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अगर आज भी हम खुलकर एन.आई.टी. के तिरंगा-छात्रों के साथ खड़े नहीं होंगे उनको पूर्ण, सम्मान, सुरक्षा और समर्थन नहीं देंगे तो हमारी शिक्षा और देशभक्त का कोई अर्थ नहीं।
तरुण विजय
तीन वर्ष से श्रीनगर स्थित एऩआई़टी. के 'तिरंगा-छात्र' अन्याय सहते आ रहे थे। उनके अध्यापक, स्थानीय मुस्लिम छात्र, भारत और भारतीयता पर फिकरे कसते, भेदभाव करते। एऩ आई़ टी. के 50 प्रतिशत छात्र स्थानीय और शेष अन्य नगरों, राज्यों से आते हैं। वहां आने का उद्देश्य है पढ़ना, ज्ञान-संपन्न बन अपना भविष्य बनाना। यह भविष्य भारत से जुदा तो हो ही नहीं सकता। पर वे कौन हैं, जो भारतीय देशभक्त जनता की गाढ़ी कमाई से लगभग निशुल्क शिक्षा लेेते हैं और फिर उसी जनता के विरुद्घ बोलते हैं, लिखते हैं? वह कौन सी मानसिकता है जो इन लड़कों को सबकुछ देने वाले देश और देशभक्त लोगों के विरुद्घ जहर उगलने के लिए खड़ा कर देती हैं? जिनसे वे अपने जीवन का प्राप्त करते है। हम किसी अजनबी अनजाने व्यक्ति से भी कुछ सहायता प्राप्त करते हैं तो उनके प्रति कितना आभार व्यक्त करते हैं, कृतज्ञता बोध के लिए सम्मान व्यक्त करते हैं। उसे गाली देने या उस पर पत्थर बरसाने की तो बातें सोच भी नहीं सकते!
फिर जिस देश से सब कुछ मिला, ये सांसें, ये घड़कनें, ये ममता का आंचल, बोलने, लिखने, पढ़ने, सहमति और असहमति की आजादी, सिर उठाकर जीने का बल़.़ यानी सब कुछ, उसी देश के विरुद्घ नारे लगाने के लिए सीने में कितनी तेजाबी घृणा, अविश्वास, कृतघ्नता की घनीभूत गंदगी चाहिए होगी? जो एन.आई.टी के तिरंगा विरोधी छात्रों नेे दिखाया, वह सिवाय कृतघ्नता नफरत के और क्या कहा जायेगा? जो छात्र तिरंगे को सीने में समाए, सांसों में बसाए, धड़कनों में धारे एन.आई.टी. पहुंचे, उनके विरुद्घ नफरत की वजह हो क्या सकती है? एन.आई.टी. में सबको तो पढ़ना ही है। पढ़ने के अलावा जो बातें की गई या की जा रही हैं, उनका हेतु क्या है? वे अध्यापक जिनका जीवन मरण, पोषण, कैरियर सिर्फ यह होना चाहिए कि वे अपने छात्रों को अच्छी से अच्छी शिक्षा प्रदान करें, उन्हें देशभक्त बनाएं, मादरे वतन की खिदमत के लिए तैयार करें, तिरंगे की शान के लिए जीने और जान कुर्बान करने की हिम्मत और हौसला दें, वे क्या करते हैं? क्या वे पढ़ते हैं या देश तोड़ने की राजनीति को हवा देते हैं? इसका फैसला कौन करेगा?
अब हमें अपने धन और संविधान की छाया तले उनको भी पालना होगा जो भारतीय लोकतंत्र और सत्ता के उदारवादी स्वरूप का सहारा लेकर जीते हैं लेकिन उसी लोकतंत्र और संविधान के खिलाफ काम करते हैं? पहले उन्होंने हिन्दुओं को घाटी से निकाला। उनको अमानुषिक अत्याचरों का शिकार बनाया, नरसंहार किये, छह-छह माह के बच्चों को एके-47 से भूनकर जिहादी बहादुरी दिखाई फिर हिन्दू विहीन घाटी में जब कुछ थोड़े बहुत कश्मीरी हिन्दू अध्यापन एवं सामान्य नौकरियों के लिए वापस लाए गए तो उनका जीना दूभर कर दिया। क्या करते हैं ये जिहादी बहादुर-मुजाहिदीन?
