जिहादी आग से झुलसी दुनिया
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जिहादी आग से झुलसी दुनिया

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Jul 11, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 11 Jul 2016 15:39:17

ढाका से मदीना और काबुल से इस्तांबुल तक जिहादी आग उस महीने में फैली जिसे 'पाक' कहा जाता है। इस आग को भड़काने वाले भी मुसलमान थे और मरने वाले भी ज्यादातर मुसलमान ही थे। लेकिन हैरानी की बात यह है कि इस्लामी जगत इसके खिलाफ एक साथ आवाज नहीं उठा रहा। कुछ तो यह भी कह रहे हैं कि मुसलमानों को बदनाम करने के लिए आतंकवाद का हौव्वा खड़ा किया जा रहा है। फिर इस जिहादी आग को फैलने से कौन रोक सकता है?

 

 प्रशांत बाजपेई

तो दुनिया भर में जिहादी हमले हो रहे हैं पर मुस्लिम जगत के लिए इस रमजान की सबसे बड़ी सुर्खी बनी 4 जून की शाम की घटना। मदीना की नबवी मस्जिद पर हमला हुआ। लोग चौंके परंतु इसे असंभव मानकर शायद ही कोई चल रहा था। तीन मेहराब वाली इस मस्जिद में  पैगंबर मोहम्मद को मृत्यु के बाद दफनाया गया था। इस मस्जिद को स्वयं पैगंबर मोहम्मद ने अपने निवास के एक ओर बनवाया था। मुस्लिम जगत में इस मस्जिद की बड़ी मान्यता है, लेकिन मतभेद भी हैं, बुतपरस्ती के दावे भी हैं और 'मूल इस्लाम' अथवा 'सच्चे दीन' को नाजिल करने के अपने-अपने लक्ष्य और तरीके भी हैं।

 

 

जिहाद के अलग-अलग रंग

''अल्लाह का हुक्म है। आने वाले रमजान को सारी दुनिया के काफिरों के लिए दर्द का महीना बना दो।'' मई के अंत में इस्लामिक स्टेट(आईएस) के प्रवक्ता ने अपने अनुयायियों को जारी संदेश में यह अपील की थी। इस संदेश को दुनिया भर के जिहादी गिरोहों ने हाथोंहाथ लिया और अपने-अपने हिसाब से 'काफिरों' का चयन किया। अगले चार हफ्ते खून से तर-बतर रहे। खूनखराबे का दायरा काफी बड़ा था। चार महाद्वीपों पर 12 जगह हमले हुए। सैकड़ों जान गईं और घायलों की भी तादाद ऐसी ही रही।

12 जून को अमेरिका के ऑरलैंडो में ओमर मतीन नामक शख्स ने एक समलैंगिक क्लब में घुसकर वहां मौजूद लोगों पर अपनी स्वचालित रायफल का मुंह खोल दिया। 49 मारे गए, आधा सैकड़ा घायल हुए। हमले के दौरान मध्यस्थों से बात करते हुए मतीन ने बगदादी के प्रति निष्ठा जतलाई थी। इसी बीच उसने अपनी बीबी को एसएमएस करके पूछा था कि समाचारों में उसकी करतूत के बारे में बतलाया जा रहा है या नहीं।

वैसे आप दुनिया भर में किसी भी मुस्लिम फिरके के कट्टरपंथी से पूछ कर देखें, वह इस हमले को गलत नहीं बता पाएगा। उनके लिए ये सबसे घृणित लोग थे, एक तो गैर मुस्लिम, तिस पर समलैंगिक! सौ प्रतिशत 'वजीबुल कत्ल' (मार डालने योग्य) वाहाबी और आईएस तो अपनी जगह हैं। शिया बहुल ईरान में भी समलैंगिकों को सरेआम फांसी पर लटका दिया जाता है। आईएस वाले समलैंगिकों को हाथ-पैर बांधकर ऊंची इमारतों से फेंक देते हैं। ऑरलैंडो हमले के अगले दिन पेरिस में एक पुलिस अधिकारी जीन और उनकी पत्नी जेसिका की एक जिहादी ने हत्या कर दी। 21 जून को जार्डन के एक सैनिक काफिले से बारूद से भरा ट्रक आ टकराया। जिहादियों ने 'काफिर' सुल्तान अब्दुल्लाह द्वितीय के फौजियों की हत्या की सगर्व  जिम्मेदारी ली। सुल्तान अब्दुल्लाह 'काफिर' इसलिए हैं क्योंकि उन्होंने जार्डन में विशाल अमेरिकी सैन्य बेस की अनुमति दे रखी है। अब्दुल्लाह का दूसरा दोष उनका हशमित खानदान से होना है, जो कि मोहम्मद की वंशरेखा से होने का दावा करता है। लगभग ऐसा ही गुनाह अहमदियों का भी है, जो पाकिस्तान, बंगलादेश और मलेशिया में दशकों से थोक के भाव मारे जा रहे हैं।  27 जून को यमन के मुकल्ला में रोजा तोड़ने की तैयारी करते 35 सऊदी सैनिकांे समेत 42 लोग एक आत्मघाती हमले में मारे गए। सऊदी अरब के शाही सऊद परिवार का तख्त और बगदादी गिरोह दोनों वहाबी विचारधारा का पोषण करते और उससे पोषण पाते आए हैं। यानी यह वहाबियों की वहाबियों के खिलाफ कार्रवाई थी।

