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इन दिनों अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बहुत कुछ लिखा गया है। इस संदर्भ में पहले उस पर नजर डाल ली जाए जो न्यायमूर्ति प्रतिभा रानी ने जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को जमानत देते हुए कहा था। जेएनयू में एक कार्यक्रम के दौरान लगाए गए नारों के संदर्भ में न्यायमूर्ति रानी ने कहा कि वे मानती हैं कि यह ''एक ऐसा इंफेक्शन है, जिससे छात्र संक्रमित हैं और जिसे महामारी बनने से पहले नियंत्रित/ठीक करने की जरूरत है।'' उन्होंने कहा, ''उस कार्यक्रम को आयोजित करने और उसमें शामिल जेएनयू के कुछ छात्रों द्वारा लगाए नारों में व्यक्त विचार किसी भी तरह से अभिव्यक्ति और बोलने की स्वतंत्रता से संरक्षित नहीं बताए जा सकते।'' यह टिप्पणी इस बात का पर्याप्त सबूत है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर जेएनयू में कुछ तो अशुभ घट रहा है जिसे कुछ देशविरोधी तत्व पूरे देश में फैलाना चाहते हैं ताकि अव्यवस्था के हालात पैदा हों।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतांत्रिक अधिकारों का अभिन्न अंग है, लेकिन ये लोकतांत्रिक अधिकार भी उसी लोकतंत्र से हासिल हैं जिसका नाम भारत है और जो भारत के संविधान की हिफाजत के तहत है। बहरहाल, भारत में संविधान इसलिए है क्योंकि यह एक संप्रभु राज्य है। और अगर कुछ तत्व भारत की भौगोलिक अखंडता को चुनौती देते हुए या इस राष्ट्र के टुकड़े-टुकड़े करने के नारे लगाकर, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर इस संप्रभुता पर ही सवाल खड़े करें, तो यह स्वीकार्य नहीं हो सकता, क्योंकि अगर भारत की संप्रभुता पर आंच आती है तो फिर न तो संविधान बचेगा और न ही उस संविधान से मिलने वाला कोई लोकतांत्रिक अधिकार, क्योंकि बिना संप्रभुता के किसी राष्ट्र में न तो संवैधानिक अधिकार होते हैं और न ही कोई लोकतांत्रिक अधिकार। इसलिए जो लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में उस संप्रभुता पर सवाल खड़े करते हैं वे राष्ट्र के सबसे बड़े दुश्मन हैं। उन लोगों से पूछा जाना चाहिए कि अगर जेएनयू में जो हुआ, वह सब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और उदारवाद के लिए था तो फिर जेएनयू के वाम और धुर वाम संगठन हमेशा इज्राएल या अमेरिकी वक्ताओं के परिसर में आने के विरोधी क्यों रहे हैं? वे आखिर जेएनयू में बाबा रामदेव के भाषण के खिलाफ इतनी उग्रता के साथ क्यों उठ खड़े हुए थे? और, वे तस्लीमा नसरीन और उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में दमदारी के साथ खड़े होने में हिचकिचाते क्यों रहे हैं? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करें, तो क्या हमें कम्युनिस्टों को बर्बर दमन, सेंसरशिप और विरोध के दमन के लिए राज्य प्रायोजित तरीकों के उस हिंसक इतिहास की याद नहीं दिलानी चाहिए जो भारतीय कम्युनिस्टों के वैचारिक आकाओं, जैसे पूर्ववर्ती सोवियत संघ, चीन या कंबोडिया ने रचा था? क्या हमें भारतीय कम्युनिस्टों से कभी यह सुनाई दिया कि वे चीन के थ्येनआनमन चौक पर लोकतांत्रिक आंदोलनकारियों पर बरपाए गए जुल्मों के बारे में क्या सोचते हैं? क्या हमें भारतीय कम्युनिस्टों को उनके वाममोर्चे के राज में की गईं हजारों राजनीतिक हत्याओं के बर्बर इतिहास की याद नहीं दिलानी चाहिए जो एक काले धब्बे की तरह साफ दिखती हैं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर उनके ढकोसले को उजागर करती हैं?
जब कन्हैया अदालत से जमानत पर छूटने के बाद जेएनयू में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ भद्दी जबान में जहरीला भाषण दे रहा था, और जब मीडिया का एक वर्ग इसे उसी तरह खूब बढ़-चढ़कर दिखा-छाप रहा था, तब ज्यादातर मुख्यधारा के मीडिया ने उसी दौरान छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में सुरक्षाबलों और माओवादियों के बीच जारी जबरदस्त मुठभेड़ को नहीं दिखाया जिसमें सीआरपीएफ के तीन कमांडो मारे गए और एक दर्जन से ज्यादा घायल हुए। उनको कन्हैया कुमार के वैचारिक सहयोगियों यानी माओवादियों ने ही मारा या घायल किया था। इसी दौरान केरल में माकपा कार्यकर्ताओं द्वारा रा.स्व.संघ के युवा कार्यकर्ताओं की बर्बर हत्या के बारे में किसी ने नहीं छापा। कन्हैया कुमार के बेहूदा जुमलों पर ठुमके लगाने और वारी-वारी जाने वाला मीडिया झारखण्ड में माओवादियों द्वारा मार डाली गई उस वनवासी लड़की की हत्या के बारे में भी चुप रहा जिसने पढ़ाई छोड़कर बंदूक थामने से इनकार कर दिया था। भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और उदार लोकतंत्र है, तो यह उस 30 साल के इंसान की बदौलत नहीं जो पी.एचडी. के बहाने सरकारी सब्सिडी डकार रहा है और जेएनयू परिसर में थोथे जुमले उछाल रहा है, बल्कि यह लोकतंत्र कैप्टन पवन कुमार, कैप्टन तुषार महाजन और लांस नायक हनुमंथप्पा कोपाड सरीखे उन बहादुर सैनिकों और उन जैसे करोड़ों भारतीयों की वजह से कायम और जीवंत है जो हर रोज अपना खून और जीवन देकर इसकी रक्षा कर रहे हैं।
-मीनाक्षी लेखी
(लेखिका लोकसभा (भाजपा) सांसद हैं)
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