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बिहार के छात्र राज्य के बाहर भी अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रहे हैं, लेकिन शिक्षा माफिया की वजह से पूरी दुनिया में उसकी बदनामी हो रही है। बिहार बोर्ड भी अरसे से बदनाम रहा है। ऐसे में प्रतिभाशाली छात्र कह रहे हैं कि उन्हें ऐसे बोर्ड का प्रमाणपत्र नहीं चाहिए
संजीव कुमार, पटना से
पिछले दिनों बिहार के संदर्भ में दो खबरें राष्ट्रीय मीडिया में छायी रहीं। एक खबर थी, बिहार विद्यालय परीक्षा समिति का मेधा घोटाला और दूसरी बिहार के छात्रों द्वारा जेईई एडवांस में उत्कृष्ट प्रदर्शन। पहली से राज्य शर्मसार हो रहा है, तो दूसरी से गौरवान्वित। मेधा घोटाले में शामिल रूबी राय, सौरव श्रेष्ठ सरीखे छात्र बिहार में ही हैं, तो वहीं जेईई एडवांस में लड़कियों में देश में प्रथम स्थान प्राप्त करने वाली रिया सिंह भी बिहार की ही हैं। छपरा की रहने वाली रिया सिंह ने देश में 133वां स्थान प्राप्त किया, वहीं आईजी सुनील कुमार के पुत्र ईशान ने तेत्तीसवां। सुपर-30 के 28 बच्चों और गया के पास स्थित पटवा टोली के 14 छात्रों ने आई.आई.टी. में सफलता प्राप्त की। पटवा टोली में पिछले 12-13 वर्ष में करीब 100 इंजीनियर पैदा हो चुके हैं। रामेश्वर महाविद्यालय (मुजफ्फरपुर) को संस्कृत विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. ब्रह्मचारी व्यासनंदन कहते हैं, ''बिहार तो प्रतिभा की भूमि है। यहां के बच्चे देश-दुनिया में अपनी प्रतिभा का परचम लहरा रहे हैं। यह अलग बात है कि कुछ लोगों ने बिहार की मेधा को पैसे के बल पर कुचलने का काम किया। ऐसे लोग ज्यादा दिन नहीं टिकते हैं। पाप का घड़ा भरते ही वे पकड़ में आ गए। इस घटना के आधार पर जो लोग बिहार की मेधा पर उंगुली उठा रहे हैं वे एकपक्षीय बात कर
रहे हैं।''
प्रख्यात शिक्षाविद् एवं सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक विश्लेषक प्रो़ अजय झा कहते हैं, ''मेधा घोटाला बिहार के दामन पर लगा एक गंदा दाग है। इससे बिहार की बेइज्जती पूरी दुनिया में हुई। यह दाग जितनी जल्दी खत्म हो जाए बिहार के लिए उतना ही अच्छा होगा। बिहार तो प्रतिभाओं की खान है, जिसकी झलक प्रतियोगिता परीक्षाओं में देखने को मिलती रहती है।'' बिहार विद्यालय परीक्षा समिति (बिहार स्कूल एक्जामिनेशन बोर्ड) को सामान्य भाषा में बोर्ड ऑफिस कहा जाता है। बोर्ड ऑफिस के मुख्य द्वार के पास मिले स्नातक के छात्र अमरेंद्र कहते हैं, ''यह बोर्ड ऑफिस नहीं, विवाद ऑफिस है। वास्तव में घपला का पर्याय है। बोर्ड और विवाद का पुराना नाता है। जब से बोर्ड का गठन हुआ है तब से बोर्ड हमेशा विवादों में रहा है।''
इस बोर्ड का गठन 1952 में हुआ था। इसके पहले पटना विश्वविद्यालय ही मैट्रिक की परीक्षा लेता था। 1917 में पटना विश्वविद्यालय का गठन हुआ। 1917 से पहले कलकत्ता विश्वविद्यालय बिहार में परीक्षाएं लेता था। 1952 में बोर्ड के गठन के बाद बिहार की स्कूली शिक्षा में एक नये बदलाव की उम्मीद की गई थी। अंग्रेजों के समय बिहार में सिर्फ जिला स्कूल हुआ करते थे। इसके अलावा निजी व कुछ अनुदान के विद्यालय होते थे जिनका प्रबंधन स्थानीय ग्रामीण समिति करती थी। शिक्षाविद् डॉ. ध्रुव किशोर कहते हैं, ''बिहार के विद्यालयों में पढ़कर ही डॉ़ राजेन्द्र प्रसाद, डॉ़ विधानचंद राय, फणीश्वरनाथ रेणु, सच्चिदानंद सिन्हा सरीखे दिग्गज पैदा हुए। लेकिन यह बात 1952 के पहले की है। 