फिर 28 जून को तुर्की के अतातुर्क हवाई अड्डे पर तीन आत्मघाती हमलावरों ने हमला किया। जो भी सामने पड़ा उसे गोलियों से भून दिया। अंत में हमलावरों ने खुद को बम से उड़ा लिया। कुल 44 लोग मारे गए। तुर्की में यह इस साल का यानी 2016 का तीसरा बड़ा जिहादी    हमला था।

1 जुलाई को ढाका, बंगलादेश की एक बेकरी पर 7 सशस्त्र मुस्लिम युवकों ने हमला बोला और लोगों से कुरान की आयतें सुनाने को कहा। जो नहीं सुना सके, उनके गले बड़ी निर्ममता से रेत दिए गए। मारे गए 21 निरीह लोगों में से 9 इतालवी, 7 जापानी, 3 बंगलादेशी, एक अमेरिकी और एक भारतीय। गला रेते  गए लोगों में एक गर्भवती महिला भी थी।  ''अल्लाह ने तुम्हारी मौत तय की है।'' वे चिल्ला रहे थे। सातों उच्च शिक्षित धनाढ्य परिवारों से थे। ढाका आधारित थिंक टैंक फैज सोभान कहते हैं,''सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात है इन हमलावरों की पृष्ठभूमि। वे सामान्य लड़के थे जो कैफे जाते थे।  खेलकूद में हिस्सा लेते थे। उनके फेसबुक पेज थे। यह कट्टरता का नया रुझान है।'' आतंकियों में से एक निब्रास इस्लाम हिंदी फिल्म अभिनेत्री श्रद्धा कपूर का प्रशंसक था। एक वीडियो में उसे प्रशंसकों की भीड़ में से हाथ बढ़ाकर श्रद्धा से हाथ मिलाते देखा जा सकता है। ढाका का हमला पूरी तरह बंगलादेश के घरेलू आतंकवाद की उपज था।

 

सबसे भयंकर हमला इराक की राजधानी बगदाद में 3 जुलाई को हुआ जहां शिया बहुल इलाके में बारूद से भरे एक ट्रक को भीड़ भरे शॉपिंग मॉल से भिड़ा दिया गया। 215 लोग मारे गए, जिनमें 25 बच्चे भी शामिल थे। धमाका रोजा इफ्तार के समय किया गया। मॉल में आग लगी तो दर्जनों जिंदा जल गए। राहत कार्य में लगे एक स्वयंसेवी के अनुसार,''जमीन पर 'पिघली हुई मानव देहों की तह' जमी हुई थी।'' आईएस ने हमले की जिम्मेदारी लेते हुए इसे शियाओं के खिलाफ अपनी सफल कार्रवाई बताया। यह इराक में पिछले 13 सालों में हुए हमलों में सबसे घातक हमला था। एक महिला टीवी पर बोल रही थी,''हम शांति से ईद भी नहीं मना सकते। इस्लामिक स्टेट नहीं होगा तो अल कायदा होगा।''

इसके पहले 11 जून को सीरिया में शियाओं के मजहबी स्थल पर 20 शियाओं को मार डाला गया था। कितने ही लोगों को तय वक्त के पहले रोजा तोड़ने, इस्लाम की बेअदबी करने या काफिरों का साथी होने के नाम पर सूली पर लटका दिया गया। उत्तरी लेबनान में ईसाई आबादी के बीच सिलसिलेवार धमाके हुए, जिनमंे सात लोग मारे गए और 19 बुरी तरह घायल हो गए। कुवैत में तीन हमलों को नाकाम किया गया। वहां एक जाफरी मस्जिद पर आक्रमण होने वाला था।

