दिवस पर गिलगित-बाल्टिस्तान का जिक्र इसलिए ज्यादा प्रासंगिक हो गया है, क्योंकि देश की अखंडता के उद्घोष के लिए इस दिन से बेहतर कोई समय नहीं हो सकता था। भारत को ललकारने वालों को जवाब देने के लिए इसकी ऐतिहासिक राजधानी के लालकिले से बेहतर प्राचीर नहीं हो सकती थी। बरसों से ठंडे बस्ते में पड़े इस मुद्दे पर पूरे देश की भावनाओं को ओजस्वी स्वर देने के लिए प्रधानमंत्री से बेहतर कोई जनप्रतिनिधि नहीं हो सकता था।
बिसराए हुए मोहरे कूटनीति की बिसात पर एक कदम आगे बढ़ गए हैं। आतंक को शह देने वालों की मात अब तय है।
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