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कम्युनिस्ट असहिष्णुता के जिंदा बलिदानी

by
May 2, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 02 May 2016 11:57:50

 

कन्नूर में रह रहे स्टालिन के भूतों की नरभक्षी हरकतों में जहां कइयों ने अपनी जिंदगियां लील लीं वहीं अनगिनत के मुंह पर ताले लगा दिए। कई क्षत-विक्षत जिंदगियां खूंखार फासीवादी असहिष्णुता की सबूत हैं, ऐसी जैसी देश ने पहले कभी नहीं देखीं। सदानंदन मास्टर, सुमेश, शाजी, बीजू आदि तो बस उस विशाल संख्या के कुछ प्रतिनिधि मात्र हैं जिन्होंने कम्युनिस्ट तत्वों की हिंसा का सामना किया था। तलासेरी तालुका शारीरिक प्रमुख सुमेश पर माकपा के कार्यकर्ताओं के गुट ने बर्बर हमला किया था। उस हमले में सुमेश के चेहरे और सिर पर गहरे घाव आए थे। उसका चेहरा दो हिस्सों में बंट गया लेकिन बाद में एक बड़े ऑपरेशन में उन हिस्सों को जोड़ा गया। हालांकि उसने अपनी हथेली हमेशा के लिए खो दी है। तालुका कार्यवाह शशिधरन के भाई शाजी ने माकपा के गुंडों के बर्बर हमले में उस वक्त दोनों आंखें गवां दीं जब वह मनोज के साथ सफर कर रहा था जिसे बाद में उन्होंने मार डाला था।     
बीजू की कहानी बाकियों से थोड़ी अलग है क्योंकि उस पर माकपा ने दो बार हमला बोला था। पहले हमले का इलाज कराकर लौटने के बाद उस पर दोबारा हमला किया गया था। निर्दयी कम्युनिस्टों ने हरे घावों पर ही चोट की थी और उसकी जिंदगी को अनिश्चितता के भंवर में डुबो दिया था। आज उसका एक पैर लकवा ग्रस्त है। उसके हाथ आंशिक रूप से लकवाग्रस्त हैं और अंगुलियां हिलती नहीं हैं। वह अपनी रोजी भी नहीं कमा सकता।
सदानंदन मास्टर शायद कम्युनिस्ट असहिष्णुता के सबसे बड़े जीवित बलिदानी हैं। श्रीदुर्गा विलासम उच्च माध्यमिक विद्यालय, पेरामंगलम, त्रिशूर में पढ़ा रहे मास्टर केरल राज्य विधानसभा चुनाव में कुठुपरंबा सीट से भाजपा के उम्मीदवार हैं। अपने जीवन और उसमें आई अड़चनों के बारे में बताते हुए सदानंदन मास्टर ने कहा, ''मैं कम्युनिस्ट परिवार से था। इसलिए जाहिर था मैं वामपंथी विचारधारा की तरफ जाता। लेकिन बाद में कम्युनिस्टों की वैचारिक कंगाली मेरे सामने मुझे दिखने लगी। बेशक मुझे पढ़ने से भी यह सब समझ आया। मुझे दो-तीन घटनाएं याद आती हैं जिनकी वजह से मैंने कम्युनिस्टों को छोड़ा। संघ के स्वयंसेवक गोकुलदास से मेरी दोस्ती, तत्कालीन अभाविप नेता के साथ मेरी बातचीत और अक्कीतम की लिखी भारत दर्शनम् को पढ़ने से मेरे विचार बदले।  1984 आते-आते मैं पूरी तरह स्वयंसेवक बन गया और मेरे अंदर विचारधारा भी गहराई से समा गई।''    
उन्होंने बताया, ''मैंने माकपा की एक हड़ताल से जुड़े मुद्दे को सुलझाने की कोशिश की थी जो शायद उन्हें पसंद नहीं आई, लेकिन उन्होंने मेरे पिता के जिंदा रहते कभी मेरे ऊपर हमला नहीं बोला था। मुझ पर 25 जनवरी 1984 को हमला किया गया। उस वक्त मैं कन्नूर जिला सहकार्यवाह था। माकपा कार्यकर्ताओं के एक समूह ने बस स्टॉप से घर लौटते हुए मुझे धक्का देकर गिराया और मुझे सड़क पर लिटाकर जकड़ लिया। मुझे लगा कि मेरे पैरों के साथ कुछ किया जा रहा है। मेरे पैर एकदम सुन्न हो चुके थे। उनके जाने के बाद मैंने उठने की कोशिश की तब जाकर मैंने देखा कि मेरे पैरों मेरे शरीर से अलग कर दिया गया था। हमलावरों ने मेरे घावों में जानबूझकर मिट्टी और गोबर भर दिया था ताकि डॉक्टर मेरे पैरों को जोड़ न सके।''
बेशक मास्टर जी टूट चुके थे, लेकिन उन्होंने जल्दी ही वास्तविकता को स्वीकारा उनकी संगिनी वनीता रानी उनके साथ खड़ी रहीं, जिन्होंने इस घटना के बाद भी उनसे शादी करने का मन बनाया था। सदानंदन मास्टर आगे बढ़ने की अपनी ताकत का श्रेय सैकड़ों स्वयंसेवकों और माताओं की प्रार्थनाओं को देते हैं।  

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