|
राजनीति में आने पर पत्रकार जैसी दृष्टि नहीं रहती, थोड़ा फर्क हो जाता है। लेकिन पत्रकारिता हो या राजनीति, दोनों का अंतिम उद्देश्य तो देश की भलाई के लिए काम करना ही है
एम.जे. अकबर
संपादक के केबिन से भारत की संसद तक के मेरे सफर के हर पड़ाव ने मेरे अनुभव-कोश को समृद्घ किया है और मुझे बहुत कुछ सिखाया है। गरीबी के बारे में लिखना एक बात है और उसकी हकीकत से रू-ब-रू होना और बात। सोच-समझ कर बनाई नीतियों के निष्पादन और इस दिशा में जागरूकता पैदा करने के बीच की खाई को पाटने के मेरे प्रयास ने मुझे इस मुकाम पर पहुंचाया है। चुनाव लड़ने के दौरान और प्रधानमंत्री की आदर्श ग्राम योजना के तहत एक नक्सल प्रभावित गांव को अपनाने के बाद मैंने गरीबी को यथार्थ में जैसा देखा, वैसा परिचय इस विषय से संबंधित सर्वश्रेष्ठ किताब भी नहीं करा सकती थी। कुछ बातें हैरान कर देती हैं, जैसे आजादी के करीब 70 साल के बाद किसी गांव में पहली बार बिजली पहुंचे, या गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) जीवनयापन कर रही आबादी को 50 फीसदी तक कम करने में भी करीब इतने ही साल लग जाएं। आंकड़ों के लिहाज से यह सराहनीय लग सकता है, लेकिन भुखमरी झेलते इंसान के लिए यह स्थिति खौफनाक है। उसके लिए हर दिन अस्तित्व बनाए रखने का संघर्ष है। कोई भूखा न सोए, यह सुनिश्चित करने में अगले 70 साल तक इंतजार करने का तो सवाल ही नहीं उठता।
आजादी के बाद विभिन्न सरकारों की ओर से पेश किया गया 'गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम' बेकार और विफल रहा, उसकी जगह मोदी की 'गरीबी मिटाएं' का आह्वान न सिर्फ सरकार की प्रतिबद्धता के नए कपाट खोल रहा है, बल्कि मुझे भी शांति, प्रगति और समावेशी विकास की इस ऐतिहासिक यात्रा में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए प्रेरित कर रहा है। मैं मानता हूं कि पेशे को बदलते समय कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जैसे नए तौर-तरीके सीखना और चंद पुरानी आदतों को छोड़ देना। लेकिन मेरे प्रयास सार्थक साबित हुए, क्योंकि हर किसी को मोदी जैसे नेता की अगुआई में काम करने का सौभाग्य नहीं मिलता जो केवल एक विचारक और दार्शनिक ही नहीं हैं, बल्कि एक व्यावहारिक नेता भी हैं और जो कहते हैं उसे पूरा करते हैं।
लोग अक्सर मुझसे पूछते हैं कि राजनीति के बारे में बतौर पत्रकार मेरा जो नजरिया था, राजनीतिज्ञ बनने के बाद वह पूरी तरह से बदल तो नहीं गया? इस सवाल का जवाब थोड़ा जटिल है। परिप्रेक्ष्य में बदलाव को समझने के लिए हमें उन संबंधित बिन्दुओं को भी समझना होगा जो इन दोनों पेशों को परिभाषित करते हैं। मोटे तौर पर राजनेता और पत्रकार के बीच वैसा ही रिश्ता है जैसा एक सीईओ और एक लेखा परीक्षक के बीच होता है। हालांकि दोनों के धर्म भिन्न हैं, पर उनका उद्देश्य और कार्य कंपनी की भलाई पर केंद्रित होते हैं। इसी तरह, पत्रकार और राजनेता राष्ट्र की भलाई के लिए काम करते हैं, पर उनके मुद्दों और दृष्टिकोणों की जमीन अलग-अलग होती है। जहां एक पत्रकार समाज में व्याप्त समस्याओं का सामना करने के लिए जागरूकता पैदा करता है और सत्ता में बैठे लोगों को समझने, उनका विश्लेषण और आलोचना करने की कोशिश करता है, वहीं राजनीति का क्षेत्र बुनियादी तौर पर विधि निर्माण संबंधी कायार्ें पर केंद्रित है जैसे सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए नीतियों का निर्माण और उनका सही कार्यान्वयन सुनिश्चित करना। दोनों के बीच संबंध में दूरी या उदासीनता नहीं, बल्कि एक तरह का लचीलापन और सक्रियता है। इस बात को ध्यान में रखना होगा कि दोनों पेशों के बीच निष्पक्ष सराहना का रिश्ता है जो वकालत जैसे अन्य पेशों की तरह बिना शर्त रिहाई की राह तैयार नहीं करता जिसमें ग्राहक के सरोकार से जुड़ी बातों को ही सही माना जाता है।
