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मशहूर राजस्थानी कहावत है, सेल धमीड़ा जो सहै, सो जागीरी खाय यानी जो भाले की चोटें सहता है, सत्ता में तूती उसी की बोलती है। ग्यारह बरस पहले गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के विरोधी उन पर दुर्भावना से प्रेरित राजनीतिक लांछनों की बर्छियां फेंक रहे थे। आज प्रधानमंत्री मोदी की अगुआई में भारत का डंका पूरी दुनिया में बज रहा है।
जिस अमेरिकी संसद ने कभी उनके अमेरिका आने पर रोक लगाने का प्रस्ताव स्वीकृत किया था, अब वही संसद नरेंद्र मोदी द्वारा भारत का पक्ष दृढ़ता से रखने पर तालियों में डूब गई।
अदम्य जिजीविषा और अनवरत संघर्ष के बूते परिस्थितियों को अपने पक्ष में मोड़ने की यह कहानी दुनिया के उस सबसे ऊर्जावान देश की है जिसका नेतृत्व आज मोदी कर रहे हैं। दरअसल, यह व्यक्ति के पीछे सवा अरब भारतीयों की शक्ति और आकांक्षाओं की हिलोर है।
वर्तमान भारतीय प्रधानमंत्री की यह चौथी अमेरिका यात्रा थी जिसमें उन्होंने पहली बार अमेरिकी संसद को संबोधित किया। यदि यात्राओं को मेल-जोल का कदम गिना जाए, तो कहा जा सकता है कि इन चार कदमों में भारत ने अमेरिका के साथ संबंधों का भारी अंतर पाट लिया है। पूरब और पश्चिम की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं अब औपचारिकताओं से ऊपर उस स्तर पर समन्वय बैठाती दिखती हैं जहां बड़े-छोटे और बाजार-ग्राहक से आगे की महत्वपूर्ण बातें तेजी से निर्णयों और नई सहमतियों का रूप ले सकती हैं। यह सब अपने आप नहीं हुआ। भारत के महत्वाकांक्षी सौर एवं वैकल्पिक ऊर्जा कार्यक्रम पर्यावरण संरक्षण की वैश्विक चिंताओं के प्रति गहरी प्रतिबद्धता के प्रतीक बन गए हैं। सदाशयता और उदारता भारतीय संस्कृति के स्वाभाविक गुण हैं इसलिए नेपाल, मालदीव और अफगानिस्तान जैसे पड़ोसियों के लिए आड़े समय में तत्परता से की गई बड़ी मदद को भी सिर्फ 'कूटनीति' के तराजू में तौलना गलत होगा। इसके अलावा आर्थिक अपराधों से लेकर आतंकवाद जैसे दबे मुद्दों पर विश्व की चिंताओं को स्वर देने का काम पिछले दो वर्ष के दौरान भारत ने अभूतपूर्व कुशलता से किया है। ये सब ऐसी खरी बातें हैं जिनसे पूरे देश की छवि निखरी है।
दरअसल, विश्व राजनीति का यह वह सबसे दिलचस्प दौर है जहां भारत अपनी पूरी ऊर्जा और सांस्कृतिक पहचान के साथ स्थापित होने के लिए खड़ा होता दिखता है।
किन्तु इस मोड़ पर कुछ पक्ष ऐसे भी हैं जिन्हें भारत का यह उभार चिंतित कर रहा है। चीन के अलावा पाकिस्तान का सत्तातंत्र शक्तिशाली विश्व बिरादरी में भारत की इस बढ़ती साख से खासा बौखलाया हुआ है। हाल ही में लंदन से दिल का ऑपरेशन कराकर लौटे प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के लिए यह किसी सदमे से कम नहीं है कि खुद उनकी ही पार्टी संसद में स्थगन प्रस्ताव लाकर उनसे भारत की बढ़ती कूटनीतिक और सामरिक ताकत को रोकने की तैयारियों के बारे में पूछ रही है! उधर, चीन का आरोप है कि अमेरिका भारत के जरिए एशिया-प्रशांत क्षेत्र को अस्थिर करना चाहता है?
वैसे, भारत की नई चमक से चौंधियाई आंखों के ये सवाल बुनियादी तौर पर गलत और दुनिया में भ्रम फैलाने वाले हैं।
भारत से अलग हुए पाकिस्तान को अब गंभीर होना पड़ेगा। उसे कुनबा पार्टियों और वहाबी उन्माद के पालने से अलग पहचान बनानी होगी और एक सभ्य देश की तरह व्यवहार करते हुए सोचना होगा कि सिर्फ भारत विरोध से देश नहीं चल सकता। भारत से दूरी और चीन से नजदीकी का टोटका पाकिस्तानी राजनीतिकों को भले जनता को भरमाने के लिए कारगर लगे, हकीकत यही है कि इससे आम पाकिस्तानी की जिंदगी में कोई बड़ा फर्क नहीं पड़ा और जनता को बैर की राजनीति से चिढ़ होने लगी है। पाकिस्तान के प्रमुख अखबारों की संपादकीय टिप्पणियों और टीवी बहसों में जनता और बुद्धिजीवियों का यह गुस्सा अब बहुत साफ झलकने लगा है।
चीन ने माना है कि भारत और अमेरिका के संबंध अभूतपूर्व मुकाम पर हैं। साथ ही उसे यह भी याद रखना चाहिए कि आर्थिक साझेदारी की दृष्टि से भारत-चीन संबंधों का भी यह महत्वपूर्ण दौर है। उसे यह भी समझना होगा कि दुनिया उनके जैसी एकपक्षीय व्यवस्था (जिसे वहां एक विशिष्ट लोकतंत्र की उपमा दी जाती है) से नहीं चलती, और इसलिए एशिया-प्रशांत, या कहिए, पूरी दुनिया को किसी एक देश की इच्छानुसार संतुलित नहीं किया जा सकता। साम्यवाद से पूंजीवाद का अनोखा 'यू-टर्न' मारने वालों द्वारा भारत को गुटनिरपेक्षता की राह पर डटे रहने की सलाह अपनी जगह, परंतु किसी नीति को भारत ने त्यागा, या नहीं त्यागा…या फिर उसकी उपयोगिता का मूल्यांकन कैसा रहा, ये सब विषय भारतीय प्रभुसत्ता के नितांत भीतर के विषय हैं। वैसे इस या उस पक्ष में शामिल होने से बड़ी बात यह है कि दूसरे पक्ष से द्रोह-द्वेष कभी भारत की नीति और स्वभाव नहीं रहा। पास-पड़ोस में शांति, स्थिरता और संतुलन के पैरोकार तिब्बत की दमित जनाकांक्षाओं और चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे को किस नजर से देखते हैं, उन्हें यह भी दुनिया के सामने स्पष्ट करना चाहिए।
बहरहाल, भारत रूमानी किन्तु अव्यावहारिक परिभाषाओं के जालों, गुटों के झुरमुटों और भ्रम भरी दोस्तियों से परे ठोस कदमों से उस राह पर बढ़ रहा है जो उसके लिए आज के दौर में सबसे जरूरी है।
जिसने अरसे तक बहुत चोटें खाईं, आज उस देश की तूती बोल रही है।
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