जिहादियों ने  लीबिया, अफगानिस्तान और फिलिपींस में भी खून बहाया। इस सनसनीखेज दौर का क्लाइमेक्स हुआ सऊदी अरब में हुए धमाकों के साथ, जब मदीना की नबवी  मस्जिद, कातिफ की एक शिया मस्जिद और जेद्दाह की अमेरिकी काउंसलेट फिदायीन हमलों से दहल उठी। हमले की जिम्मेदारी किसी ने नहीं ली। 4 जुलाई के इस हमले से जान-माल का ज्यादा नुकसान नहीं हुआ लेकिन सबसे ज्यादा सफल हमला यही रहा। अमेरिका स्थित जिहादी गतिविधियों का बारीकी से अध्ययन करने वाले एक थिंकटैंक सुफान समूह ने वक्तव्य दिया,''इस बात का कोई औचित्य नहीं है कि सऊदी अरब में हुए हमले में ज्यादा नुकसान नहीं हुआ। इसमें दुनिया का ध्यान खींचना और प्रतीकात्मकता पर्याप्त है।'' पर सवाल एक ही प्रतीक के अलग-अलग मायनों का है। सवाल अलग-अलग धाराओं में पल रही आत्मप्रवंचना की केंद्रीय प्रवृत्ति, नफरत और हिंसा के आकर्षण का है। ये सवाल आतंकी हमलों की सांख्यिकी से अधिक महत्व के सवाल हैं।

आग का दरिया है और ़.़.़.

हाल ही में पाकिस्तान की पूर्व विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार ने बयान दिया, ''पिछले साठ साल से हम अपने बच्चों को पढ़ाते आए हैं कि हमारी (पाकिस्तान की) राष्ट्रीय पहचान दूसरों से नफरत करना है।'' बात सोलह आने सच है। पाकिस्तान में बच्चों का पाठ्यक्रम, मीडिया, साहित्य सब कुछ हिंदुओं के खिलाफ नफरत से बजबजाता आ रहा है। दूसरे मुस्लिम देशों का भी यही है। शिया बहुल ईरान को यहूदी इस्रायल से नफरत हाल है। शिया राष्ट्रों को सुन्नी राष्ट्रों से खतरा है तो सुन्नी देश शिया मुल्कों के खिलाफ लामबंद हैं। वहाबी इन सबके खिलाफ लामबंद हैं। मदीना पर हुए हमले के बाद सऊदी सुल्तान ने 'मजहबी कट्टरता' के खिलाफ लड़ने की कसम खाई। वे बोले,''हम उन लोगों पर फौलादी मुक्के बरसाएंगे जो हमारे युवाओं के दिलो-दिमाग पर निशाना साध रहे हैं।''

सुनने-सुनाने के लिए यह सीधी बात है लेकिन सुल्तान के सऊदी अरब में 14 साल के बच्चों के लिए जो सरकारी पाठ्यक्रम की किताब है, उसमंे आई एक हदीस की बानगी देखिए – ''फैसले का दिन (कयामत का दिन) तब तक नहीं आएगा जब तक मुसलमान यहूदियों से लडे़ंगे नहीं और यहूदियों का कत्ल नहीं करेंगे। और जब यहूदी किसी पेड़ या पत्थर के पीछे छिप जाएगा तो वह पेड़ या पत्थर चीख उठेगा कि ''ओ मुस्लिम! ओ अल्लाह के गुलाम ! मेरे पीछे एक यहूदी छिपा है। आओ और इसका कत्ल कर दो। केवल वही पेड़ चुप रहेगा जो यहूदी पेड़ होगा।''