1952 के बाद से स्थिति बिगड़ती चली गई।'' प्रख्यात फिल्म अभिनेता एवं पटना के सांसद शत्रुघ्न सिन्हा पटना कॉलेजियट स्कूल के अपने दिनों की याद करते हुए स्वर्णिम अतीत में खो जाते हैं। वे कहते हैं, ''उस समय विद्यालयों का अनुशासन बड़ा कड़ा था। परीक्षाएं कड़े माहौल में ली जाती थीं, लेकिन शिक्षकों का व्यवहार बड़ा आत्मीय रहता था। कांग्रेस के अंदरूनी विवादों ने बिहार में स्कूली शिक्षा समेत तमाम संस्थाओं का बेड़ा गर्क कर दिया।''
बिहार बोर्ड के विधान में कई परिवर्तन हुए हैं। 1954 में पहला, 1960 में दूसरा, 1963 में तीसरा और 1976 में चौथा संशोधन किया गया। 1960 के दशक में तत्कालीन शिक्षा मंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा ने शिक्षा व्यवस्था में बड़े बदलाव का बीजारोपण किया था। 1963 में संशोधन करके सातवीं कक्षा में भी बोर्ड की परीक्षा सुनिश्चित करने की बात कही गई थी। 1965 से 1971 तक सातवीं कक्षा में भी बोर्ड की परीक्षा देनी पड़ती थी। इसका छात्र एवं अभिभावकों ने बड़ा विरोध किया था।
पटना उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता ओम प्रकाश सिंह कहते हैं, ''बिहार में शिक्षा व्यवस्था के पतन की शुरुआत 1965 के बाद से प्रारंभ हो गई थी। 1967 के बाद इसमें तेजी से गिरावट हुई। तत्कालीन मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद सिन्हा ने 'जिगर के टुकड़े' का नारा देकर छात्रों को भड़काने में अहम भूमिका निभाई थी।'' बिहार में राजनीतिक उथल-पुथल का दौर 1967 से शुरू हुआ। 'आया राम गया राम' की सरकार बनने लगी। कब किसकी सरकार गिर जायेगी और कब किसकी सरकार बन जायेगी, यह कहना बड़ा मुश्किल था। अपनी सरकार को स्थिर करने के लिए समाजवादी नेता एवं तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने अंग्रेजी के बिना पास का शिगूफा छोड़ा था। सामाजिक कार्यकर्ता अफजल इंजीनियर कहते हैं, ''ऐसा करके कर्पूरी जी ने बिहार की बड़ी आबादी को राजनीतिक रूप से अपनी ओर आकृष्ट करने का प्रयास किया था।'' 1970 के दशक में केदार पांडेय ने शिक्षा व्यवस्था को कुछ ठीक करने की कोशिश की, लेकिन स्थायित्व के अभाव में वे सफल नहीं हो सके। 70 और 80 के दशक में राज्य सरकार ने निजी विद्यालयों का संचालन भी अपने हाथ में ले लिया। सरकार ने अपना दायरा तो बढ़ा लिया, लेकिन नौकरशाही के माध्यम से वह इन विद्यालयों का प्रबंधन ठीक ढंग से नहीं कर पाई। उसके बाद बिहार में विद्यालयी शिक्षा चरमराने लगी। सेवानिवृत्त अध्यापक सुभाषचन्द्र दीक्षित कहते हैं, ''बिहार की शिक्षा व्यवस्था खराब न दिखे इसके लिए बोर्ड को अघोषित निर्देश दिया गया कि दसवीं का परिणाम बढि़या दिखना चाहिए। बोर्ड ने सरकार की लचर व्यवस्था का लाभ उठाया और मनमानी प्रारंभ कर दी। 1977 में बिहार बोर्ड पूरी दुनिया में कलंकित हुआ।''
