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राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (1964-66) कोठारी आयोग, के प्रतिवेदन 'राष्ट्रीय विकास एवं शिक्षा' तथा इसके इस कथन कि 'राष्ट्र का निर्माण कक्षाओं में हो रहा है' को ध्यान में रखकर चला जाए तो यह बहुत ही स्पष्ट हो जाता है कि 'शिक्षा' का 'राष्ट्रीय विकास' के साथ सीधा, सहज व अत्यन्त आवश्यक सम्बन्ध है। 'राष्ट्र का उत्थान' ही 'शिक्षा-प्रक्रिया' का प्रमुख 'प्रकार्य है, जिसके लिए सुशिक्षित जनसमुदाय को निरन्तर इस दिशा में संलग्न रहकर अपने-अपने कर्त्तव्य का निर्वहन करना होगा। इसी समुदाय को भारतीय संविधान की उद्देशिका में 'हम भारत के लोग' वाक्यांश से उद्घोषित किया गया है। यहां यह विचार करना अनिवार्य होगा कि अन्तत: 'हम भारत के लोग' से क्या अभिप्राय है? इस तथ्य की स्पष्टता जहां संविधान के विभिन्न प्रावधानों में भिन्न-भिन्न प्रकार से आभासित होती है, तो साथ ही, संविधान आधारित विभिन्न वादों के अन्तर्गत विभिन्न मान्य न्यायालयों द्वारा प्रदत्त विभिन्न निर्णयों में भी। 1994 में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए एक वाद के निर्णय में यह बहुत ही स्पष्टता के साथ रेखांकित किया गया है कि 'हम भारत के लोग' में भारत की पहचान अथवा अस्मिता सीधे तौर पर संस्कृत से ही जुड़ी हुई है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51(अ) के उपबंध, विशेषत: (क) (ख) (ग) (घ) (ङ) एवं (च) भारत के वैविध्य में समाए ऐक्यभाव एवं भारत की समृद्घ संस्कृति एवं मूल्यों के संरक्षण के प्रति हमारे कर्त्तव्य का बोध कराते हैं। इस सन्दर्भ में दो प्रमुख तत्वों को इस प्रकार से देखा जा
सकता है।
एक, वैविध्य से परिपूर्ण होने पर भी भारत में एक 'सामासिक- संस्कृत ' की स्थापना का प्रश्न तथा इसका मुख्य उत्तरदायित्व संस्कृत को ही सौंपा गया है। (अनुच्छेद 351, भारत का संविधान)।
द्वितीय, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 344(1) एवं अनुच्छेद 351 के अन्तर्गत प्रदत्त अष्टम अनुसूची में 'संस्कृत' को विशेष रूप से स्थान देना।
इसके अतिरिक्त भारतीय संविधान की उद्देशिका के साथ-साथ विभिन्न अनुच्छेद (यथा-अनुच्छेद 19, 25, 43, 48 (अ), 49 आदि) समकालीन भारत के संवैधानिक लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु संस्कृत की महत्वपूर्ण भूमिका की ओर संकेत करते हैं।
डा़ सुनीति कुमार चटर्जी की अध्यक्षता में गठित 'संस्कृत आयोग' (1956-57) का चतुर्थ अध्याय 'संस्कृत एवं स्वतन्त्र भारत में की जाने वाली अपेक्षाएं' सम्पूर्णतया स्वतंत्र भारत में संस्कृत से की जाने वाली अपेक्षाओं से सम्बद्घ हैं। इसके अन्तर्गत प्रमुखतया राष्ट्रीय चेतना, संस्कृति, चरित्रोन्नयन, बौद्घिक पुनर्जागरण, राष्ट्रीय जीवन में संस्कृत की भूमिका के साथ-साथ संस्कृत साहित्य को मनुष्य के सम्पूर्ण-व्यक्तित्व विकास के साधन के रूप में रूपायित करने का प्रयास किया गया है। आयोग की दृष्टि में राष्ट्रीय भाषाओं के विकास में संस्कृत की अपरिहार्य भूमिका है। सप्तम अध्याय में आधुनिक एवं पारम्परिक शैक्षिक संस्थानों में उच्चस्तरीय शोधात्मक गतिविधियों के आयामों को बहुत ही विस्तार से देखने की चर्चा की गई है। इसी प्रकार दशम अध्याय में संस्कृत साहित्य में लिखित वैज्ञानिक साहित्य की परिचर्चा में इसे वैश्विक स्तर पर बौद्घिक जागरण की भाषा के रूप में वर्णित करने का प्रयास किया गया है।