2014 में सऊदी अरब के सूचना मंत्री अब्दुल अजीज खोजा ने शियाओं के खिलाफ खुलेआम नफरत भरी बातें प्रसारित करने वाले टीवी चैनल वैसल को बंद करवाया तो सुल्तान अब्दुल्ला ने अपने मंत्री को बर्खास्त कर दिया था। इस चैनल ने दर्शकों से शियाओं की मौत पर जश्न मनाने को कहा था।  इसी प्रकार सरकारी नियंत्रण वाली मस्जिद से जब एक मौलाना साद बिन अतीक अल अतीक ने 2015 में अपने अनुयायियों से सभी यहूदियों, ईसाइयों और शियाओं को नेस्तनाबूद करने का आह्वान किया। मामला विश्व मीडिया में उछला, तब भी इस मौलाना पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। सऊदी अरब और कतर इस्लामिक स्टेट के खिलाफ हैं वह तो सिर्फ इसलिए कि आईएस इन देशों की सुल्तानशाही को मान्यता नहीं देता। लेकिन दोनों सीरिया, इराक और लेबनान में इस्लामिक स्टेट जितने ही बर्बर दूसरे जिहादी संगठनों की  पैसे और हथियारों से भरपूर मदद करते आए हैं। कतर एक तरफ पश्चिम राजनायिकों को यहां बुलाकर गोल्फ खिलाता है और विश्व कप फुटबाल का हिस्सा बनकर दुनिया के सबसे हिंसक जिहादी आतंकियों को दूध पिलाता है। इसी देश के विदेश मंत्री मोहम्मद बिन थानी ने हमले की निंदा करते हुए वक्तव्य दिया है,''मजहब के नाम पर रक्तपात अस्वीकार्य है।''तुर्की के विदेश मंत्री ने मदीना में हुए हमले की कठोर निंदा की है। पर सचाई यही है कि तुर्की ने स्वायता की मांग कर रहे कुदोंर् को कुचलने के लिए आईएस का इस्तेमाल शुरू किया था। तुर्की आईएस के लड़ाकों के लिए सुरक्षित आरामगाह और आने-जाने का रास्ता बन गया था। तुर्की में शरण लेने वाले लड़ाकों को वहां की खुफिया एजेंसी पर्यटक के रूप में पेश करती थी। नयी भर्ती, पैसों का लेनदेन, मोबाइल नेटवर्क सब कुछ तुर्की से हो रहा था।  बाद में जब अमेरिकी दबाव में तुर्की ने आईएस की मुश्कें कसनी शुरू की तो बगदादी गिरोह ने अपने फिदायिनों को अपने इस पुराने मेजबान की ओर मोड़ दिया। पिछले एक साल में तुर्की की राजधानी  समेत कई बड़े शहरों पर भीषण आत्मघाती हमले हुए हैं। कुवैत के पेट्रो डॉलर  सुन्नी आतंकियों तक पहुंच रहे हैं, तो ईरान भी पीछे नहीं है जो शिया आतंकी  संगठन हिजबुल्ला के अभिभावक की भूमिका निभा रहा है।

ईसाई पश्चिम एशिया में अल्पसंख्यक हैं और इस हिंसा में बुरी तरह पीसे जा रहे हैं, इसलिए चर्च में भी हलचल है। 5 जुलाई को पोप फ्रांसिस ने वेटिकन में बयान दिया,''जब  लोग इतना भुगत रहे हैं तब भी लड़ाकों को हथियार आपूर्ति के लिए अतुलनीय धनराशि खर्च की जा रही है। शांति की दुहाई देने वाले देश ही असलहा भी पहुंचा रहे हैं। आप उस व्यक्ति पर विश्वास कैसे करेंगे जो एक दाएं हाथ से आपको सहलाता है और बाएं से मारता जाता है।'' परंतु पोप तब चुप रहे जब पश्चिमी देश और अमेरिकी सीरिया में राष्ट्रपति असद को अपदस्थ करने के लिए सुन्नी – वहाबी लड़ाकों को प्रशिक्षित कर रहे थे।

 

