गुरु पूर्णिमा पर विशेषगुरु यानी जीवन का जीपीएस
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अजय विद्युत
गुरु नानक कहते हैं कि दुनिया में किसी भी व्यक्ति को भ्रम में नहीं रहना चाहिए। बिना गुरु के कोई भी दूसरे किनारे तक नहीं जा सकता। नानक ठीक कह रहे हैं क्योंकि हम अभी भ्रम में ही हैं और शायद लगातार रहते। यह भ्रम अंग्रेजी का 'डाउट' है, अस्पष्टता है। पता नहीं चल रहा कि इधर जाएं या उधर। व्यक्तिगत जीवन, संबंध, कामकाजी व्यस्तता से लेकर अगर भीतर से खुद को जानने की जिज्ञासा उठे तो भी, हमें फैसला लेने में कठिनाई आती ही है। यहीं बात आती है समर्पण की। जब संदेह गहरा जाए तो क्या करें। किधर की भी तो यात्रा करनी होगी। भरोसा और हिम्मत चाहिए। तब जिसे स्वयं को समर्पित कर दिया, फिर उसकी उंगली पकड़कर चला जा सकता है। कहीं भी ले जाए। जब हम छोटे थे तो यही तो करते थे। माता या पिता की उंगली के सहारे कितनी-कितनी यात्रा कर आते थे। बड़े होने पर जीवन की यात्रा में संशय आ घेरते ही हैं। अब बचपन की वह उंगली काम न आ सकेगी, तो गुरु चाहिए।
लेकिन यहीं हम समझते हैं कि समर्पण करना तो अंग्रेजी का 'सरेंडर' है। यानी हमने हार मान ली कि अब हमसे कुछ भी न हो सकेगा। अहंकार रोकता है। और हम कुछ समय के लिए एक भ्रम के खिलाफ दूसरे भ्रम को खड़ा कर लेते हैं। हालांकि उसे हम अपनी बुद्धिमत्ता और होशियारी मान रहे होते हैं। वहीं कुछ दार्शनिक विचार हमें ऐसे मिल भी जाते हैं कि हमें गुरु क्यों चाहिए? बेकार का एक बोझा है जिंदगी में।
यहीं जे. कृष्णमूर्ति हमें हमारी कमजोरी दिखाते नजर आते हैं। वे कहते हैं, ''आप किसी गुरु का चयन करते हैं क्योंकि आप भ्रांत हैं और आस लगाते हैं कि आप जो चाहते हैं वह गुरु आपको देगा। आप एक ऐसे गुरु को स्वीकार करते हैं जो आपकी मांग को पूरा करे। गुरु से मिलने वाली परितुष्टि के आधार पर ही आप गुरु को चुनते हैं और आपका यह चुनाव आप की तुष्टि पर ही आधारित होता है। आप ऐसे गुरु को नहीं स्वीकार करते जो कहता है, 'आत्म-निर्भर बनें'। अपने पूर्वग्रहों के अनुसार ही आप उसे चुनते हैं। चूंकि आप गुरु का चयन उस परितुष्टि के आधार पर करते हैं जो वह आपको प्रदान करता है, तो आप सत्य की खोज नहीं कर रहे हैं, बल्कि अपनी दुविधा से बाहर निकलने का उपाय ढूंढ रहे हैं, और दुविधा से बाहर निकलने के उस उपाय को ही गलती से सत्य कह दिया जाता है।'' जिस संशय को जीवन से निकालने के लिए गुरु की दरकार थी, उसे मन का एक हिस्सा तो पहले ही रोकने में लगा था। अब उसे दार्शनिक आधार या कुछ लोगों की भाषा में संबल भी मिल जाता है।'
