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मानव जाति के जीवन रक्षक

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Mar 14, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 14 Mar 2016 15:33:53

डॉ. येल्लप्रगडा सुब्बाराव
12 जनवरी ,1895-8 अगस्त, 1948

जीव विज्ञान और चिकित्सा क्षेत्र के पिछले 5,000 साल के इतिहास में सुब्बाराव के अलावा किसी और वैज्ञानिक ने इतनी बड़ी संख्या में बुनियादी खोज नहीं की, जिनका आज व्यापक उपयोग हो रहा हो
येल्लप्रगडा सुब्बाराव बायोकेमिस्ट और मेडिकल शोधकर्ता थे, जिन्होंने कैंसर के इलाज के लिए मिथोट्रेक्जेट विकसित की और कई जीवन रक्षक दवाइयां बनाईं। चिकित्सा क्षेत्र में उनके योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता है।
महत्वपूर्ण योगदान
मांस पेशियों के काम करने के तरीके और उनके  व्यवहार में फास्फोक्रिएटाइन और एडेनोसिन ट्राइफास्फेट की भूमिका की खोज, फोलिक एसिड का संश्लेषण, मिथोट्रैक्जेट का संश्लेषण, इसके साथ ही डाइथाइलकार्बामेजाइन की खोज ।

आपने संभवत: डॉ. येल्लप्रगडा राव  का नाम और चिकित्सा विज्ञान में उनके योगदान के बारे में कभी नहीं सुना होगा, लेकिन वास्तविकता यह है कि उन्होंने जीवन जिया इसीलिए आप अधिक समय तक जी सकते हैं।
— दोरोन के. एंटरिम, पूर्व संपादक, मैट्रोनोम, वैज्ञानिक
उपयोग
    मिथोट्रैक्जेट, ओरियोमाइसिन: मिथोट्रैक्जेट के आधार पर बनी दवा का इस्तेमाल बच्चों में रक्त कैंसर रोकने के लिए किया जाता है। ओरियोमाइसिन ट्रेट्रासाइक्लिन श्रृंखला का पहला बहुआयामी एंटीबायोटिक है जो हर तरह के कीटाणुओं पर कारगर है।
    टेट्रासाइक्लिन: यह एक बहु-उपयोगी दवा है जिसका प्रयोग हैजा, टॉयफाइड, प्लेग और पेचिस की रोकथाम के लिए किया जाता है। इसे जीवन रक्षक दवा माना जाता है और आधुनिक चिकित्सा पद्धति से अपना इलाज करवाने वाले हर किसी ने कभी न कभी इसका प्रयोग अवश्य किया है।  
फोलिक एसिड विटामिन: संग्रहणी (रक्त पेचिस) जिसमें खून का क्षय होता है, की रोकथाम में काम आने वाली दवा। यह रोग क्षारयुक्त भूमि वाले उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में तेजी से पसरता है।
पॉलिमाइक्सिन: पशुचारे में इस्तेमाल होती है।