 कौन-कौन है शामिल

सऊदी अरब और कतर जैसे देशों के 'इस्टैब्लिशमेंट' और इस्लामिक स्टेट वाले एक ही उस्ताद के चेले हैं और वे हंै मोहम्मद इब्न-अब्द-अल-वहाब (1703-1792)  वहाब के अनुयायी वहाबी कहलाते हैं। ये इस्लाम की मध्ययुगीन व्याख्याओं में विश्वास करते हैं। पहले बात सऊद परिवार की। सऊदी अरब का शासक परिवार वहाबी इस्लाम में अपनी प्रभुसत्ता देखता है। सऊद परिवार मुस्लिमों की भावनाओं से जुड़ी इस्लामिक इतिहास की महत्वपूर्ण निशानियों को मिटाने को लेकर चर्चा में रहा है। पैगंबर मोहम्मद की बेटी फातिमा और मोहम्मद के चाचा की कब्र पर बनी मस्जिदों  को मिटाया जा चुका है।  नबवी मस्जिद स्थित पैगंबर मोेहम्मद की कब्र को  हटाने, अवशेषों को अज्ञात स्थान पर दफनाने का प्रस्ताव 2014 में आ चुका है। इस्लामिक हेरीटेज रिसर्च फाउंडेशन के निदेशक डॉ. अलवी के अनुसार,''लोग यहां आते हैं और उन कक्षों में जाते हैं जहां कभी पैगंबर का परिवार रहा करता था, फिर वे नमाज पढ़ने के लिए कब्र की तरफ मुड़ जाते हैं। वहाबी इस परंपरा को रोकना चाहते हैं क्योंकि वे इसे 'शिर्क' कहते हैं।'' कुछ वहाबी काबा के पत्थर को भी तोड़ने की बात कह चुके हैं, क्योंकि वे इसे इस्लाम के आगमन के पहले से चली आ रही 'बुतपरस्ती' की  निशानी मानते हैं। मक्का की हजार साल से भी ज्यादा पुरानी ऐसी दर्जनों निशानियां मिटाई जा चुकी हैं। दुनिया का मुस्लिम जगत इसे चुपचाप देखता रहता है। कभी कोई विरोध का स्वर नहीं उठा। सम्भवत: इसका कारण आम मुस्लिमों के मानस पर अंकित अरब श्रेष्ठता का विचार है।  उस हरे गुंबद को हटाने का प्रस्ताव भी आया है जिसकी तस्वीर करोड़ों मुस्लिम घरों की दीवार पर मौजूद है। इस्लाम में खलीफा के पद का मजहबी और राजनीतिक महत्व है।  स्वघोषित खलीफा अबू बकर अल बगदादी भी काबा को तोड़ने के मंसूबे जाहिर कर चुका है। तो दोनों में वैचारिक फर्क क्या है? फर्क है कि आईएस स्वयं को वहाबी विचार का असली उत्तराधिकारी मानता है। उसका मानना है कि सऊदियों और दूसरे वहाबी शासकों ने इस्लाम को भ्रष्ट किया है। उन्होंने अमेरिका और पश्चिमी देशों जैसे 'काफिर' साझेदार बनाकर सच्चे इस्लाम की ओर से मुंह मोड़ लिया है। इसलिए तकफीर (झूठा मुस्लिम) का नारा बुलंद किया गया है।  यह हमला इस्लाम की दो सबसे महत्वपूर्ण मस्जिदों के संरक्षक होने की सऊदी विरासत का नकार है। मदीना पर हमला करके उन्होंने मुस्लिम जगत पर सऊदी अरब के प्रभाव को चुनौती दी है। यह चुनौती वैचारिक भी है और सामरिक भी। उन्हें विश्वास है कि मुस्लिम जगत चुपचाप इस संघर्ष को देखेगा और अंतत: विजेता को स्वीकार कर लेगा। बगदादी के समर्थक उसे खलीफा इब्राहिम कहते हैं। उनका दावा है कि वेे मोहम्मद का वंशज है। यानी कि बात घूमफिरकर वहीं आ जाती है। इतिहास गवाह है कि ऐसे विवाद हमेशा अनिर्णित ही रहे हैं। आखिर में, रियाद (सऊदी अरब ) के 20 वर्षीय जुड़वां भाइयों खालिद और सालेह अल ओरेनी को पुलिस ने गिरफ्तार किया है। दोनों ने मिलकर अपनी 67 वर्षीय मां, 73 वर्षीय पिता और 22 वर्षीय भाई को चाकुओं से गोद डाला। कारण, वेे लोग उन्हें इस्लामिक स्टेट से जुड़ने से रोक रहे थे।

खालिद और सालेह का कहना है कि उन्होंने अपने परिवार को 'तकफीर' होने की सजा दी है। पिछले एक साल में सऊदी अरब में यह अपने तरह की पांचवीं घटना है, जब बगदादी के दीवानों ने 'जिहाद' के आड़े आने वाले अपने ही परिवार के खून से हाथ रंगे है। ये एक वैश्विक त्रासदी है। लेखिका तसलीमा नसरीन समाधान सुझाती हैं-''मुस्लिम समाज में आलोचना और विचार को स्थान दो। मतभिन्नता की आजादी दो। समाज इससे कहीं बेहतर हो जाएगा।''परन्तु उत्तर भी तो उन्हें ही मिलते हैं जो सवाल पूछते हैं। और सवाल उन समाजों में पूछे जाते हैं, जहां उन्हें सवाल उठाने की अनुमति होती है।

 

साथ में अरुण कुमार सिंह एवं अश्वनी मिश्र 

 

 

वहाबी कट्टरवाद से जंग और उलेमा

मदीना के बाद मक्का में आतंकियों के हमले को लेकर भयभीत उलेमा इस वहाबी वहशीपन के खिलाफ लामबंदी से कतरा क्यों रहे हैं

 

सुल्तान शाहीन

 