कृष्णमूर्ति बड़े प्यारे, ज्ञानी और वास्तविक बुद्धपुरुष हैं। बड़ी संख्या रही उनके अनुयायियों की। और उनकी ये बातें बिल्कुल खरी और किसी भी संदेह से परे हैं कि यदि आप अपने रोम-रोम में खुश होते, यदि समस्याएं न होतीं, यदि आपने जीवन को पूर्णतया समझ लिया होता, तो आप किसी गुरु के पास न जाते।
पर ऐसे विरले कितने हैं जिन्होंने जीवन को समझ लिया। यहां छोटी-छोटी बातें उलझन बनकर खड़ी हैं इसीलिए तो गुरु की दरकार है। थोड़ा लालच, आलस्य या प्रमाद तो पृथ्वी तत्व के कारण मनुष्य में है लेकिन वह काम से उत्पन्न देह और कामनाओं से भरा मन भी तो मोक्ष की चाह कर सकता है। हर युग में कुछ-कुछ लोगों ने किया ही है। क्या उसकी बीमारी के लिए चिकित्सक नहीं चाहिए।
एक बात जान लेने की है कि क्या हमें हमारे अस्तित्व का पता है? क्या उसके बारे में सवाल हमारे मन में उठते हैं। कभी प्यास इतनी भी बढ़ी कि उत्तर पाने के लिए हम जीवन तक को दांव पर लगाने को तैयार हो जाएं। इससे पहले गुरु की खोज नहीं की जा सकती। वैसे आज आधुनिक परिवेश में अध्यात्म भी एक चलन-सा बन गया है। लोग गुरु के पास जाते हैं ताकि दूसरों को बता सकें कि देखो, हम भी कुछ कम आध्यात्मिक और धार्मिक नहीं हैं। संपूर्ण मानवता के सरोकारों की हमें भी फिक्र है। और फिर वह किसी को अपना गुरु बना लेते हैं।
पूजा-अर्चना शुरू हो जाती है। तमाम आडम्बर चलते हैं। उनके चेहरे पर कोई प्रसन्नता, परिपूर्णता नहीं दिखती। श्री श्री रविशंकर यहीं चेताते हैं कि ''यदि तुम गुरु के साथ निकटता का अनुभव नहीं कर रहे, तो गुरु की आवश्यकता ही क्या है? वह तुम्हारे लिए एक और बोझ है। तुम्हारे पास पहले ही बहुत बोझ हैं। बस, अलविदा कह दो।''
तो दो बातें हैं। एक तो हम किसी बड़ी प्यास को लेकर इतने तड़प उठें, आविष्ट हो जाएं कि गोरख का 'मरो रे जोगी मरो, मरो मरण है मीठा' से रक्त और श्वास की संगति जुड़ जाए। अब फार्मूले की दरकार नहीं रही, पानी चाहिए। कीमत का सवाल नहीं। और जिस भी व्यक्ति या वस्तु में गुरु तत्व का अनुभव हो उसमें स्वयं को पूरी तरह समर्पित कर दें। क्यों?
