|
-प्रशांत बाजपेई –
उनका 'काला दिन'मना पर दुनिया में कोई खास सुर्खियां नहीं बटोर पाया। आंतंकी बुरहान बानी की मौत पर स्यापा करने और कश्मीर घाटी के मुट्ठीभर अलगाववादियों के समर्थन में पाकिस्तान सरकार ने जब से इसकी घोषणा की थी तब से नवाज शरीफ भारत के मीडिया और सोशल मीडिया में काफी जलील हो रहे थे। इस पर काफी कुछ कहा-सुना गया। अब इस्लामाबाद और रावलपिंडी के बीच घटे एक घटनाक्रम पर नजर डालिए। मई के आखिर में लंदन में नवाज की ओपन हार्ट सर्जरी हुई। नवाज की अनुपस्थिति में सेना प्रमुख राहिल शरीफ ने पाकिस्तान और दुनिया को अपनी दबंगई दिखाने का फैसला किया। राहिल शरीफ ने नवाज की पूरी कैबिनेट को 'बात' करने के लिए रावलपिंडी के अपने मुख्यालय में हाजिर होने का हुक्म दिया।
सारे मंत्री भागे-भागे हाजिरी लगाने पहुंचे। वहां सेना प्रमुख ने उनसे उनके कामकाज के बारे में पूछताछ की और पाकिस्तान को कैसे चलाना चाहिए, इस पर भाषण दिया। राहिल के पूर्ववर्ती अशफाक कयानी ने पाकिस्तान की 'रक्षा' और विदेश नीति को अपनी पकड़ में रखा, जैसी कि पाक फौज की परंपरा है, लेकिन अन्य मामलों में हस्तक्षेप करने में रुचि नहीं दिखाई। पर फौज की कमान संभालने के बाद राहिल शरीफ धीरे-धीरे नवाज शरीफ को कदम दर कदम पीछे धकेलते गए। नवंबर, 2015 में पाक फौज के पूर्व लेफ्टिनेंट जनरल तलत मसूद ने न्यूयॉर्क टाइम्स से बात करते हुए कहा था, ''मैं इसे नरम किस्म का तख्तापलट तो नहीं कहूंगा, लेकिन नागरिक सरकार ने अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए सेना के लिए जगह छोड़ी है, और इसका कारण उनकी अपनी गलतियां हैं।''
क्या हैं वे गलतियां? सबसे बड़ी गलती है भारत सरकार के शांति प्रयासों पर सकारात्मक रुख दिखाना। याद करिए फौज के दो प्यादों इमरान खान और ताहिर उल कादरी द्वारा नवाज और उनके मुख्यमंत्री भाई की नाक के नीचे मचाया गया उत्पात। आश्चर्य नहीं कि हाल ही में पाकिस्तान के दूरदराज के इलाकों में फौज से सत्ता हथियाने की मिन्नतें करते होडिंर्ग-पोस्टर खुद रावलपिंडी वालों ने ही लगवाए हों। राहिल का दूसरा कदम था मीडिया और सोशल मीडिया प्रबंधन। नवाज शरीफ परिवार पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को खूब उछाला गया। मानो मिस्टर टेन परसेंट के नाम से मशहूर जरदारी दूध के धुले थे। फिर पाक फौज से ज्यादा भ्रष्ट पाकिस्तान में कौन है? कितने ही पूर्व जनरल अरबपति हैं, जिनकी औलादें हार्वर्ड और आक्सफोर्ड में पढ़ रही हैं।