इस्लामिक आतंकवाद के हमलों के कारण दुनिया भर में शोक की लहर है। ऑरलेंडो से लेकर इस्तांबूल, बगदाद, ढाका, जावा से इंडोनेशिया तक। थाईलैंड के मुस्लिम बहुल दक्षिणी प्रांत पट्टानी के बाद अब सऊदी अरब का मदीना, जेद्दाह और कतीफ इसके शिकार बने हैं। हालांकि यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि हाल में भारत में ऐन वक्त पर हमारे सुरक्षा बलों ने ऐसे ही एक हमले को असफल किया है। इसके बावजूद, दुनिया भर में अनेक स्थानों पर हुए बर्बर हमलों के कारण लोगों को उन पर शोक व्यक्त करने का समय भी नहीं मिला। बगदाद में हाल में एक ट्रक में हुए धमाके के कारण 215 लोगों की जान गइंर् और अन्य 200 से अधिक घायल हुए। ढाका के हमले में आतंकी अमीर परिवारों से ताल्लुक रखते थे और देश-विदेश के कई शीर्ष संस्थानों से शिक्षा प्राप्त थे। ढाका के रेस्तरां में बंधक बनाए लोगों से उनका यह कहना, कि जिंदा रहना  है तो कुरान की आयतें सुनाओ, कुरान को अपवित्र करना ही था। दरअसल, इस तरह के वहशियाना हमलों को समझने का मौका ही नहीं मिला है जिनका सूत्रधार एक ही है और वह है इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया (आईएसआईएस)।

बड़ी बात यह कि ये सभी हमले रमजान के पवित्र महीने में किए गए। वह भी महीने के अंतिम दस दिनों में, जिन्हें सबसे पवित्र माना जाता है। परंपरागत रूप से तो मुस्लिम इन दिनों कहीं जंग भी लड़ रहे होते थे तो संघर्षविराम की घोषणा कर देते थे। मुसलमानों का मानना है कि इस दौरान किए जाने वाले नेक काम का इनाम दोगुना मिलता है। ऐसा मालूम देता है कि आतंकवादियों को अपने किए 'अच्छे कार्य' उन्हें जन्नत ले जाने वाले लगते हैं। शायद इसी से प्रेरित होकर इस्लामिक स्टेट के प्रवक्ता अबु मुहम्मद अल-अदनानी ने रमजान के पवित्र महीने में अमेरिका और यूरोप पर विशेष तौर पर हमले करने की बात की। संदेश में कहा गया, 'फतह और जिहाद के महीने रमजान में, तैयारी करो, मुस्तैद रहो….काफिरों के लिए इस महीने कहर बरपा कर दो़.़ खासकर अमेरिका और यूरोप में मौजूद खिलाफत के लड़ाकों और उनके समर्थकों के लिए'।

 

इस पाशविकता से ही नहीं, बल्कि  इस संवेदनशून्यता से सब सदमे में हैं। आखिर आईएसआईएस इन वहशी कृत्यों से क्या साबित करना चाहता है? अपने कृत्यों से वह केवल इस्लाम को ही बदनाम कर रहा है, लोगों की नजरों में इस्लाम आतंकवाद का पर्याय बनता जा रहा है, वह मजहब, जो इंसानियत के लिए एक वरदान होने का दावा करता था। अरब में स्थापित होने के बाद, पहले सौ वषार्ें में वह स्पेन से लेकर भारत तक और इंडोनेशिया से चीन तक तेजी से फैला था। क्या आईएसआईएस अपने घिनौने खूनखराबे से मुसलमानों का मन जीतने की कोशिश कर रहा है? क्या मदीना में पैगंबर की मस्जिद पर हमला दुनिया को मुस्लिम नेतृत्व तले लाने के लिए था? वह मस्जिद खुद पैगंबर ने दुनिया की पहली मस्जिद के तौर पर बनाई थी। खुद को खलीफा कहने वाले बगदादी ने कहा था कि यह हर मुस्लिम का 'मजहबी फर्ज' है कि 'बुतपरस्ती' के उस निशान को तोड़ डाले। यह स्थान इस्लाम की मूल पाक जगह है। 'ब्लैक स्टोन' या अल-हजर अल-अस्वाद, काबा की पूर्वी आधारशिला है जो कि मक्का की ऐतिहासिक मस्जिद के केंद्र में स्थित है। तो क्या इस्लाम के दूसरे सबसे पाक स्थल पर हमले को मक्का की ऐतिहासिक मस्जिद के विध्वंस की शुरुआत समझा जाए?

 

दरअसल, सलाफी-वहाबी कट्टरपंथियों और बगदादी द्वारा यह मांग पहली बार नहीं रखी गई है। इससे पहले भी कुवैत के वहाबी मौलवी इब्राहिम अल कंदारी ने भी काबा के पत्थर को नष्ट करने की बात की थी। माना जाता है कि काबा का यह पत्थर उल्कापिंड से पृथ्वी पर आया था। कंदारी के अनुसार, ''ब्लैक स्टोन को ध्वस्त करके इस प्राचीन बुतपरस्ती के रिवाज का अंत किया जाना चाहिए।'' जाहिर है मदीना के हमले के बाद दुनिया भर के मजहबी नेताओं को डर है कि कहीं इस्लामिक स्टेट मक्का पर भी हमला न कर दे। आईएस पहले ही हतरा, निमरूद और खोरसाबाद के पुरातात्विक महत्व के स्थलों को तबाह कर चुका है। ठीक वैसे ही जैसे सलाफी-वहाबी सोच रखने वाले पाकिस्तानी देवबंदी मदरसों से पैदा हुए तालिबान ने बामियान में भगवान बुद्ध की प्रतिमाएं तोड़ी थीं।