क्योंकि समर्पण कुछ खोना नहीं है, रूपान्तरण है। वह वैसा ही है कि एक बूंद का महासागर में मिल जाना। बूंद फिर बूंद नहीं रहती, महासागर हो जाती है। समर्पण के बिना न हम गुरु को महसूस कर पाते हैं, न ईश्वर को और न अपनी आत्मा को। श्रीश्री कहते हैं कि ''समर्पण से गांठ खुलती है… बाधाएं हटती हैं… रास्ता बनता है… नाता जुड़ता है। और तुम वही हो जाते हो, जो मूल स्वरूप में तुम हो।''
ओशो ने दुनिया के तमाम देशों में विभिन्न सभ्यताओं और विचारों से जुड़े एक बड़े वर्ग को प्रभावित किया है। वह तो कहते हैं कि सीधे अपने को गुरु के हवाले कर दो। वह कुएं में कूदने को भी कहें तो तुरंत कूद जाना। एक सेकेंड के लिए भी गुरु की बात को लेकर यह विचार आया कि कूदें या न कूदें तो समझो हमेशा के लिए चूक गए। भरोसा इतना होना चाहिए जितना बचपन में अपने पिता पर करते थे। और फिर वह तो तुम्हें तुम्हारे असली पिता से मिलवाने वाला है जो परमपिता हैं।
'गुरु कुम्हार शिष्य कुंभ है' कबीर की यह टेक सुनी-पढ़ी तो बहुत गई। उससे कई ज्ञानी भी बन गए और बाद में उपदेश भी देने लगे। लेकिन जो बात पकड़ से बाहर ही रही और अनुभव में नहीं उतरी वह थी गुरु की तलाश में लोग यह समझते हैं कि वह गुरु का चयन कर लेंगे।
वह मिट्टी को कुंभ में ढालने की बात कह रहे हैं और यहां लोग गुरु के पास कुंभ बनकर ही पहुंच रहे हैं। ऊपर-ऊपर कुछ निखार पैदा कर दें, रंगरोगन कर दें। बाकी तो वे जान ही लेंगे। इसलिए वे कुंभ न तो गुरु के किसी काम के रहे और न गुरु उनके किसी काम का रहा। समर्पण वहां था ही नहीं। वे ज्ञान की प्यास से तड़प नहीं रहे थे, जानकारी बढ़ाने और ज्ञानी कहलाने के लिए पानी का फार्मूला जानने आए लोग थे।
एक आध्यात्मिक संगोष्ठी का विषय था- समर्पण, गुरु और जीवन की प्रसन्नता। वहां यह बात बहुत काम की लगी कि मानव का स्वभाव ऐसा है कि जब तक आप सीमाओं को पार नहीं करते, तब तक आप परम आनंद का अनुभव नहीं कर सकते।… ये सामान्य वचन नहीं हैं। बिना अतिक्रमण के रूपान्तरण संभव ही नहीं है। और अतिक्रमण के लिए जिस
धैर्य और साहस की जरूरत है उसे समर्पण के सिवा किसी भी दूसरे तत्व से पाया नहीं
जा सकता।
आपके पास गाड़ी है। आप लंबे सफर पर निकले हैं। इलाका अनजाना है। तो किसके सहारे यात्रा करते हैं। आप जीपीएस यानी ग्लोबल पोजीशनिंग सिस्टम का सहारा लेते हैं। और ठीक स्थान पर पहुंच जाते हैं। अगर कभी एक चौराहे पहले या बाद में गाड़ी मोड़ भी दी तो कुछ ही समय में फिर सही राह पर आ जाते हैं, क्योंकि जीपीएस आपको निर्देशित कर रहा होता है। इसी तरह जीवन में कई सोपान हैं और फिर जिज्ञासा जितना ज्यादा अपने अस्तित्व को जानने की बढ़ेगी उतनी ही अस्पष्टता भी बढ़ेगी। वहां गुरु के प्रति आपका समर्पण ही काम आएगा। वह भी जीपीएस के रूप में आपको आपके परम लक्ष्य तक पहुंचाएगा। बस उस जीपीएस का नाम है- गुरु। सद्गुरु कहते हैं कि यह वह इलाका है जहां अभी तक गूगल की पहुंच नहीं हुई है।