शिक्षक डॉ. विजय कुमार सिंह कहते हैं, ''बिहार विद्यालय परीक्षा समिति का वर्तमान मेधा घोटाला पहला नहीं है। कदाचार, उत्तर पुस्तिकाओं के मूल्यांकन में हेरा-फेरी और खाने-कमाने का धंधा तो पुराना है। 1977 में बोर्ड के तत्कालीन अध्यक्ष ने अपने रिश्तेदार को ही शीर्ष स्थान दिलवा दिया था।''
राजीव ने उजागर किया घोटाला
वर्तमान में तमिलनाडु के अपर मुख्य सचिव राजीव रंजन के चलते यह घोटाला सामने आया। राजीव उन दिनों प्रतिष्ठित नेतरहाट के विद्यार्थी थे और हर कक्षा में प्रथम आते थे, लेकिन जब बोर्ड का परिणाम निकला तो उन्हें छठा स्थान प्राप्त हुआ। उन्होंने इस परिणाम को उच्च न्यायालय में चुनौती दी। पता चला कि उनकी कॉपी के साथ छेड़छाड़ की गई है। उच्च न्यायालय के आदेश पर सर्वश्रेष्ठ 100 छात्रों की कॉपी फिर से जांची गई। इसके बाद तो स्थिति ही बदल गई। बोर्ड ने सभी दस विषयों में सर्वश्रेष्ठ अंक प्राप्त करने वाले 10 छात्रों के बीच वाद-विवाद भी कराया। इसमें राजीव रंजन ने सभी विषयों में स्वर्ण पदक जीता था।
1980 में तस्कर कामदेव सिंह के लड़के समेत कई लोग वरीयता सूची में आये थे जिनको लेकर लोगों ने बोर्ड को कठघरे में खड़ा किया। इसके बाद बिहार की शिक्षा-व्यवस्था में थोड़ा बदलाव महसूस किया गया। राजाराम प्रसाद शिक्षा मंत्री बने और उन्होंने शिक्षा व्यवस्था को कुछ ठीक करने की कोशिश की। इसका प्रभाव 1990 तक रहा। 1990 में लालू प्रसाद का राज शुरू हुआ। उनके 15 वर्ष के राज में बिहार की शिक्षा-व्यवस्था लगभग चौपट हो गई। फिल्म निर्देशक रीतेश परमार कहते हैं, ''आज बिहार बोर्ड से वही परीक्षा देता है जिसके पास कोई अन्य विकल्प नहीं है। इसके लिए बाजारवाद तथा लालू प्रसाद का कुशासन दोनों जिम्मेदार
रहे हैं।'' लालू राज के कुशासन के बाद 2005 में नीतीश कुमार के नेतृत्व में राजग की सरकार बनी। जनता को अपेक्षा थी कि बिहार की शिक्षा-व्यवस्था सुधरेगी, लेकिन कुछ नहीं हुआ। परिवर्तन सिर्फ इतना हुआ कि 1980 में गठित बिहार इंटरमीडिएट एजुकेशन काउंसिल का विलय 2007 में बिहार विद्यालय परीक्षा समिति में कर दिया गया। समिति के अध्यक्ष एवं सचिव पद पर नीतीश कुमार के नजदीकी लोग ही काबिज रहे। निवर्तमान अध्यक्ष लालकेश्वर प्रसाद सिंह न सिर्फ नालंदा जिला के हैं, बल्कि उनकी पत्नी डॉ़ उषा सिंह जदयू के टिकट पर विधायक भी रह चुकी हैं। लालकेश्वर गिरफ्तारी के डर से अभी फरार चल रहे हैं।
गत वर्ष मैट्रिक परीक्षा में नकल को लेकर बिहार सुर्खियों में रहा था। इस बार मैट्रिक का परीक्षा परिणाम ठीक नहीं आया है। लोगों का कहना है कि बोर्ड यह दिखाने की कोशिश कर रहा था कि इस बार परीक्षा कदाचार मुक्त हुई है, लेकिन रूबी और सौरभ जैसे छात्रों ने उसका खेल बिगाड़ दिया। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भले ही इसकी जांच की बात कही है, लेकिन आम जन अब भी आशंकित है। क्या यह जांच सही दिशा में चल पायेगी या चारा घोटाले की तरह इस मामले की भी लीपापोती हो जायेगी?
उस समय विद्यालयों का अनुशासन बड़ा कड़ा था। परीक्षाएं कड़े माहौल में ली जाती थीं, लेकिन शिक्षकों का व्यवहार बड़ा आत्मीय रहता था। कांग्रेस के अंदरूनी विवादों ने बिहार में स्कूली शिक्षा समेत तमाम संस्थाओं का बेड़ा गर्क कर दिया।
—शत्रुघ्न सिन्हा, सांसद और अभिनेता
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