आतंकवाद के चलते पाकिस्तानियों को दुनिया के देश वीजा देने में आनाकानी करते हैं और दोष नवाज पर थोपा जाता है। अबूधाबी में मोदी का हार्दिक स्वागत होता है, या ईरान से चाबहार को लेकर भारत समझौता करता है, गाली (जी हां, गाली) नवाज शरीफ को पड़ती है। मीडिया में फौज के लोग हैं। शिक्षा संस्थानों में, व्यापार में, मदरसों में सब जगह फौज के लोग हैं। 'ये तो व्यापारी आदमी है। अपने बिजनेस के फायदे के लिए दुश्मन (भारत) से हाथ मिला रहा है।' आप पाकिस्तान के टीवी कार्यक्रमों में चाहे जिसे नवाज पर ये आरोप लगाते सुन सकते हैं।
12 मई को फौज ने नवाज और राहिल की मुलाकात का एक छोटा-सा वीडियो बातचीत की आवाज को मिटाए बिना लीक करवाया। वीडियो में जनरल की भाव-भंगिमा और आवाज ऐसी है जैसे कि वे अपने प्रधानमंत्री से नहीं, बल्कि अपने अर्दली से बात कर रहे हैं। नवाज ने हालात के आगे शिरा झुका दिया है। तख्ता पलट और जेल की सलाखें क्या होती हैं, मुशर्रफ और उनके पूर्ववर्तियों ने उन्हें अच्छी तरह समझा दिया है।
कश्मीर मुद्दे की आज पाकिस्तान के शहरी मतदाताओं के बीच प्रासंगिकता नहीं रह गई है। पाकिस्तान में लोग समझ रहे हैं कि भारत से कश्मीर छीनना संभव नहीं है, और कम से कम वे पाक सरकार से तो इसकी उम्मीद नहीं करते। यदि उन्हें उम्मीद पालनी ही है तो वे अपने 'मुजाहिदीन' फौजियों से आस लगाना पसंद करेंगे। पाक मीडिया भी खुलकर बोलता है कि भारत कश्मीर पर पीछे हटने वाला नहीं है। नवाज शरीफ भी यह बात समझते हैं, लेकिन वे घबराते हैं जब बात इस्लाम और मुसलमान की हिफाजत की होने लगती है। आज पाकिस्तान में कश्मीर के मुद्दे को इस्लाम का मुद्दा बनाकर ही पेश किया जाता है। वे जानते हैं कि 'इस्लाम खतरे में है' कहकर उन्हें कभी भी तख्ता पलट की सूली पर टांगा जा सकता है।
फौज ने तख्तापलट नहीं भी किया तो हाफिज सईद का जमात उद दावा, जमात ए इस्लामी पाकिस्तान और आईएसआई के इशारे पर चल रहे कई दर्जन मजहबी इदारों के मजमे यानी कि दिफा ए पाकिस्तान वाले उन्हें मुसलमानों का खून पीने वाला खलनायक साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। इसका सबसे ज्यादा असर पंजाब में ही होने वाला है। पिछले तीन दशक में पाकिस्तान के पंजाब में इस्लामी कट्टरता का उबाल आया है। सऊदी अरब का पैसा, देवबंदियों-जमातियों-वहाबियों और अहले हदीस वालों के कारखाने साल दर साल जिहादी उगल रहे हैं। हाफिज सईद हर तीसरे दिन भारत के खिलाफ जहर उगल रहा है। अपनी तकरीरों में वह नवाज शरीफ को 'काफिर' हिन्दुस्तान से हाथ मिलाने के लिए पानी पी-पीकर कोसता है। सईद को भले ही दुनिया में दुर्दांत आतंकी माना जाता हो, लेकिन पाकिस्तान में उसे कोई दहशतगर्द कहने की हिम्मत नहीं कर सकता। उसके आतंकी संगठन जमात उद दावा (मूलत: लश्कर ए तैयबा) की पाकिस्तान में एक इस्लाम परस्त सेवाभावी संगठन की छवि है। यह कुछ वैसा ही है जैसे कि ईरान समर्थित हिजबुल्ला को लेकर लेबनान में भावनाएं हैं। पेट्रो डॉलर और जकात के धन, आईएसआई के अभिभावकत्व और प्रभाव का इस्तेमाल कर हथियाए गए सरकारी संसाधन उसकी मसीहा की छवि गढ़ने में मददगार रहे हैं।