स्वतन्त्र भारत की प्रथम राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1968) को उद्घृत करते हुए उच्चतम न्यायालय के एक निर्णय (1994) में यह संकेत देने का प्रयास किया गया है कि 'भारतीय भाषाओं के उद्भव एवं विकास में संस्कृत के विशेष महत्व और देश की सांस्कृतिक एकता में इसके योगदान को दृष्टि में रखते हुए विद्यालय एवं विश्वविद्यालय स्तर पर इस भाषा की सुविधाएं अधिक उदार आधार पर दी जानी चाहिए। भाषा शिक्षण की नयी पद्घतियों के विकास को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए तथा प्रथम एवं द्वितीय उपाधि के पाठ्यक्रमों (यथा, आधुनिक भारतीय दर्शन आदि) में, जहां ऐसा करना उपयोगी हो, संस्कृत-अध्ययन को सम्मिलित करने की सम्भावना का अन्वेषण किया जाना चाहिए।'
उच्चतम न्यायालय (1994) के इसी निर्णय में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 के आधार पर बहुत ही स्पष्ट रूप से यह उकेरने का प्रयास किया गया है कि अन्त:शास्त्रीय शोध हेतु संस्कृत की भूमिका तथा प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा को पहचानने की आवश्यकता है।
भारत में मानविकी विद्या एवं सामाजिक विज्ञानों में शोधकार्य को समर्थन दिया जाएगा। ज्ञान के संश्लेषण की आवश्यकता की पूर्ति हेतु अन्तर्विषयक शोध को प्रोत्साहित किया जाएगा। भारतीय ज्ञान के प्राचीन भण्डार की खोज करके उसे समकालीन वास्तविकता से जोड़ने के प्रयास किए जाएंगे। इसका अर्थ यह है कि 'संस्कृत' के गहन अध्ययन की सुविधाओं का विकास किया जाएगा।
प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा की दृष्टि से केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा निर्मित एवं संचालित पाठ्यक्रम का एक विशिष्ट महत्व एवं स्थान समझा जा सकता है।
उपरिलिखित शिक्षा नीति(1986) में बहुत ही स्पष्ट रूप से यह इंगित करने का प्रयास किया गया था कि भारत ने विभिन्न देशों में शांति और भाईचारे के लिए सदैव प्रयत्न किया है और इसके साथ ही 'वसुधैव कुटुम्बकम' के आदशोंर् को संजोया है। इस परंपरा के अनुसार शिक्षा-व्यवस्था का प्रयास होगा कि नयी पीढ़ी में विश्वव्यापी दृष्टिकोण सुदृढ़ हो तथा अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग और शांतिपूर्वक सह-अस्तित्व की भावना बढ़े।
स्पष्ट ही है कि इस प्रकार के भाव संस्कृत साहित्य में ('सर्वे भवन्तु सुखिन:' जैसे) न जाने कितने विशाल स्तर पर विद्यमान हैं। इस प्रकार से देखने पर यह अनुभूति अन्तस्तल तक स्पर्शन-सा करने लगती है कि संस्कृत साहित्य का विशाल भण्डार प्राचीन से सम्बद्घ होने पर भी अत्यन्त समकालीन चुनौतियों के समाधानों से अनुस्यूत है। यही कारण है कि यह सदैव अनुभव किया जाता रहा है कि शिक्षा के सभी स्तरों पर, विशेषत: विद्यालयीय स्तर पर बच्चों के बौद्घिक, भावात्मक एवं सामाजिक विकास की दृष्टि हेतु संस्कृत के अध्ययन-अध्यापन को विशिष्ट महत्व दिया जाना चाहिए। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (2005) में स्पष्ट करने का प्रयास किया गया था कि संस्कृत शिक्षण के पठन-पाठन का विस्तार किया जाना चाहिए।
आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में वरिष्ठ माध्यमिक स्तर पर संस्कृत-शिक्षण सामान्यत: कला-वर्ग तक सीमित हो गया है। फलत: वाणिज्य और विज्ञान के विद्यार्थी संस्कृत की ज्ञान-विज्ञान परम्परा से वंचित रह जाते हैं। अत: आवश्यक है कि सभी भारतीय विद्यार्थियों को संस्कृत की व्यापक वैज्ञानिक चिंतन परम्परा से परिचित कराया जाए।
यहां यह स्पष्ट होना चाहिए कि संस्कृत की व्यापक वैज्ञानिक परम्परा केवल कालखण्ड की दृष्टि से ही प्राचीन मानी जा सकती है न कि अपनी सामग्री, सिद्घान्तों अथवा परिणामों की दृष्टि से। यह सुपरिचित तथ्य है कि संस्कृत का साहित्य केवल ललित-साहित्य तक ही परिसीमित नहीं है, अपितु आधुनिक सभी ज्ञान-विज्ञान की शाखाओं का साहित्य इसमें उपलब्ध है, परन्तु उसके पठन-पाठन हेतु जिस प्रकार की विधियों-प्रविधियों का अन्वेषण कर उनका उपयोग किया जाना चाहिए था उसका विकास नहीं किया जा सका। भारत में गठित विभिन्न शिक्षा आयोगों ने बहुत ही आग्रह एवं स्पष्टतापूर्वक इस ओर संकेत करने का प्रयास किया है कि संस्कृत-शिक्षण-विधियों में परिवर्तन की अपेक्षा है। इसके अन्तर्गत भाषिक-अध्ययन को महत्व देने की चर्चा विशेष रूप से की जाती रही है।
यहां यह समझना अनिवार्य होगा कि सामान्यत: भाषा के औपचारिक पठन-पाठन के अन्तर्गत द्वितीय अथवा तृतीय आदि भाषा से अभिप्राय लिया जाता है-कोई अपरिचित 'नूतन' अथवा 'विदेशी' भाषा। भारतीय शैक्षिक व्यवस्था में त्रिभाषा-सूत्र के अन्तर्गत संस्कृत का शिक्षण प्राय: तृतीय भाषा के रूप में किया जाता है। परन्तु यह स्पष्ट है कि भारतीय व्यवस्था में संस्कृत एक नूतन, अपरिचित अथवा विदेशी भाषा नहीं है। अपितु प्रत्येक भारतीय अपनी मातृभाषा में व्यवहार करते हुए अनायास ही संस्कृत का प्रयोग करता चलता है। कारण स्पष्ट है कि प्राय: भारत की सभी भाषाओं में लगभग 60-70 प्रतिशत शब्दों तथा वाक्य संरचना का स्वरूप संस्कृत से प्रभावित है। अत: औपचारिक रूप से अध्ययन न करने की स्थिति में भी प्राय: प्रत्येक भारतीय किसी-न-किसी रूप में संस्कृत के स्वरूप व व्यवहार से अनभिज्ञ नहीं है अपितु इसके स्वरूप से परिचित है व इसका व्यावहारिक प्रयोग भी करता है। अत: इसके पठन-पाठन की प्रक्रिया अपरिचित भाषा के रूप में पढ़ाई जाने वाली तृतीय भाषा के रूप से भिन्न होनी चाहिए अर्थात् औपचारिक अधिगमनात्मक सिद्घान्तों की अपेक्षा अर्जनात्मक कौशलों को केन्द्र में रखना ही स्वाभाविक रूप से इष्ट होना चाहिए। पुन:, मौखिक स्वरूप से लिखित स्वरूप की ओर अग्रसर होना ही भाषा शिक्षण का स्वाभाविक रूप होगा। भाषा-अर्जन का रूप ही मूलत: भाषा सीखने का स्वाभाविक व सहज मार्ग है। इसलिए संस्कृतमय परिवेश के निर्माण का प्रयास ही शिक्षण का लक्ष्य होना चाहिए।
भाषा-शिक्षण की प्रक्रिया के स्वरूप को निर्धारित करने वाला एक अन्य आधारभूत तत्व भाषा के प्रयोजन पर आश्रित रहता है। इस दृष्टि से भारत में संस्कृत का विशिष्ट स्थान है। जैसा कि संकेत किया जा चुका है कि भारत में संस्कृत का पठन-पाठन एक संवैधानिक उत्तरदायित्व है, तदनुसार इसका स्वरूप बहु-आयामी है। अत: शिक्षण विधियों का स्वरूप भी बहु-आयामी होना चाहिए। आधुनिक सन्दभोंर् में भारत में जहां आवश्यक शिक्षा अधिनियम (2009) के अन्तर्गत सभी बच्चों को शिक्षा देने की चर्चा ही नहीं अपितु क्रियान्वयन को आकार देने के प्रयासों की ओर ध्यान देने का