यह कहानी ऐसे व्यक्ति की है जिसने विभिन्न क्षेत्रों में कई महत्वपूर्ण खोजें करके न सिर्फ विज्ञान को बल्कि हमारे जीवन को भी नई दिशा दी। पर विडंबना यह है कि ऐसे व्यक्ति को उनके योगदान के लिए नोबल पुरस्कार तो नहीं ही मिला, दुनिया के वैज्ञानिकों सहित आम लोगों में भी ज्यादातर उनके नाम से परिचित नहीं हैं।  
मैं येल्लप्रगडा सुब्बाराव की बात कर रहा हूं। मैं नहीं समझता कि जीव विज्ञान और चिकित्सा क्षेत्र के पिछले 5,000 साल के लिखित इतिहास में सुब्बाराव के अलावा किसी और वैज्ञानिक ने इतनी बड़ी मात्रा में बुनियादी खोज की होगी जिनका आज व्यापक उपयोग हो रहा हैे।  
सुब्बाराव का जन्म भारत में 1895 में हुआ और 1948 में मात्र 53 साल की उम्र में अमेरिका में उनका निधन हो गया। सुब्बाराव मद्रास मेडिकल कॉलेज से स्नातक करने के बाद 1923 में अमेरिका चले गए जहां 1940 तक उन्होंने हार्वर्ड मेडिकल स्कूल में काम किया,  फिर वे लीडरली लैबोरेटरीज के साथ जुड़े, जहां उन्हें चिकित्सा अनुसंधान का जिम्मा सौंपा गया था। उन्हीं की देखरेख में पॉलीमाइक्सीन (जो आज भी पशु-चारे में इस्तेमाल होती है) और ओरियोमाइसिन (टेट्रासाइक्लिन एंटीबायोटिक श्रृंखला की पहली दवा) की खोज हुई जिसका हम सभी ने कभी-न-कभी जरूर इस्तेमाल किया है। पिछले 60 वर्ष के दौरान इस दवा ने लाखों लोगों का जीवन बचाया है। ओरियोमाइसिन पहली ब्रॉडस्पेक्ट्रम एंटीबॉयोटिक थी, जो  ग्राम-पॉजीटिव और ग्राम-निगेटिव, दोनों तरह के जीवाणुओं पर असरकारी थी, यानी यह फ्लेमिंग की पेनिसिलिन और वाक्समैन की स्ट्रेप्टोमाइसिन से कहीं अधिक प्रभावी थी। 1994 में जब सुब्बाराव का जन्मशती वर्ष शुरू हुआ था तब टेट्रासाइक्लिन, खासकर डॉक्सीसाइक्लिन ने गुजरात और महाराष्ट्र में फैली प्लेग की महामारी पर अंकुश लगाया था और इसके उन्मूलन में भी मदद की थी। 1946 में न्यूयार्क एकेडमी ऑफ साइंसेज में चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े लोगों के बीच ओरियोमाइसिन पेश करते हुए सुब्बाराव ने कहा था कि इस दवा के रूप में वे अपनी मातृभूमि का ऋण अदा कर रहे हैं। और मृत्यु के लगभग पचास साल बाद उनकी बातें सच साबित हुईं ।
सुब्बाराव ने ऑर्गेनिक और बायोलॉजिकल केमिस्ट्स के अपने दल के साथ मिलकर पहले लीवर और फिर माइक्रोबियल स्रोत से फोलिक एसिड को अलग करने में सफलता हासिल की और 1945 में इसे संश्लेषित (सिंथेसाइज) किया। वे संतुष्ट  थे कि इन्हीं प्रायोगिक परीक्षणों (क्लिनिकल ट्रायल) ने उन्हें  उष्णकटिबंधीय स्प्रू (ट्रॉपिकल स्प्रूम) की दवा थमाई जिसका शिकार होकर वे कभी मौत के करीब पहुंच गए थे।  उस समय वे चेन्नै के मेडिकल कॉलेज में पढ़ाई कर रहे थे।
अफसोस की बात कि सुब्बाराव को खून की कमी की रोकथाम में फायदेमंद विटामिन बी12 अलग करने की बुनियादी विधि की खोज के लिए भी कोई श्रेय नहीं मिला। बी12 की हमारी रोजाना जरूरत सिर्फ 1 माइक्रोग्राम है, लेकिन उसकी पूर्ति निहायत जरूरी है। अगर शरीर में ऐसा दर्द रहता है जिसकी वजह समझ में नहीं आती तो संभव है कि आपको विटामिन बी12 की जरूरत है। सुब्बाराव ने इसे लीवर से अलग करने में कई साल काम किया पर पहचानने में विफल रहे, जबकि दूसरे वैज्ञानिकों ने उनकी खोज से ही आगे की मंजिलें तय कीं।
1965 में मेरी मुलाकात लंदन के चेस्टर बीट्टी केंसर रिसर्च संस्थान के निदेशक सर अलेक्जेंडर हैडो से हुई। हमने मिथोट्रेक्जेट—एमीनोप्टेरिन  से निकले एक तत्व—पर चर्चा की जो बुर्कीट्स लिंफोमा (एक तरह का कैंसर) के रोगियों को दर्द में आराम देने के लिए बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जा रहा था और उन्होंने कहा, ''क्या आप जानते हैं कि मिथियोट्रेक्जेट की खोज एक भारतीय ने की थी?'' आप कल्पना नहीं कर सकते कि मुझे कितना गर्व हुआ था, क्योंकि मैं जानता था कि वे कोई और नहीं, सुब्बाराव ही थे।