 

ध्यान रहे, आइएस का इरादा दुनिया भर के मुसलमानों का दिल जीतने का नहीं है। अधिकांश मुसलमानों को वह विश्वासघाती मानता है। एक बार, नॉटिंघम के एक कॉलेज छात्र ने मुझसे कहा था कि सिर्फ अहल-ए-हदीसी अकेले सच्चे मुस्लिम होते हैं। जब मैंने उससे पूछा कि उन 99 फीसद मुसलमानों का क्या जो अहले हदीसी नहीं हैं, तो उसने कहा, ''वे इस्लाम के सबसे पहले दुश्मन हैं।'' 1987 तक ब्रिटिश कॉलेजों के मुस्लिम छात्रों का बड़ा वर्ग खुद को ब्रिटिश मुख्यधारा से अलग कर चुका था। मुख्यधारा के इस्लाम पर इस हमले के पीछे मोहम्मद इब्न-ए-अब्दुल वहाब की सोच काम करती है, जिसके अंतर्गत कहा जाता है कि एक मुस्लिम को गैर-मसलमानों से ही नहीं बल्कि गैर-वहाबी मुसलमानों से भी घुलना-मिलना नहीं चाहिए। अब्दुल वहाब के अनुसार, ''मुस्लिम भले शिर्क (बहुईश्वरवाद) से दूर रहते हों और मुवाहिद (एक ईश्वर को मानने) हों, पर उनका दीन तब तक पुख्ता नहीं कहलाएगा जब तक गैर-मुसलमानों के खिलाफ उनकी आवाज और कामों में नफरत और दुश्मनी न झलके।'' (मजमुआ अल-रसील वल-मसील अल-नजदिया 4/291)

इसलिए वे सब मुस्लिम जो गैर-मुसलमानों और गैर-वहाबी मुसलमानों से मिलते हैं, जिन्हें विश्वासघाती समझा जाता है, उनसे नफरत की जाती है, उन्हें दुश्मन समझा जाता है। प्रत्येक मुख्यधारा मुस्लिम सरकार को दुनिया भर के गैर-मुस्लिमों से संबंध स्थापित करने होते हैं। इसलिए इस्लामिक स्टेट के लिए वे सब और जनता एक समान लक्ष्य हैं। साफ है कि मुस्लिम जगत में वैचारिक युद्ध जारी है। हालांकि मुख्यधारा की इस्लामी देशों की सरकारें या उलेमा इस वैचारिक युद्ध से अभी नहीं जुड़े हैं। मिल-जुलकर शांतिपूर्ण जीवन बसर करने वाले मुस्लिमों पर एकतरफा हमले किए जा रहे हैं। यानी उन मुसलमानों पर जो कुरान के बहुलतावादी दिशानिर्देशों का पालन करते हैं। कुरान के अनुसार, पहले के पैगंबरों में यकीन रखने वालों को कद में पैगंबर मोहम्मद के समान समझा जाना चाहिए। उन पैगंबरों को मानने वालों से मेल-मिलाप, जिसमें वैवाहिक संबंध भी शामिल हैं, मजहबी आस्था की अनिवार्य पहचान है। लेकिन उलेमा हमारे मजहब के इस पक्ष पर जोर देते नहीं दिखते। वहीं सरकारें भी सिर्फ आग बुझाने के काम में लगी दिखती हैं। किसी भी सरकार ने वैचारिक द्वंद्व में उतरने की कोशिश नहीं की है। इसके विपरीत, कुछ प्रगतिशील लोग अपने दम पर कुछ काम जरूर कर रहे हैं। लेकिन उनके पास स्रोत नहीं हैं। वहीं दूसरी ओर, डॉ. जाकिर नाइक जैसे वहाबी, अहले हदीसी प्रसारकों के पास तमाम मीडिया स्रोत उपलब्ध हैं। यह वही उन्मादी सोच का प्रचारक है जिसके यूट्यूब वीडियो को देखकर ढाका के आतंकियों ने उन्मादी रास्ता पकड़ा और पिछले हफ्ते वहां एक रेस्तरां में 20 लोगों को मार डाला था। नाइक को दुनिया के अन्य आतंकियों के अलावा इंडियन मुजाहिदीन की प्रेरणा भी बताया जाता है। लेकिन भारत का उलेमा वर्ग उसके साथ किसी किस्म की बहस में उतरता नहीं दिखता। इस्लाम को नई मजहबी सोच चाहिए, लेकिन फिलहाल ऐसी कोई कोशिश नहीं दिखती। इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि वैश्विक स्तर पर फैली मौजूदा आतंकी लहर मुस्लिम सरकारों और उलेमाओं को इस संघर्ष में उतरने को मजबूर करेगी। (लेखक दिल्ली स्थित प्रगतिवादी इस्लामिक वेबसाइट न्यू एजइस्लामडॉटकॉम के संस्थापक संपादक हैं।)