प्रश्न प्रमुख होता जा रहा है वहीं इसके गिरते स्तर की चिन्ता भी प्रमुखत: मुखर होती जा रही है। शिक्षा की गुणात्मकता शिक्षा की एक प्रमुख समस्या बन गई है। इसके सन्दर्भ में दिए गए तकोंर् व समाधानों में प्राय: सहमति-सी दिखाई देने लगी है कि गिरते स्तर का एक प्रमुखतम कारण सभी स्तरों पर शिक्षा के माध्यम के रूप में भारतीय भाषाओं का न होना है। भारतीय संविधान में केवल प्राथमिक स्तर तक ही मातृभाषा में शिक्षा देने की चर्चा की गई है परन्तु इसके बाद की माध्यमिक अथवा उच्चशिक्षा के माध्यम की चर्चा नहीं की गई। परिणामत: मातृभाषा में बनी संकल्पनाओं के साथ बच्चा अन्य भाषा के साथ तालमेल नहीं बिठा पाता, परिणामत: शैक्षिक दृष्टि से पिछड़ापन स्थान लेने लगता है। इसके पीछे प्रमुखत: सामग्री की अनुपलब्धता को ही कारण बताया जाता रहा है कि भारतीय भाषाओं में ज्ञान-विज्ञान हेतु शब्दावली की अनुपलब्धता है। यहां यह स्पष्ट होना चाहिए कि इस सन्दर्भ में संस्कृत की अद्भुत शब्द-निर्माण की क्षमता को ध्यान में रखते हुए भारतीय भाषाओं को समृद्घ किया जाना चाहिए।
यद्यपि इस प्रकार का प्रयास पहले भी डा़ रघुवीर की अध्यक्षता में किया गया था। विभिन्न पारिभाषिक शब्दावलियों का निर्माण तो किया गया था परन्तु उसके क्रियान्वयन के सघन प्रयास दृष्टिगत हुए, ऐसा आभास नहीं हो पाता। अब वैश्विक स्तर पर ज्ञान-विज्ञान की शब्दावली हेतु संस्कृत को स्रोत-भाषा के रूप में देखा जा सकता है। प्राचीन एवं नूतन ज्ञान-विज्ञान में विचारित किए जा रहे अन्तराल को दूर करने में संस्कृत को साधन के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है। 'संस्कृत आयोग'(1956-57) का मत था कि संस्कृत-शालाओं में वैज्ञानिकों एवं विज्ञान-शालाओं में संस्कृत विद्वानों की नियुक्तियां की जानी चाहिए।
इस प्रकार शैक्षिक दृष्टि से भारत में विद्यालयी शिक्षा से सम्बद्घ 'राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 में संस्कृत को एक आधुनिक भाषा के रूप में पढ़ाने का प्रस्ताव रखते हुए यह स्पष्ट करने का प्रयास किया गया था कि 'संस्कृत भाषा एवं साहित्य का राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से विशिष्ट महत्व है। संस्कृत साहित्य की मूल चेतना वैविध्य को बनाए रखते हुए भारत को एक राष्ट्र के रूप में देखने की है। भारतवर्ष में क्षेत्रीय विषमताओं के होने पर भी जिन तत्वों ने इस देश को एकसूत्र में बांध रखा है उनमें संस्कृत भाषा तथा इसका साहित्य
महत्वपूर्ण है।'
वैश्विक स्तर पर यूनेस्को द्वारा गठित शिक्षा-समिति ('डेलार्स-समिति') के प्रतिवेदन में शिक्षा के लक्ष्य के रूप में जिन चार आधारभूत स्तम्भों को आधार बनाया गया है वे मूलत: विश्व-शान्ति हेतु ऋग्वैदिक दर्शन ('संगच्छध्वं संवदध्वं़'(मिलकर चलो, मिलकर बोलो) अथवा 'मनुर्भव' (मनुष्य बनो) जैसे सिद्घान्तों का ही अनुमोदन करते हैं।