हम विराट से उत्पन्न हैं और उसी विराट का एक स्वरूप हैं। लेकिन अपनी पहचान भुला बैठे हैं। तो गुरु यात्रा तो हमसे ही करवाएगा, लेकिन हमारी हमसे मुलाकात हो जाए और उस समुद्र तक जा पहुंचें जिसकी एक बूंद हम हैं, इसका माध्यम वह बनता है। जिस भी दिन हमने समर्पण का इरादा कर लिया पक्के मन से, उसी दिन से वह हमारी उंगली थाम लेता है। सभी को गुरु पूर्णिमा की अशेष शुभकामनाएं।
गुरु कोई व्यक्ति नहीं, ज्ञान है
जब व्यक्ति गुरु तत्व के सिद्धांत के साथ चलता है, तब उसकी सभी सीमाएं मिट जाती हैं और वह आसपास के सभी व्यक्तियों और ब्रह्मांड के साथ एक होने का अनुभव करने लगता है। गुरु तुम्हारे असली स्वभाव का ही प्रतिबिम्ब है। जब व्याकुलता बहुत ज्यादा बढ़ जाए, तब समर्पण में आश्वासन पाओ।
ल्ल श्री श्री रविशंकर
गुरु विशालता का रूप है। अंग्रेजी शब्द 'गाइड' संस्कृत के गुरु शब्द से आया है। गिटार, संगीत या अन्य किसी भी प्रकार का शिक्षण हो, सभी कार्यों के लिए एक 'गाइड' चाहिए। गुरु वह है जो मनुष्य की प्रज्ञा और ज्ञान में मार्गदर्शन करता है और प्राणशक्ति जगाता है। हर व्यक्ति के भीतर यह गुरु तत्व है। जाने-अनजाने तुम किसी न किसी के गुरु हो। जब भी तुमने बिना किसी आशा के किसी के लिए कुछ किया हो, किसी को कोई सलाह दी हो, मार्गदर्शन किया हो, प्रेम दिया हो और देखभाल की हो, तब गुरु की ही भूमिका निभाई है।
गुरु तत्व सम्मान और विश्वास करने की चीज है। तुम्हारे आसपास कितने ही लोग भावनाओं और दोषारोपण के बीच अटके हैं, लेकिन अगर तुम्हारे पास गुरु हैं तो इन सब बातों से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। और अगर पड़ेगा भी तो वह कुछ मिनटों से ज्यादा टिकने वाला नहीं। यह वैसे ही है जैसे जब तुम्हारे पास रेनकोट होता है, तो तुम अपने को बरसात से बचा पाते हो। जब व्यक्ति गुरु तत्व के इस सिद्धांत के साथ चलता है, तब उसकी सभी सीमाएं मिट जाती हैं और वह आसपास के सभी व्यक्तियों और ब्रह्मांड के साथ एक होने का अनुभव करने लगता है। जब यह ज्ञान प्रकट होता है, दु:ख गायब हो जाता है और आत्मग्लानि के लिए कोई स्थान नहीं रहता। अगर तुम्हारे भीतर आत्मग्लानि है, तो इसका अर्थ है अभी तक तुम गुरु तक नहीं आए हो। गुरु तक आने का अर्थ है श्रद्धा होना कि गुरु हमेशा हमारे साथ है। इसका अर्थ है हमें जो चाहिए, वह होगा और हमें रास्ता दिखाया जाएगा।
जीवन में शांति सुनिश्चित करने का सबसे अच्छा रास्ता साधना, सत्संग, आत्म-चिंतन और भक्ति द्वारा गुरु के निकट रहना है। जब व्याकुलता बहुत ज्यादा बढ़ जाए, तब समर्पण में आश्वासन पाओ। गुरु तुम्हारे असली स्वभाव का ही प्रतिबिम्ब है और आत्मा में वापस अग्रसर करने के लिए मार्गदर्शक है। जिस पल तुम गुरु को गुरु मान लेते हो, उनके सभी गुण प्राप्त करना संभव हो जाता है। एक बार जब गुरु उपाय बन जाते हैं तो तुम जीवन में कभी पराजित नहीं होते। गुरु यहां तुम्हारे लिए हैं और अच्छे-बुरे समय में तुम्हारे साथ हैं। तुम अकेले नहीं हो। तो गुरु को ढूंढ़ निकालो, स्वाभाविक रूप से जियो और प्रेम व आनंद में खुशी मनाओ।