 

 

 

हमलावर को मस्जिद-ए- नबवी सल्लल्लाहो अलेह वसलल्लम की तरफ जाने से रोकने के प्रयास में चार सुरक्षाकर्मी शहीद हो गए जबकि पांच से ज्यादा घायल हुए हैं।

— आंतरिक मंत्रालय, सऊदी अरब

 

इन खतरनाक हत्यारों से अपने मजहब को बचाने के लिए हम सभी को एकजुट होकर आतंक के खिलाफ लड़ने की जरूरत है।

– मुहम्मद बिन जायेद अल-नह्यान, शेख, दुबई, ट्विटर पर

 

नफरत फैलाते नाइक

 

 

दुनियाभर में ऐसे मुसलमान युवाओं की बड़ी संख्या बताई जा रही है,  जिहोंने जाकिर नाइक के भाषणों से प्रेरणा लेकर आतंकवाद की राह पकड़ी है। खबरों की मानें तो बंगलादेश में 20 लोगों की गला रेतकर हत्या करने वाले आतंकवादियों में से एक रोहन इम्तियाज जाकिर नाइक के भाषणों से बहुत प्रभावित था। इससे पहले भी कई आतंकवादी जाकिर से प्रभावित होकर मासूमों की हत्या कर चुके हैं। इनमें 11 जुलाई, 2006 को मुंबई की लोकल ट्रेन में हुए धमाकों में शामिल राहिल शेख, 2007 में स्कॉटलैंड के ग्लासगो हवाई अड्डे पर बम से हमला करने वाला कफील अहमद और 2009 में न्यूयॉर्क सब-वे को बम से उड़ाने की साजिश रचने के आरोप में गिरफ्तार नजीबुल्ला जैसे आतंकवादी भी जाकिर से प्रभावित थे। 18 अक्तूबर,1965 को मुंबई में जन्मे जाकिर नाइक ने एम.बी.बी.एस. तक की पढ़ाई की है। लेकिन डॉक्टरी से उनका कोई लेना-देना नहीं है। जाकिर कुरान की आयतों के आधार पर पूरी दुनिया में अपनी जहरीली तकरीरें देता है और ऐसी ही तकरीरें सुनकर मुसलमान युवा आतंकवादी बन रहे हैं। उसके जहरीले बयानों के कारण ही ब्रिटेन और कनाडा ने उस पर प्रतिबंध लगा रखा है, जबकि मलेशिया ने उसके भाषणों पर प्रतिबंध लगाया है। जाकिर ने 'इस्लामिक रिसर्च फांउडेशन' नाम की एक संस्था  बनाई है और उसी के बैनर तले वह अब तक 30 देशों में 2,000 के करीब सभाएं कर चुका है। कहने को तो उसकी संस्था का उद्देश्य गैर-मुसलमानों को इस्लाम की सही जानकारी देना, लेकिन उससे प्रेरित युवा जिस राह पर चल रहे हैं उससे उनके छिपे उद्देश्यों की जानकारी मिलती है। जाकिर की संस्था पीस टीवी के नाम से चैनल भी चलाती है। ऐसा दावा किया जाता है कि दुनियाभर में पीस टीवी को करीब 10 करोड़ लोग देखते हैं। जाकिर के ज्यादातर अनुयायी बंगलादेश में हैं। जाकिर ओसामा बिन लादेन को आतंकवादी नहीं मानता। उसका कहना है कि ओसामा ने इस्लाम के दुश्मनों के खिलाफ युद्ध छेड़ा था, इसलिए वह आतंकवादी नहीं था। खबर यह भी है कि जाकिर के रिश्ते आतंकी हाफिज सईद से हैं। जमात-उद-दावा की वेबसाइट पर जाकिर की संस्था का लिंक मिला है। केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री वेंकैया नायडू ने कहा है कि जाकिर के भाषण आपत्तिजनक हैं। वहीं महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने भी मुंबई के पुलिस आयुक्त से जाकिर के भाषणों की जांच कर रिपोर्ट देने को कहा है। यानी आने वाले समय में जाकिर की राहें कांटों भरी हो सकती हैं।

 

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