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रौनक लौटी कला और कलाकारों की

by
Mar 28, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 28 Mar 2016 15:00:57

 

भैरवगढ़ प्रिंट से जुड़े मुस्लिम कलाकार कुछ वर्ष पहले तक संकट में थे। मध्य प्रदेश सरकार ने इनकी चिन्ता की और इनके युवाओं को बटिक कला सीखने के लिए इंडोनेशिया भेजा। अब इस उद्योग और इससे जुड़े लोगों में भी रौनक लौट आई है
 महेश शर्मा, उज्जैन से
उज्जैन से करीब 6 किमी दूर भैरवगढ़ कस्बे में रहने वाले 47 वर्षीय सैयद माजिद कुछ वर्ष पहलेे तक क्षेत्र के एक आम युवा थे, जो कपड़े पर छपाई के अपने पुश्तैनी काम से जुड़े थे। उनके जीवन में तब महत्वपूर्ण बदलाव आया जब 2010 में उन्हें मध्य प्रदेश शासन ने छपाई संबंधी एक कार्यशाला में इंडोनेशिया भेजा। इंडोनेशिया में जो उन्होंने सीखा उससे न सिर्फ उनकी कला निखरी, बल्कि उनके उत्पाद विशिष्ट हो गए। इस तरह माजिद भी आम से खास हो गए और अब वे न सिर्फ भैरवगढ़ के युवाओं को नए तरीके से कपड़े पर कलाकारी सिखा रहे हैं, बल्कि इंटरनेट का प्रयोग कर नए डिजाइन ढूंढते रहते हैं।
लगभग 14,000 की आबादी वाला मुस्लिम-बहुल भैरवगढ़ विश्वभर में कपड़े पर हाथ से सुन्दर छपाई के लिए प्रसिद्ध रहा है। मुगल काल से ही भैरवगढ़ प्रिंट के नाम से पहचानी जाने वाली इस शिल्पकला में एक समय देश में सिर्फ यहीं पर आलू और लकड़ी के बने ब्लॉक से साड़ी, चादरें और अन्य कपड़ों पर छपाई होती थी। छपाई के लिए प्रयोग किए जाने वाले रंग भी प्राकृतिक होते थे जो हल्दी, टेसू के फूल, अनार के छिलके, बबूल की छाल, गुलाब की पत्तियां, गेंदे के फूल और रतनजोत जैसी वनस्पतियों से बनते थे। यहां तक कि लोहे की जंग से निकला रंग भी इस्तेमाल होता था। धीरे-धीरे यहां ब्लॉक प्रिंटिंग का काम सिमटता गया, जबकि जयपुर जैसे अन्य स्थानों पर ब्लॉक प्रिंटिंग वहां की विशेषता बन गई। पीढि़यों से इससे जुड़े 72 वर्षीय मोहम्मद साबिर कहते हैं, ''यह महंगा पड़ता है और अब ब्लॉक से काम करने वालेे गिने-चुने कारीगर ही बचे हैं। फिर प्राकृतिक रंग बनाना मुश्किल हो गया है क्योंकि उसे कपड़े पर चढ़ाने के लिए नदी का बहता पानी इस्तेमाल करना पड़ता था जो अब उपलब्ध नहीं होता, फिर भी कभी-कभी मांग होने पर उसे बनाते हैं।''
ब्लॉक कारीगरों की कमी की भरपाई कुछ हद तक भैरवगढ़ की अन्य मशहूर छपाई, जिसे बटिक कहते हैं, से हो रही है। बटिक विश्व के अनेक हिस्सों में प्रचलित है, जिसमें कपड़े पर गर्म पिघलेे हुए मोम से डिजाइन बनाते हैं, इसके बाद उसे रंगते हैं। मोम वालेे हिस्से पर रंग नहीं चढ़ता और बाद में मोम हटने पर रंगे हुए कपड़े के बीच डिजाइन उभरती है। इसके अतिरिक्त खास बात यह भी है कि कपड़े पर पहले कोई कच्ची डिजाइन नहीं बनाई जाती। पिघले मोम की धारा को नारियल के रेशे और धागों से बनी कलम द्वारा सीधे कपड़े पर उतारा जाता है जिसमें कारीगर के हाथ की सफाई, धारा पर नियंत्रण और कल्पनाशीलता महत्वपूर्ण होती है। लेकिन भैरवगढ़ प्रिंट की लोकप्रियता में तब गिरावट आने लगी जब वषार्ें से एक-से रंग और एक-सी डिजाइन भैरवगढ़ प्रिंट की पहचान बन गई। इसका परिणाम यह रहा कि एक समय 500 परिवार इस विधा से जुडे थे, लेकिन इनकी संख्या कम होने लगी। आज करीब 200 परिवार इससे जुड़े हैं। मोहम्मद हारून गुट्टी ऐसे ही परिवार से हैं।  वे कहते हैं, ''कोई दूसरा काम ढूंढने के स्थान पर इससे जुड़ा काम करना ठीक लगा इसलिए दुकान शुरू कर दी जिसमें अन्य लोगों से तैयार कराया उत्पाद रखते हैं। यही काम तो बिचौलिए करते थे क्योंकि यहां का 90 फीसद काम जॉब वर्क ही है।'' ऐसे समय मध्य प्रदेश सरकार ने अनेक उपाय कर इसका अस्तित्व बचाने का प्रयास किया। मध्य प्रदेश हस्तशिल्प एवं हथकरघा विकास निगम के मुख्य महाप्रबंधक नगेन्द्र मेहता कहते हैं, ''भैरवगढ़ प्रिंट में नए रंग, नई डिजाइन की आवश्यकता थी तभी यह बाजार में प्रतिस्पर्द्धी बना रह सकता था इसलिए कार्यशालाओं के आयोजन के साथ ही हमने चुनिंदा युवाओं को इंडोनेशियन बटिक सीखने के लिए भेजा। इसका सकारात्मक परिणाम मिला है। ''

