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बर्दाश्त नहीं मुस्लिम पर्सनल लॉ में दखल

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Apr 25, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 25 Apr 2016 12:49:24

औरतों के अधिकारों के नाम पर इस्लाम के प्रभाव को कम करने की कोशिश की जा रही है, यह सहन नहीं किया जाएगा। इस्लाम की गलत व्याख्या की जा रही है

अशरफ उस्मानी

ऐसा लगता है कि भारत का पंथनिरपेक्ष संविधान खतरे में है। मजहबी स्वतंत्रता को खत्म या कम करने की कोशिश की जा रही है। तलाक पर छिड़ी बहस भी इसी की एक कड़ी मालूम होती है। हमारा संविधान प्रत्येक नागरिक को अपने मत-पंथ और इसके नियम-कायदों के पालन, प्रचार और सुरक्षा का हक देता है। संविधान की यह विशेषता इस्लाम विरोधी समुदायों को सहन नहीं हो रही है। इसलिए इस्लाम के प्रभाव को कम करने के प्रयास हो रहे हैं।
इसी कड़ी में लोकतांत्रिक देश में समान आचार संहिता लागू करने और मुस्लिम पर्सनल लॉ को निष्प्रभावी करने की कोशिशें सामने आ रही हैं। साफ है कि इस्लाम विरोधी अपनी इस मंशा की पूर्ति के लिए संविधान की पांथिक स्वतंत्रता प्रदान करने वाली धाराओं को बेअसर करने की कोशिशों में लगे हैं। हमारे लिए परेशानी का यह सबब बिल्कुल नहीं है कि सरकार में बैठे कुछ लोग या इस्लाम विरोधी अभियान से जुड़े कुछ लोग इस्लाम का गलत तसव्वुर पेश कर रहे हैं। चिंता का विषय यह है कि न्यायपालिका से संबंधित बहुत से लोग इस्लाम की सही धारणा को समझ नहीं पाते और इसकी गलत व्याख्या पेश कर देते हैं। शायरा बानो मामला इसकी जिंदा मिसाल है। मुस्लिम पर्सनल लॉ में दखल मुसलमानों को स्वीकार्य नहीं।  
एक ही बार में तीन तलाक के एक 'फिर्कही' (इस्लामी कानून) नियम को चुनौती दी जा रही है। खास बात यह है कि इस मसले पर टीका-टिप्पणी करने वाले वे लोग भी हैं, जो इस्लाम के बुनियादी उसूलों से भी वाकिफ नहीं हैं। खासतौर पर टीवी बहसों में ऐसे लोग इस्लाम पर बहस करते नजर आते हैं, जिनको इस्लाम का मामूली ज्ञान भी नहीं है। मेरे ख्याल में इस अंदाज का माहौल बनाना मुल्क की स्वतंत्र और गणतंत्र व्यवस्था पर भी कुठाराघात है। इसमें कोई शक नहीं है कि भारत का संविधान मुसलमानों को अपना पर्सनल लॉ इख्तियार करने की इजाजत देता है। तीन तलाक के खिलाफ आवाज उठाने के लिए औरतों के अधिकारों और इसकी आजादी का हवाला दिया जाता है। जबकि कुरआन, हदीस, फिकाह और चारों इमाम व पूरी उम्मत के यहां इसका 'इज़मा' मिलता है। कभी कोई विरोधाभास की सूरत इसमें दिखाई नहीं दी। इसलिए जो लोग औरत की आजादी के नाम पर इसके खिलाफ आवाज उठाते हैं, वास्तव में वह आवाज इस्लाम के खिलाफ उठती है। ये बात जगजाहिर है कि एक मजहब को मानने वाला तबका होता है और दूसरा इससे इनकार करने वाला। ये दोनों तबके हिंदुस्तान में किसी भी इस्लामी फैसले को मानने या न मानने के लिए भारतीय संविधान के तहत आजाद हैं। मिसाल के तौर पर इस्लाम में नमाज पढ़ना, रोजा रखना, जकात देना और हज करना फर्ज है। इसी तरह शराब पीना, जुआ खेलना, सूद लेना-देना, चोरी करना, कत्ल करना हराम है। लेकिन बहुत से लोग हैं, जो इस्लाम के इन अहकामात पर अमल नहीं करते। तलाक का मसला भी ऐसा ही है। इस्लाम के नजदीक एक वक्त में तीन तलाक देने के बाद अलहदगी के सिवा कोई रास्ता बाकी नहीं रहता। यह एक अंतिम फैसला है। मुसलमानों को चार शादी की इजाजत भी सशर्त ही दी गई है। अब कोई मानता है या नहीं मानता, यह उस व्यक्ति के विवेक पर निर्भर करता है। लेकिन हम यह चाहते हैं कि हर मुसलमान को इस्लामी तालीमात और अहकामात पर अमल करना चाहिए। भारत और पड़ोसी मुल्कों में आबाद मुस्लिम समुदाय में तलाक का मसला बड़ा संगीन है। अक्सर जरा सी नादानी से पूरा घर बर्बाद हो जाता है। इस्लाम तलाक को बिल्कुल पसंद नहीं करता, बल्कि बुरा घोषित करता है। लेकिन यह बात भी सच है कि एक ही बार में तीन बार तलाक दे देने के बाद तलाक प्रभावी हो जाता है। जिस तरह इस्लाम ने तलाक के 'अहसन' तरीके बताए हैं, अगर संबंध विच्छेद की जरूरत पड़े तो उन तरीकों को अपनाया जा सकता है। तलाक की समाजी खराब सूरते हाल से निपटने के लिए बहुत से तरीके हो सकते हैं। तलाक का मसला इस्लामी कानून की वजह से नहीं, बल्कि समाजी खराबियों की वजह से परेशानी का कारण बना हुआ है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस्लाम वह पहला मजहब है जिसने प्रत्यक्ष तौर पर औरतों के अधिकार स्थापित किए हैं।  इस्लाम में औरतों को जहां अपने पिता की संपत्ति में हिस्सेदारी का अधिकार दिया गया है, वहीं उसे अपने शौहर की हिस्सेदारी में भी अधिकार प्राप्त है।  
अनेकता में एकता और मजहबी स्वतंत्रता भारत की खासियत है। इसको बर्बाद नहीं होने देना चाहिए। समान नागरिक संहिता को लागू करने और देश को किसी भी एक रंग में रंगने की कोशिश देश की एकता व अखंडता के लिए हानिकारक हो सकती है।
( लेखक दारुल उलूम देवबंद के जनसंपर्क अधिकारी हैं)
     प्रस्तुति : सुरेंद्र सिंघल

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