एक उदाहरण के तौर पर, हर बकरीद के बाद जमात उद दावा के लोग पूरे पाकिस्तान में जिबह किए गए जानवरों की खाल को जकात के रूप में मांगते हैं और इससे अरबों की कमाई करते हैं। इन संसाधनों के बल पर और अपनी मदरसा फौज के सहारे वह पाकिस्तान में शिक्षा-स्वास्थ्य संबंधी खैराती काम कर रहा है। जैसे कि संगठन के नाम में शामिल 'दावा' शब्द जाहिर करता है। हाफिज के लोग तथाकथित 'सच्चे इस्लाम' के प्रसार और गैर-मुस्लिमों को मुस्लिम बनाने का काम भी करते हैं जिसे पाकिस्तान में सबसे बड़ा सबाब का काम समझा जाता है। फलस्वरूप पाकिस्तान में हाफिज के गिरोह की पकड़ बढ़ती जा रही है।
पाकिस्तानी समाज में इस्लामीकरण की जो नई लहर चल रही है उसे भुनाने और पाकिस्तान की मुख्यधारा की राजनीति को 'इस्लामी कायदों' के अंदर रखकर नियंत्रित करने के लिए साल 2011 में पाक फौज ने दिफा ए पाकिस्तान को गढ़ा था, जिसमें पूर्व आईएसआई प्रमुख हामिद गुल ने सूत्रधार की भूमिका निभाई थी। हाफिज सईद इसका उपाध्यक्ष है। इसलिए जब हाफिज सईद अपनी तीखी आवाज में कश्मीरी 'जिहाद' का नारा बुलंद करता है तो नवाज को ठंडा पसीना आ जाता है। सत्ता के बाहर बैठी उनकी प्रतिद्वंदी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी भी इस माहौल को अपने राजनीतिक फायदे के लिए भंजा रही है जबकि पिछले पांच साल सत्ता में रहते हुए उसके सुर भारत के लिए नरम ही बने रहे। लेकिन अपनी नेतागीरी जमाने को बेचैन बिलावल भुट्टो भी कश्मीर पर अपने नाना के पुराने भाषणों को दुहरा रहे हैं।
नवाज भारत के साथ शराफत से पेश आना चाहते हैं, ऐसे संकेत वे कई बार दे चुके हैं, लेकिन दिक्कत दूसरे शरीफ की तरफ से है। पिछले दो वर्ष से पाक सेना प्रमुख राहिल शरीफ उन पर आंखें गड़ाए गुनगुना रहे हैं कि मार दिया जाए या छोड़ दिया जाए। नवाज उन्हें कोई मौका नहीं देना चाहते। आज जब कश्मीर में भारतीय सुरक्षा बल बड़े पैमाने पर जिहादियों का शिकार कर रहे हैं, और कई कुख्यात 'गाजी' कब्र में पहुंच चुके हैं तब आईएसआई एक बार फिर 'इन्तेफदा' की ओर मुड़ती दिख रही है, जिसका शाब्दिक अर्थ कंपन है और वास्तविक आशय है प्रचार (दुष्प्रचार) युद्ध से। बीन बज रही है। सब नाच रहे हैं – पाक मीडिया, पाकिस्तान के मजहबी संगठन, उसकी राजनीतिक पार्टियां, पिटे-पिटाए कश्मीरी अलगाववादी।
नवाज क्यों न नाचें? पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर कोई पालता है भला? 65 की लड़ाई में अपने चाचा और 71 की लड़ाई में अपने बड़े भाई को खो चुका जनरल उन्हें हिंसक नजरों से घूर रहा है। 'काले दिन' की मजबूरी के पीछे पाकिस्तानी खाकी का दशकों पुराना इतिहास है।
टिप्पणियाँ