मैं पिछले दिनों श्रीनगर गया था वहां एक कॉलोनी है जहां हिन्दू पंडित, उनके परिवार बसाये जा रहे हैं। हालात ऐसे हैं एलआईजी किस्म के दो कमरों के फ्लैट में 10-10 लोग ठूंसे हुए हैं। वे जब स्कूल पढ़ाने के लिए जाते हैं तो छोटे-छोटे बच्चे तक हिन्दू अध्यापिकाओं पर ताने मारते हैं।
एक कश्मीरी हिन्दू अध्यापिका ने बताया कि उन्हें स्कूल में बिंदी लगाकर जाना असुरक्षित करता है। दबंग छात्र पूछते हैं-बिंदी क्यों लगाई है? बाकी अध्यापक मुंह दबाकर हंसते हैं। जी भरकर खराब से खराब जुमले बोलेंगे, गालिया तक सुनाएंगे। यह सब सिर्फ हिन्दू अध्यापक-अध्यापिकाओं को लज्जित करने या उनको अपमानित करने के उद्देश्य से किया जाता है। अगर जवाब दो या विरोध करो तो झगड़ा करेंगे। उस झगड़े का नतीजा भी हिन्दुओं को भोगना पड़ता है। अपने बच्चों को स्कूलों में दाखिला दिलाकर पढ़ने भेजते हैं तो उनको भी बाकी स्थानीय बच्चों के साथ दोस्ती तो दूर, सहज बातचीत करना भी मुश्किल होता है। कश्मीरी हिन्दुअेां का कश्मीर उतना ही है जितना गैर हिन्दू कश्मीरियों का। इधर भी कौल, रैना, भट्ट, हैं-उधर भी कौल, रैना, भट्ट हैं। शेख अब्दुल्ला ने अपनी आत्मकथा आतिशे चिनार में अपने 'कौल' दादा का जिक्र कर अपने हिन्दू खानदान के बारे में लिखा है। पाकिस्तान निर्माण की कल्पना देने वालों में अग्रणी सर मोहम्मद इकबाल के पिता हिन्दू कश्मीरी पंडित थे। उनको किसी मामले में फंसाकर सजा दी गई तो बचने के लिए वे मुसलमान हो गए और लाहौर आ बसे। उनके बेटे ने यदि पहले 'सारे जहां से अच्छा, हिन्दोस्ता हमारा' लिखा तो बाद में पाकिस्तान भी बसाया। यह फर्क समझना होगा। एक नस्ल, एक खून, एक भाषा, एक पुरखे, एक धरती-आकाश, एक समान खुशी और मातम के गीत। फिर भी एक को शरणार्थी बनना पड़ा और दूसरे ने थाम ली एके-47। यह क्यों हुआ, इसको समझे बिना कश्मीर के एन.आई.टी. में तिरंगा-छात्रों के प्रति आक्रामक व्यवहार को समझना कठिन होगा। अगर आज भी हम खुलकर एन.आई.टी. के तिरंगा-छात्रों के साथ खड़े नहीं होंगे उनको पूर्ण, सम्मान, सुरक्षा और समर्थन नहीं देंगे तो हमारी शिक्षा और देशभक्त का कोई अर्थ नहीं। उन तिरंगा-छात्रों का देश के सभी विश्वविद्यालयों में अभिनंदन होना चाहिए और उनकी बातें सुनी जानी चाहिए। पत्थरबाज कृतघ्नों के विरुद्घ उन्होंने भारत माता की जय के साथ तिरंगा फहराकर भारतीय सैनिकों और देशभक्त नागरिकों का मान बढ़ाया। इन सभी को सवा अरब देशवासियों का जोशीला जयहिन्द।
(लेखक राज्यसभा सांसद हैं)
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