इस प्रकार वैश्विक स्तर पर संस्कृत को एक वैश्विक भाषा के रूप में देखने व समझने की विशिष्ट प्रक्रिया प्रारम्भ हुई है जिसका अत्यन्त ही सटीक, तार्किक एवं विस्तृत विवेचन श्री राजीव मल्होत्रा की सद्य: प्रकाशित नूतन पुस्तक 'संस्कृत के लिए संघर्ष' में प्राप्त होता है। वस्तुत:, जैसा कि संकेत दिया जा चुका है कि तकनीकी युग की ओर अग्रसर होते इस विश्व में संस्कृत को बौद्घिक सम्पदा के रूप में रूपायित करने हेतु नित-नूतन प्रयासों के निरन्तर बढ़ने की दृष्टि से संस्कृत का संरचनात्मक-गठन एवं साहित्यिक-वैशिष्ट्य एक कौतुहल का विषय बना हुआ है। कृत्रिम-बुद्घि, प्राकृतिक-भाषा-प्रक्रिया एवं संगणकीय भाषाविज्ञान की दृष्टि से संस्कृत की उपयोगिता के सन्दर्भ में विभिन्न प्रयोगों अथवा शोधों के प्रति एक विशिष्ट आग्रह की ओर ध्यान आकर्षित होता जा रहा है। पाणिनिमुनि द्वारा रचित संस्कृत-व्याकरण (अष्टाध्यायी) का स्वरूप उच्चस्तरीय रूप से अभिक्रमित शैली में अत्यन्त व्यवस्थित रूप में निबद्घ है। यह प्रजनात्मक व्याकरण का एक उत्तम उदाहरण माना जाता है। इसके विभिन्न लक्षणों के आधार पर संस्कृत को वैज्ञानिक भाषा के रूप में भी देखा जाता है। वैश्विक स्तर पर संस्कृत के सन्दर्भ में आयोजित 'संगणकीय भाषाविज्ञान सम्मेलन' संस्कृत को एक महत्वपूर्ण शोधात्मक विषय के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
उपर्युक्त सम्पूर्ण परिप्रेक्ष्य से यह सहज रूप से उभरता है कि किसी भी अन्य भाषा की भांति संस्कृत के पठन-पाठन के सन्दर्भ को अत्यन्त व्यापक रूप में देखने, समझने व विस्तार देने की अत्यधिक आवश्यकता है। इसके पठन-पाठन के प्रयोजनों को भिन्न-भिन्न रूपों में समझते हुए इसके आयामों को विस्तार देने की आवश्यकता है।
तदनुसार ही शिक्षा व्यवस्था के विभिन्न स्तरों पर विशिष्ट-प्रयोजन निष्ठ पाठ्यचर्याओं एवं अध्ययन-अध्यापन की शैलियों के चयन करने अथवा अन्वेषण करने की आवश्यकता को आकार देने की आवश्यकता है। सौभाग्य से, भारत में संस्कृत के भावी विकास के सन्दर्भ में भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एवं वर्तमान में 'राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ, तिरुपति' के कुलाधिपति श्री एन. गोपालस्वामी की अध्यक्षता में सद्य: ही गठित समिति के प्रतिवेदन 'दृष्टि एवं आलोक पथ' में संस्कृत के विकास हेतु नूतन दृष्टि से एक विस्तृत योजना का प्रारूप प्रस्तुत किया गया है। इसमें अष्टादशी के रूप में संस्कृत के स्थायी विकास के सन्दर्भ में प्रायोजनाओं का अत्यन्त तार्किक दृष्टि से विवेचन प्राप्त होता है। इसी प्रकार अनेक भारतीय विश्वविद्यालयों (यथा, ओस्मानिया विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय आदि), प्रबन्धन संस्थानों एवं अभियान्त्रिकी संस्थानों (यथा, कुछ 'भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान' आदि) में संस्कृत के अध्ययन-अध्यापन को प्रबन्धन, संगणकीय तथा विज्ञान आदि की दृष्टि से देखा जा रहा है।
इसी प्रकार, अनेकों गैर-सरकारी-संस्थानों में भी (यथा, संस्कृत -सप्ताह के विशिष्ट अवसर पर) संवर्धन प्रतिष्ठान', 'व्योमा लिंग्विस्टिक लैब्स फाउण्डेशन' आदि) संस्कृत के अध्ययन-अध्यापन की दृष्टि से सामग्री का निर्माण भी किया जा रहा है।
अत: यह सुखद तथ्य होगा कि वैश्विक स्तर पर सामाजिक विकास हेतु संस्कृत के महत्व एवं आवश्यकता को अनुभूत कर इसके संवर्धन एवं विकास कार्य में हम संलग्न हों। यही संस्कृत दिवस अथवा सप्ताह का संकल्प हो। -प्रो. चांदकिरण सलूजा
(लेखक दिल्ली विवि. के शिक्षा केन्द्र के पूर्व प्रोफेसर व वर्तमान में संस्कृत भारती के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं)
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