सुब्बाराव ने फोलिक एसिड की प्रतिक्रिया को बेअसर करने वाले एमीनोप्टेरिन की खोज की और जब उनके एक सहयोगी ने संकेत दिया कि एमीनोप्टेरिन से मेल खाता एक रसायन कैंसर कोशिकाओं को बढ़ने नहीं दे रहा तो इसे संश्लेषित किया। इस तरह उन्होंने कैंसर के इलाज के लिए कीमोथेरेपी तकनीक की बुनियाद रखी। सचमुच, सुब्बाराव के चमत्कारों का कोई अंत नहीं। लेडर्ली में बतौर शोध निदेशक सुब्बाराव ने प्रशांत क्षेत्र में लड़ रहे अमेरिकी सैनिकों को मलेरिया और फाइलेरिया से बचाव के लिए एक परियोजना शुरू की। उन्होंने फाइलेरिया का इलाज हेट्राजन में पाया। आज शरीर में विकृति पैदा करने वाले एलिफैन्टिएसिस के फिलेरिएसिस के इलाज में इस दवा का सबसे ज्यादा इस्तेमाल हो रहा है।
1920 के दशक के दौरान इसका रहस्य जानने के लिए वैज्ञानिक तत्पर हो उठे थे कि ऐसा कौन-सा रसायन है जो शरीर में ऊर्जा को जमा करके रखता है और जरूरत अनुसार मुहैया कराता है। उस समय सुब्बाराव ही पहले व्यक्ति थे जिन्होंने हार्वर्ड में साइरस फीस्के के साथ मिलकर दो रसायनों—फोफोक्रिएटीन और एडीनोसिन ट्राइफॉस्फेट (एटीपी)—की खोज की जो हमारे शरीर में ऊ र्जा को जमा करते हैं।  यही नहीं, सुब्बाराव ने दिखाया कि फास्फोरस हमारे शरीर के लिए कितना महत्वपूर्ण है। उन्होंने जीवों में फास्फोरस का आकलन करने की उपयुक्त  विधि की भी खोज की। इस विधि का नाम सुब्बाराव-फीस्के  होना चाहिए था, पर सुब्बाराव ने अपने शोध पत्र में अपने सुपरवाइजर का नाम पहले लिखा था।  
अब तक तो हमने उनके कायोंर् की बात की। अब हम उनकी शख्सियत के बारे में जानते हैं। अमेरिका की मेरी पहली यात्रा उनकी मौत के पांच साल बाद हुई थी, लेकिन मुझे ऐसे लोगों से मिलने और बात करने का मौका मिला जो सुब्बाराव के नजदीकी रहे थे। उन लोगों से बातचीत में राव की वैज्ञानिक प्रतिभा के अलावा उनके अत्यधिक नम्र स्वभाव का पता चला। फीस्के ने हार्वर्ड में जो जगह हासिल की उसका श्रेय सुब्बाराव के साथ मिलकर किए गए प्रयोग को जाता है जिसमें जैविक तरल पदार्थ में फॉस्फोरस के आकलन की विधि ईजाद हुई थी। सुब्बाराव के जीवनी लेखक मेरे दोस्त एस़ पी. के. गुप्ता ने अपनी किताब में ऐसी कई मिसालें पेश की हैं जब सुब्बाराव ने अपने किसी दोस्त या सहयोगी को पदोन्नति या नौकरी पाने में मदद की। यह किताब सुब्बाराव के सांस्कृतिक बहुलवादी किरदार, उनके कार्य और परिचितों के साथ उनके निजी संवाद को पेश करती है। उनकी बहुआयामी पृष्ठभूमि उनके व्यक्तित्व में साफ झलकती है। वे ठेठ भारतीय थे और भारतीय के रूप अपनी पहचान पर उन्हें गर्व था। वे  हमारे प्राचीन ग्रंथों से भी परिचित थे और उनके शुरुआती कार्य आयुर्वेद से संबंधित हैं। उन्होंने अपनी  भारतीय पहचान हमेशा बरकरार रखी, फिर भी हैरानी की बात है कि अमेरिका गए एक व्यक्ति ने भारत में अपने परिवार को बताया कि सुब्बाराव पूरी तरह से अमेरिकी बन गए हैं। पहनावा कई बार भ्रम पैदा करता है। सुब्बाराव एक भारतीय थे और भारतीय के रूप में ही स्वर्ग सिधारे। 8 अगस्त, 1948 को जब उनकी मृत्यु हुई, दुनिया भर के अखबारों और पत्रिकाओं-सायन्स, न्यूयार्क टाइम्स, न्यूयार्क हेराल्ड ट्रिब्यून- ने उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की।   उनकी मां के पास जो भी थोड़े-बहुत आभूषण थे, बेटे की शिक्षा की खातिर बेच दिए थे। भविष्य में साकार होने वाली महान छवि के लिए कोई शुरुआती पृष्ठभूमि तैयार नहीं की गई थी। उनका महान व्यक्तित्व कल्पना, आत्मविश्वास, मानवीय भावना,  मनुष्यों से प्रेम और मानव जाति की पीड़ा दूर करने की अंदरूनी अकुलाहट से विकसित हुई। अगर ऐसे विज्ञानियों के लिए नोबल पुरस्कार हो जो गुमनामी की चादर ओढ़ स्वर्ग सिधार गए, तो सुब्बाराव निश्चित रूप से उनमें सबसे पहले क्रमांक पर होंगे।

 पुष्प मित्र भार्गव (लेखक हैदराबाद में सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी के संस्थापक-निदेशक और राष्ट्रीय ज्ञान आयोग के उपाध्यक्ष रहे हैं) 

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