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जेएनयू में पिछले दिनों जो भी घटनाएं देखने में आईं, वे दरअसल रोहित वेमुला के मुद्दे से लोगों का ध्यान हटाने का प्रयास मात्र थी। वे कहीं से भी 'राष्ट्रवादी' या 'देशद्रोही' की पहचान करने या उनके आचरण का मूल्यांकन करने के लिए की जा रही कवायद नहीं थी। ऐसी कोई प्रक्रिया नहीं है जिससे देशभक्ति की भावना तोली या परिभाषित की जा सकती हो। हर भारतीय खुद को सगर्व राष्ट्रवादी मानता है और उसे इसके लिए किसी राजनीतिक पार्टी या संगठन से प्रमाणपत्र लेने की जरूरत नहीं है। किसी तथाकथित समूह की ओर से राष्ट्र विरोधी नारे लगाना निश्चित रूप से निंदनीय है और इस तरह की हरकत को सही ठहराने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। हमारे देश के कानून के तहत इस तरह की गतिविधियों पर अंकुश लगाने के लिए एक संवैधानिक और न्यायिक प्रणाली है। अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले एक सुस्थापित प्रक्रिया के अनुसार किसी घटनाक्रम का आकलन और संबंधित पूछताछ की जाती है। पिछलेे दो सप्ताह के दौरान जेएनयू विवाद जबरदस्त नाटकीयता लेता गया है। छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया। उससे देश विरोधी के तौर पर व्यवहार किया गया। विभिन्न वगार्ें के लोग 'राष्ट्रवादी' और 'देशद्रोही' खेमों में बंट गए। मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग के साथ-साथ देश का आम आदमी भी इस ज्वलंत मसले पर चर्चा करता दिखाई दिया। कोई नहीं जानता था कि पूरे घटनाक्रम को तोड़ा-मरोड़ा गया था। आज कन्हैया को अंतरिम जमानत दी जा चुकी है। पर क्या यह जमानत या जेल से रिहाई पिछले कुछ हफ्तों के दौरान खो चुके उसके सम्मान और स्वाभिमान को लौटा पाएगी? हमारा संविधान हमें अभिव्याक्ति की आजादी देता है। बेशक यह हमें अपने राष्ट्र के खिलाफ नारे लगाने की अनुमति नहीं देता, लेकिन मामले को दिल्ली पुलिस और केंद्र सरकार ने जिस तरह से लिया है, उसे कतई उचित नहीं कहा जा सकता। पूरे प्रकरण के दौरान कानून और व्यवस्था की परिभाषा मनमानी राह पर चलाई गई। ऐसा पहलेे आपातकाल के दौरान हुआ था जब पुलिस की पूरी फौज जेएनयू परिसर में घुस गई थी। इस मामले में पुलिस का हस्तक्षेप चिंताजनक था। कन्हैया कुमार की पुलिस हिरासत में पिटाई की गई थी। यह पुलिस विभाग के असली इरादों की ओर इंगित करता है। एक निर्दोष भारतीय को राष्ट्र विरोधी कैसे ठहराया जा सकता है? कैसे आप एक छात्र पर देशद्रोह का आरोप लगा सकते हैं। साक्ष्यों के बगैर परिसर को आतंकित कर सकते हैं? हम जीडीपी और सामाजिक-पर्यावरणीय मुद्दों पर अमेरिका के साथ तुलना तो कर लेते हैं पर उनसे चंद अच्छी बातें क्यों नहीं सीखते? अमेरिका के वियतनाम पर आक्रमण के दौरान, या खाड़ी देशों में लोकतंत्र की कथित स्थापना का दावा करतीं अमेरिकी नीतियों (जिससे अरब देशों या अन्य क्षेत्रों में उथल-पुथल मच गई) के खिलाफ अमेरिकी छात्रों ने खूब रोष जताया। लेकिन जेएनयू की तरह, कोई गिरफ्तारी नहीं हुई, किसी को 'देशद्रोही' नहीं ठहराया गया। पूरे जेएनयू पर 'गद्दार' और 'देशद्रोही' का ठप्पा लगा दिया गया। एक वर्ग तो 'शट डाउन जेएनयू' का बैनर ले विरोध में उतर आया था।
लोकतंत्र में विचारधारा थोपने का कोई स्थान नहीं है। हमारे देश में विचारधाराओं पर असहमति या विरोध का एकदमदार और लंबा इतिहास रहा है। 1950 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने नेहरू मंत्रिमंडल से सिर्फ इसलिए इस्तीफा दे दिया था, क्योंकि वह नेहरू-लियाकत समझौते से सहमत नहीं थे। इसका अर्थ यह नहीं था कि मुखर्जी राष्ट्र विरोधी थे। महात्मा गांधी के 'हत्यारे' को कुछ लोग 'शहीद' का दर्जा देते हैं। मकबूल बट्ट, जो एक आतंकवादी था और जिसे 1984 में फांसी दी गई थी, जम्मू-कश्मीर में 'शहीद' के रूप में याद किया जाता है। संसद पर हमले के साजिशकर्ता अफजल की फांसी जेएनयू विवाद का मूल कारण बनी, उसे पीडीपी का संरक्षण हासिल था, जो आज जम्मू-कश्मीर में भाजपा की सहयोगी है।
यहां पर 'भगवा पार्टी' की वह नैतिकता या विचारधारा कहां गई जिसका वे इतना प्रचार करते हैं? महाराष्ट्र की हाल की घटना, जिस पर मीडिया का ज्यादा ध्यान नहीं गया, उतनी ही दुर्भाग्यपूर्ण है।
एक पुलिसकर्मी को सिर्फ इस बात पर बुरी तरह मारा गया कि वह भगवा ध्वज फहराने से इनकार कर रहा था। उसे तब तक मारा गया और राष्ट्र विरोधी कहा गया जब तक वह झंडा फहराने के लिए तैयार नहीं हो गया। यह केवल अकेला मामला नहीं है, बल्कि इस सरकार के कार्यकाल में ऐसे मामले सामान्य होते जा रहे हैं। कई नेता तो अपमानजनक टिप्पणियां करने से भी बाज नहीं आते। वास्तव में बहुरंगी भारतीय समाज को कमजोर करने वाली हरकतें और तत्व ही राष्ट्र विरोधी हैं।
(लेखक जदयू के राज्यसभा सदस्य, पार्टी महासचिव और राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं)
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