गुरु हमारा कवच है
गुरु उसे कहा जा सकता है जिसका नाता अग्नि, आकाश, जल, पृथ्वी आदि तत्वों से हो। पृथ्वी तत्व से जुड़ा व्यक्ति ऊंचाई प्राप्त करके भी, अनेक पंख लग जाने के बाद भी धरती नहीं छोड़ता है।
ल्ल मोरारी बापू
तलगजरडा में गुरु पूर्णिमा का उत्सव नहीं मनाया जाता है…. जो आना चाहते हैं उनको भी मैं सविनय कहता हूं कि वहां कोई उत्सव नहीं मनाया जाता, क्योंकि मैं गुरु नहीं हूं। मैं किसी का बंदा हूं। हां, मेरे गुरु हैं मेरे पगड़ीवाले दादा, जिन्होंने मुझे ये सब दिया… उनका ठीक से शागिर्द बनकर जी जाऊं तो ही काफी है। मैं बार-बार दुनिया को कहता रहता हूं, ''मैं किसी का गुरु नहीं हूं, मेरा कोई चेला नहीं है, मेरे लाखों श्रोता हैं, मेरा कोई ग्रुप नहीं, मेरा कोई मण्डल नहीं, मेरा कोई पंथ नहीं, मेरा कोई संप्रदाय नहीं… मोहब्बत ही मेरा पंथ है, सत्य ही मेरा धर्म और ईमान है, करुणा ही मेरा एक मार्ग है।''
गुरु पूर्णिमा को मैं वैश्विक दिन कहता हूं। इस दिन जगतभर के गुरुजनों को, हर एक मजहब के जो बुद्ध पुरुष हैं, उनको मैं प्रणाम करता हूं। ये सभी चेतनाएं और विस्तृत हों, मुखर हों और दुनिया में अमन कायम करें, क्योंकि… गुरु हमारा कवच है!
मगर प्रश्न यह आता है कि गुरु कहें किसे? गुरु उसे कहेंगे, जिसका नाता अग्नि, पवन, आकाश, जल, वायु और पृथ्वी तत्व से हो।
अग्नि तत्व से जो संबंध रखे यानी अंदर की आग कायम रहे। प्रकाश और पवित्रता का प्रतीक अग्नि है। अग्नि साधक को जागृत रखने का बहुत बड़ा कार्य करती हैं। जिसकी चेतना इस तत्व से जुड़ी हो उसे ज्ञानी पुरुष समझना चाहिए।
दूसरा, जो पवन से जुड़ा हुआ हो। पवन माने हनुमान, प्राण तत्व। वायु को आप हिन्दू नहीं कह सकते, मुसलमान नहीं कह सकते, वायु बिन सांप्रदायिक है और जो असंग होता है, वही सबमें फैलता है।
तीसरा आकाश तत्व। आकाश तत्व से जुड़ा हुआ व्यक्ति मेरी दृष्टि में बुद्ध पुरुष है। आकाश तत्व से जुड़ा हुआ व्यक्ति क्षुद्र सीमाओं में आबद्ध नहीं होता, बल्कि असीम होता है। वह सदैव जनकल्याण में लगा रहता है, परहित की बात करता है। ऐसे को गुरु मान सकते हैं।
जल तत्व से जुड़ा महापुरुष भी गुरु की श्रेणी में आता है। जिनकी आंखें साधना से भरी हों, बंदगी से भरी हों। आपको गंगाजल पिलाए… यानी जल तत्व से जिसका सीधा नाता हो वह बुद्ध पुरुष है। पृथ्वी तत्व से नाता रखने वाले व्यक्ति को ऊंचाई चाहे कितनी भी मिल जाए, पंख कितने भी लग जाएं , उसके पैर जमीन पर ही रहते हैं। ऐसे व्यक्ति को गुरु समझना चाहिए। ऐसा गुरु ही हमारा अभेद्य कवच हो सकता है।
(तलगजरडा गुजरात में वह स्थान है जहां बापू निवास करते हैं)