राजनीति को देखने के एक पत्रकार और एक नेता के नजरिये में वही अंतर होता है जो एक कंपनी को देखने में किसी लेखा परीक्षक और सीईओ के नजरिये में होता है। दोनों कंपनी की भलाई चाहते हैं और इसी के लिए काम करते हैं। उनके हर कदम, हर फैसले के पीछे कंपनी के सवार्ेत्तम हित की मंशा होती है, फिर भी, उनके दृष्टिकोण और उनकी प्राथमिकता में जमीन-आसमान का अंतर होता है और यही स्पष्ट अंतर उनके कामकाज और नजरिये में भी परिलक्षित होता है। मैंने इन दोनों भूमिकाओं को निभाया है और पूरे भरोसे के साथ कह सकता हूं कि दोनों एक-दूसरे से एकदम अलग हैं और इनके लिए अलग-अलग कौशल और मानसिक तैयारी की जरूरत पड़ती है। इनकी परस्पर तुलना नहीं की जा सकती। जहां तक मेरी बात है, मैं सौंपी गई भूमिका को अपना सौ फीसदी देने पर विश्वास करता हूं।
पत्रकारिता की बात करें तो यह पेशा मानव अस्तित्व जितना ही पुराना है। नारद पहले ज्ञात रिपोर्टर के तौर पर विख्यात हैं। मैं समझता हूं कि हिंदी फिल्मों और धारावाहिकों में नारद को जिस तरह के संकीर्ण और घिसे-पिटे तरीके से पेश किया गया है, वह बिल्कुल गलत है। नारद महज एक रिपोर्टर नहीं, बल्कि बहुमुखी प्रतिभा थे। मैं निजी तौर पर संजय (महाभारत की आंखों देखी बयां करने वाला) को पसंद करता हूं। तथ्यों को पेश करने का उनका निष्पक्ष और संतुलित तरीका उन्हें आदर्श बनाता है और यह वाकई अनुकरणीय है। आईटी क्रांति के बाद पत्रकारिता की दुनिया में जबरदस्त बदलाव आया है। आज के पत्रकार जागरूक और बेहतर तकनीकी समझ से लैस हैं और सूचना का अथाह समुद्र उनकी पहुंच में है। बस एक क्लिक की जरूरत है। हमारे समय में सूचना-आंकड़े निकालना बड़ा दुरूह काम था। हमारे लिए सूचना का अभाव चुनौती था और आज की पीढ़ी के पत्रकारों के लिए सूचना की बाढ़ चुनौती है। इस क्षेत्र में अपने वषोंर् के अनुभव के आधार पर आज के युवा पत्रकारों के लिए मेरी इतनी सलाह है कि पाठकों, खास तौर पर गरीबों और समाज के वंचित वगोंर् के प्रति अपनी बुनियादी प्रतिबद्धता से आंखें न फेरें। बेशक विज्ञापन के रूप में वे आपके लिए पैसे कमाने का जरिया न बन पाएं, लेकिन ये वे लोग हैं जो देश की नब्ज हैं और नीति निर्माण और सरकार के सभी प्रयासों के मूल में हैं। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मुझे यह देखकर बेहद निराशा होती है कि हाल के समय में सरकार के कई ऐतिहासिक कदमों को मीडिया ने कोई तवज्जो नहीं दी। उदाहरण के लिए, 1,80,000 करोड़ रु. की मुद्रा योजना। उद्यमशीलता को बड़े पैमाने पर प्रोत्साहित करने वाली इस योजना को किसी प्रमुख टीवी चैनल ने नहीं दिखाया, जबकि मामूली राशि के घोटाले प्राइम टाइम पर कई दिनों तक दिखाए गए। इसी से हमारे मीडिया घरानों की उदासीनता और प्राथमिकताओं का पता चलता है।
यह सब कहने के साथ मैं यह भी कहना चाहूंगा कि हालात इतने भी हताशाजनक नहीं हैं। सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। उम्मीद बाकी है। यहां-वहां काफी अच्छे काम दिख जाते हैं, जिससे मीडिया की ताकत और उसकी क्षमता के प्रति भरोसा बना रहता है। इस टिप्पणी के साथ मैं बात खत्म करना चाहूंगा कि अगर 80 प्रतिशत मीडिया भी निष्पक्ष और बिना भय या पक्षपात के खबरें पेश करे तो चिंता की कोई बात नहीं, क्योंकि इसी से एक स्वस्थ और जीवंत माहौल सुनिश्चित हो जाएगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और भाजपा के राज्यसभा सदस्य हैं)
के. आयुषि से बातचीत पर आधारित
टिप्पणियाँ