अपना बटिक कारखाना संभाल रहे माजिद क्षेत्र के उन चार युवाओं में थे, जिन्हें मप्र हस्तशिल्प एवं हथकरघा विकास निगम ने इंडोनेशिया बटिक सीखने के लिए भेजा था। वे कहते हैं, ''भैरवगढ़ में कपड़े को रेत बिछी टेबल पर रखकर मोम का इस्तेमाल करते हैं, जबकि इंडोनेशिया में हाथ पर रखकर डिजाइन बनाते हैं। इसके अलावा वहां एक बार में एक ही कपड़ा डाई करते हैं, जबकि यहां एक साथ कई रंगते हैं।'' लेेकिन माजिद सफाई से किए कार्य के लिए उस उपकरण को भी महत्वपूर्ण मानते हैं जो वहां मोम प्रवाहित करने के लिए प्रयुक्त किया जाता है। इसीलिए धागे वाली कलम से अलग तांबे का उपयोग कर ऐसी कलम बनाई गई जैसी इंडोनेशिया में प्रयोग की जाती है। इसके बाद बटिक में आया बदलाव क्रांतिकारी सिद्ध हुआ। परंपरागत रंग और डिजाइन से इतर बटिक तैयार होने लगी जिसमें पहले की तरह तीन या चार रंग नहीं, बल्कि आठ से ग्यारह रंग तक प्रयोग किए जाते हैं। इंडोनेशिया में प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले माजिद, मोहम्मद आसिफ, मोहम्मद वसीम और मुजीब अब्दुल एहसान ने 120 लोगों को प्रशिक्षित कर दिया है।
हस्तशिल्प एवं हथकरघा विकास निगम पहले अपने खुदरा बिक्री केन्द्रों के जरिए इन्हें बाजार उपलब्ध कराता था और स्वयं ही इनके उत्पाद खरीद लेता था, लेकिन समय के साथ ये केन्द्र बंद होते चले गए और खरीदी घटती रही जिससे शिल्पी संकट में आने लगे। इसे देखते हुए ही निगम विभिन्न स्थानों पर प्रदर्शनियों के माध्यम से इन शिल्पियों को अपने उत्पाद बेचने का अवसर मुहैया कराता है। इसके अतिरिक्त निगम ने इनके लिए ऑनलाइन बाजार भी उपलब्ध करा दिया। नतीजा यह है कि घर बैठे इनके उत्पाद बिकने लगे। माजिद जैसे अनेक शिल्पी फेसबुक और व्हाट्सअप के जरिए अपने उत्पाद प्रदर्शित कर रहे हैं और बेच रहे हैं। नतीजा यह कि जेबुनिसा जैसी महिलाएं अब भी भैरवगढ़ प्रिंट की शान बढ़ा रही हैं और अपनी नई पीढ़ी को भी विरासत के बतौर यह कला दे रही हैं।

दो करोड़ रुपए का कारोबार

भैरवगढ़ प्रिंट से जुड़े कलाकार एक दिन में लगभग 1,000 बेडशीट तैयार करते हैं। बाजार में एक बेडशीट 400 से 500 रु. तक में बिकती है। यानी बेडशीट का एक दिन का कारोबार लगभग पांच लाख रु. का है। इसके अलावा इन कारीगरों के पास अन्य काम भी हैं। एक अनुमान के अनुसार महीने में इनका कारोबार लगभग दो करोड़ रुपए का है। इनके उत्पाद विदेश भी जाते हैं।  

कोई दूसरा काम ढूंढने के स्थान पर इससे जुड़ा काम करना ठीक लगा इसलिए दुकान शुरू कर दी जिसमें अन्य लोगों से तैयार कराया उत्पाद रखते हैं। यही काम तो बिचौलिए करते थे क्योंकि यहां का 90 फीसद काम जॉब वर्क ही है।
— मोहम्मद हारून गुट्टी, दुकानदार

भैरवगढ़ में कपड़े को रेत बिछी टेबल पर रखकर मोम का इस्तेमाल करते हैं, जबकि इंडोनेशिया में हाथ पर रखकर डिजाइन बनाते हैं। इसके अलावा वहां एक बार में एक ही कपड़ा डाई करते हैं, जबकि यहां एक साथ कई रंगते हैं।
—माजिद , इंडोनेशिया से लौटै बटिक कलाकार  

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