गुरु एक जीवित मानचित्र है
गुरु तो एक तरह की रिक्तता है, एक विशेष प्रकार की ऊर्जा है। गुरु कोई व्यक्ति नहीं होता, वह तो बस एक संभावना है। गुरु शब्द दो अक्षरों से मिलकर बना है। गु और रु, 'गु' के मायने हैं अंधकार और 'रु' का मतलब है भगाने वाला। जो आपके अंधकार को मिटाने का काम करता है, वह आपका गुरु है।
ल्ल सद्गुरु जग्गी वासुदेव
दुनिया में अगर कोई वास्तव में ईश्वर रहित संस्कृति है तो वह भारत की संस्कृति है। यह एकमात्र ऐसी जगह है जहां इस बात को लेकर कोई एक मान्यता नहीं है कि ईश्वर क्या है। अगर आप अपने पिता को ईश्वर की तरह देखने लगें, तो आप उनके सामने ही सिर नवा सकते हैं। अगर आपको अपनी मां में ईश्वर के दर्शन होते हैं, तो आप उसके सामने सिर झुका सकते हैं।
इसी तरह अगर किसी को एक फूल में ईश्वर नजर आता है, तो वह उसकी पूजा करने को आजाद है। लोगों को अपने-अपने ईश्वर की कल्पना करने की पूरी आजादी है। इसीलिए इसे इष्ट-देव कहा जाता है। हर कोई अपने भगवान की रचना कर रहा है। लेकिन दुनिया के इस हिस्से में सबसे ऊंचा लक्ष्य भगवान कभी नहीं रहा। सबसे ऊंचा लक्ष्य हमेशा मुक्ति रही है। इंसान की मुक्ति सबसे महत्वपूर्ण चीज रही है। यहां तक कि भगवान को भी इसी दिशा में एक साधन, एक कदम की तरह देखा जाता है। गुरु एक जीवित मानचित्र है। हो सकता है, आप अपनी मंजिल तक बिना मानचित्र के पहुंच जाएं, लेकिन जब अनजाने इलाके में यात्रा कर रहे हों, तो आपको नक्शे की जरूरत होगी ही। अगर आप बिना किसी मार्ग-दर्शन के आगे बढ़ेंगे तो इधर-उधर ही भटकते रह जाएंगे, भले ही आपकी मंजिल अगले कदम पर ही हो। बस इसी मार्ग-दर्शन के लिए आपको गुरु की जरूरत पड़ती है। हो सकता है कि आप सोच रहें हों कि क्या गुरु जरूरी है? बिल्कुल जरूरी नहीं है। अगर आप अपना रास्ता और मंजिल अपने आप ही हासिल करना चाहते हैं तो आप ऐसा कर सकते हैं। यह बात और है कि इस काम में आपको अनंतकाल भी लग सकता है।
आप गुरु को खोजने नहीं जाते। अगर आपकी इच्छा गहरी हो जाए, अगर आप अपने अस्तित्व की प्रकृति को न जानने के दर्द से तड़प रहे हैं, तो आपको गुरु खोजने की जरूरत नहीं होगी। वह खुद आपको खोज लेंगे, आप चाहे कहीं भी हों। जब अज्ञानता की पीड़ा आपके भीतर एक चीख बनकर उभरे, तो शर्तिया गुरु आप तक पहुंच जाएंगे। जो आपके अंधकार को मिटाने का काम करता है, वह आपका गुरु है। यह कोई ऐसा इंसान नहीं है जिससे आपको मिलना जरूरी हो। गुरु तो एक तरह की रिक्तता है, एक विशेष प्रकार की ऊर्जा है। यह जरूरी नहीं है कि गुरु कोई व्यक्ति हो। लेकिन आप एक गुरु के साथ, जो शरीर में मौजूद हो, खुद को बेहतर तरीके से जोड़ सकते हैं, आप अपनी शंकाओं का समाधान कर सकते हैं। एक सच्चा जिज्ञासु, एक ऐसा साधक जिसके दिल में गुरु को पाने की प्रबल इच्छा होती है, वह हमेशा उसे पा ही लेता है।
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