चौथा स्तम्भ / नारदघोटाले का दावानल
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चौथा स्तम्भ / नारदघोटाले का दावानल

by
May 9, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 09 May 2016 13:03:00

मीडिया के मठाधीशों में इन दिनों वैसा ही हड़कंप मचा हुआ है, जैसा नीरा राडिया के टेप सामने आने के बाद हुआ था। अगस्ता वेस्टलैंड डील पर इटली की अदालत का फैसला आने के बाद कांग्रेस के नेताओं के ही नहीं, कुछ बड़े पत्रकारों के चेहरे भी उतरे दिख रहे हैं। यह समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है कि वे पत्रकार कौन हैं। इटली की अदालत के फैसले में यह बात भी सामने आई है कि भारतीय मीडिया को 'मैनेज' करने के मकसद से 45 करोड़ रुपये दिए गए।
टाइम्स नाऊ  को छोड़ बाकी लगभग सभी चैनलों को हेलिकॉप्टरों की खरीद में रिश्वतखोरी 'मामूली खबर' लगी। कुछ ने खबर को दिखाया भी तो वही जिसका 'ब्रीफ' शायद उन्हें कांग्रेस के अपने 'सूत्रों' से मिला। पूरा जोर इटली की अदालत के फैसले से उपजे सवालों की तलाश की बजाय कांग्रेस का पक्ष दिखाने और लोगों को भ्रमित करने पर रहा।
दरअसल अगस्ता वेस्टलैंड मामले में घिरे 'परिवार' को बचाने के लिए कांग्रेस ने अपने पूरे तंत्र को सक्रिय कर दिया है। मीडिया इसका अहम हिस्सा है। इसी के तहत कई पत्रकार झूठी कहानियां गढ़ने और बयानों को तोड़ने-मरोड़ने में लग गए हैं। टाइम्स नाऊ  ने फैसला सुनाने वाले जज का इंटरव्यू किया जिन्होंने साफ-साफ कहा कि उन्होंने किसी भारतीय नेता को क्लीनचिट नहीं दी है। लेकिन इसी समूह के टाइम्स ऑफ इंडिया और नवभारत टाइम्स ने अगले दिन पीटीआई के हवाले से खबर छापी कि किसी भारतीय नेता के खिलाफ सबूत नहीं है। इस खबर का आधार क्या है, कहीं बताया नहीं गया। वैसे भी पीटीआई इन दिनों 'सूत्रों के हवाले से' सरकार के खिलाफ चल रहे दुष्प्रचार का उत्पत्ति स्थल बना हुआ है। पिछले कुछ दिनों में इस न्यूज एजेंसी की कई खबरें गलत साबित हो चुकी हैं।
डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी जब राज्यसभा में कांग्रेस और उसके सहयोगियों से टक्कर ले रहे थे, तब सबसे तेज चैनल के सबसे क्रांतिकारी एंकर हाथ मसलते हुए बता रहे थे कि स्वामी की उम्र 75 से ज्यादा है, इसलिए उन्हें राज्यसभा का सदस्य नहीं बनाया जाना चाहिए। हेलिकॉप्टर घोटाले को संसद में उठाने को वे विकास के एजेंडे से भटकना मान रहे थे। जाहिर है, जनता के लिए यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है कि पत्रकारिता के नाम पर नाच रही इन कठपुतलियों की डोर कहां पर है। इसी चैनल पर अंग्रेजी के 'सेलिब्रिटी' संपादक ने एक दिन पहले उलटे डॉ. स्वामी को ही कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की थी। वे उनका जवाब सुनने की बजाय अपना पक्ष उनके मुंह में डालने की कोशिश करते रहे। ऐसा करके उन्होंने शक की सुई अपनी ही तरफ घुमा ली।
इन्हीं सेलिब्रिटी संपादकजी ने एक दिन बाद ट्विटर पर तीखे सवाल पूछने वाले कई आम लोगों को जवाब में मां-बहन की गालियां दीं। बाद में कह दिया कि मेरा एकाउंट हैक हो गया था। इसकी रिपोर्ट पुलिस में दर्ज कराने की बजाय वे ट्विटर से ही भाग गए। अब मीडिया में उनके दोस्त गालियों की अनदेखी करके उन्हें पीडि़त और भुक्तभोगी साबित करने में जुटे हैं।
उधर मंदिरों में महिलाओं पर रोक के विरोध में मीडिया में चलाए जा रहे अभियान अचानक बंद हो गए। जब तक हिंदू मंदिरों की बात थी, तब तक सभी चैनलों के प्राइम टाइम पर यह खबर छाई रही। 3-4 मंदिरों के सवाल पर पूरे हिंदू धर्म को दकियानूसी साबित करने की कोशिश की गई। लेकिन जब बात हाजी अली दरगाह की आई तो मीडिया भी उलटे पैर भाग गया और वे आंदोलनकारी भी, जिन्होंने बराबरी की इस तथाकथित लड़ाई की मशाल थाम रखी थी।
कुल मिलाकर केंद्र सरकार के अच्छे कामों से लोगों का ध्यान बंटाने में मीडिया लगातार सफल बना हुआ है। चाहे वह गरीबों को सस्ती दरों पर मिल रहे लोन की बात हो या हर गरीब मां के घर में रसोई गैस पहुंचाने का अभियान। लंबे समय के बाद यह पहला साल है जब देश में बिजली का वैसा संकट नहीं है जैसा आमतौर पर हुआ करता था। एयर इंडिया समेत सार्वजनिक क्षेत्र की कई बीमारू कंपनियां मुनाफे की तरफ बढ़ रही हैं। लेकिन मुख्यधारा मीडिया इनका जिक्र तक करना जरूरी नहीं मानता।
केरल में एक दलित छात्रा के साथ बलात्कार करके उसकी हत्या कर दी गई। लेकिन यह खबर पूरे राष्ट्रीय परिदृश्य से गायब है। यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है कि मीडिया में कुछ लोग हैं जो दलितों पर अत्याचार जैसे जघन्य मामलों को भी राजनीतिक चश्मे से देखकर उठा या दबा रहे हैं। प्रधानमंत्री की डिग्री को लेकर एक फर्जी वीडियो के जरिए कई साल से भ्रम फैलाया जाता रहा है। विपक्ष के नेताओं के अलावा कई बड़े पत्रकारों ने भी इस वीडियो को सोशल मीडिया पर शेयर करके झूठ फैलाने में मदद की। अब जब सच सामने आ गया है, तो क्या यही पत्रकार सोनिया और राहुल गांधी की शैक्षिक योग्यता के बारे में सवाल पूछने की हिम्मत दिखाएंगे? उत्तराखंड के जंगलों की आग की खबर भी मीडिया में छाई रही। पहाड़ी राज्यों में यह हर साल की समस्या बन चुकी है। जिस तरह से पहाड़ों पर पिछले कुछ सालों में अंधाधुंध शहरीकरण हो रहा है, वह किसी समस्या से कम नहीं है। उम्मीद की जानी चाहिए कि पर्यावरण और प्रदूषण के मुद्दों पर मीडिया की संवेदनशीलता बढ़ेगी और वह इस बारे में जागरूकता पैदा करने की जिम्मेदारी निभाएगी।    ल्ल 

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