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आज देश में दृष्टिबाधित लोग हर क्षेत्र में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। कोई जिलाधिकारी है, कोई प्रोफेसर है, कोई वकील है, तो कोई क्रिकेट के जरिए भारत का नाम पूरी दुनिया में ऊंचा कर रहा है।
वह वर्ष था 2001 का जब कृष्ण गोपाल तिवारी ने जौनपुर से स्नातक की पढ़ाई पूरी की। हर पढ़े-लिखे युवा की तरह उन्होंने भी कुछ बनने का सपना देखा। लेकिन इसके लिए जरूरत थी जमकर पढ़ने और प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी की। वे इलाहाबाद पहुंच गए और प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी शुरू कर दी। एक दिन जब वे पढ़ाई कर रहे थे तभी उन्हें दिखना बंद हो गया। डॉक्टर के पास गए तो पता चला कि अब वे इस दुनिया को कभी नहीं देख पाएंगे। यह सुनकर वे रोने लगे, लेकिन उन्होंने हिम्मत से काम लिया और उन्हीं गीली आंखों से एक बार फिर अपने सपने को देखा। आज वे एक जिले के सबसे बड़े सरकारी अधिकारी हैं। यह कोई फिल्मी कहानी नहीं है, बल्कि एक सच्ची घटना है। कृष्ण गोपाल तिवारी इन दिनों मध्य प्रदेश के उमरिया जिले के जिलाधिकारी हैं। वे देश के पहले ऐसे जिलाधिकारी हैं, जो पूरी तरह दृष्टिबाधित हैं।
मैंने आठवीं कक्षा में पढ़ते समय ही तय किया था कि आई.ए.एस. अफसर बनना है, पर जब दिखना बंद हुआ तो थोड़ा विचलित जरूर हुआ, पर निराश नहीं हुआ। मुझसे ज्यादा मेरे घर वाले परेशान हुए कि अब मेरी जिंदगी कैसे कटेगी?
जब मेरी दृष्टिहीनता की जानकारी घर वालों को हुई तो वे निराश हो गए। मेरी मां वर्षों तक यह कहकर रोती थीं कि भगवान ने औलाद दी तो है पर किसी काम की ही नहीं है, लेकिन अब घर वाले मेरे काम से बहुत संतुष्ट हैं। जरूरत पड़ने पर मैं घर वालों की आर्थिक मदद कर देता हूं, यह मेरे लिए खुशी की बात है।
समाज और सरकार के सहयोग से हमलोग विकलांगता को चुनौती के रूप में स्वीकार करते हैं। इसे हम बाधाओं पर विजय का अभियान मानते हैं। इस अभियान के द्वारा हम लोग जहां रास्ता होता है उसे खोज लेते हैं और जहां रास्ता नहीं होता है वहां रास्ता बना लेते हैं।
यदि व्यक्ति में लगन और धैर्य हो तो कुछ भी कर सकता है, चाहे वह किसी भी तरह का विकलांग हो। अब तो कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर ने हर क्षेत्र में क्रांति ला दी है। मुझे इस बात का गर्व है कि नेत्रहीन होते हुए भी मैं दृष्टिवानों का नेतृत्व कर रहा हूं।
जिलाधिकारी बनने के लिए भारतीय प्रशासनिक सेवा (आई.ए.एस.) की परीक्षा पास करनी पड़ती है। यह कोई साधारण परीक्षा नहीं होती है। एक गरीब परिवार से ताल्लुक रखने वाले तिवारी कहते हैं, ''मैंने आठवीं कक्षा में पढ़ते समय ही तय किया था कि आई.ए.एस. अफसर बनना है, लेकिन जब दिखना बंद हुआ तो थोड़ा विचलित जरूर हुआ, पर निराश नहीं हुआ। मुझसे ज्यादा मेरे घर वाले परेशान हुए कि अब मेरी जिन्दगी कैसे कटेगी?''
वे अपना सपना पूरा करने के लिए देहरादून स्थित राष्ट्रीय दृष्टिबाधित संस्थान (एन.आई.वी.एच.) पहुंचे। वे कहते हैं, ''एन.आई.वी.एच. मेरे लिए वरदान साबित हुआ। वहां कम्प्यूटर की जानकारी ली। वहीं से पहली बार 2005 में सिविल सेवा की परीक्षा दी, लेकिन उस बार सफल नहीं हो पाया।''
जून, 2005 में वे दिल्ली आ गए। यहां उन्होंने अभावों के बीच पढ़ाई जारी रखी। 2007 में उन्होंने एक बार फिर सिविल सेवा की परीक्षा दी। इसमें कुल 734 छात्र सफल हुए थे, उनमें उनका स्थान 142वां था। यानी उन्होंने 592 सामान्य छात्रों को पछाड़ते हुए यह स्थान प्राप्त किया, जबकि विकलांग श्रेणी में उन्हें पहला स्थान मिला। यहां तक तो वे अपनी मेधा के बल पर आ गए। इसके बाद उन्हें व्यवस्था के पेच सुलझाने पड़े। एक दिन उनके पास कार्मिक विभाग से एक पत्र आया। लिखा गया था कि आप दृष्टिबाधित हैं, आप अफसर का काम कैसे करेंगे? अपने पक्ष में उन्होंने अनेक तर्क रखे। इसके बाद उन्हें दिल्ली में 7 अक्तूबर, 2008 को एक मेडिकल बोर्ड के सामने हाजिर होना पड़ा। आखिर 17 नवम्बर, 2008 को उन्हें नियुक्ति पत्र मिला और उनका सपना पूरा हुआ।
तिवारी जैसे छात्रों को तराशने में एन.आई.वी.एच. (देहरादून) तथा दिल्ली के ओबराय होटल के नजदीक स्थित नेत्रहीन विद्यालय जैसे संस्थान महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। यही कारण है कि आज समाज जीवन के प्राय: हर क्षेत्र में दृष्टिबाधित लोग अपनी जगह बना चुके हैं और यह प्रक्रिया निरन्तर चल भी रही है। दृष्टिबाधित लोग बैंक, अन्य सरकारी दफ्तरों और शिक्षण संस्थानों में एक सामान्य व्यक्ति की तरह काम कर रहे हैं। दिल्ली में ही ऐसे लोगों की संख्या सैकड़ों में है। उनमें से एक हैं डॉ. वन्दना रस्तोगी। ये दिल्ली में राजेन्द्र नगर स्थित जानकी देवी मेमोरियल कॉलेज में हिन्दी की सहायक प्रोफेसर हैं। डॉ. वन्दना के पति भी दृष्टिबाधित हैं और वे हिन्दू कॉलेज में अंग्रेजी पढ़ाते हैं। इन दोनों की एक बेटी है, जो पढ़ाई कर
रही है।
जन्म से ही दृष्टिबाधित डॉ. वन्दना कहती हैं, ''मेरे जन्म लेने के कुछ दिन बाद घर वालों को मेरी दृष्टिहीनता की जानकरी हुई। घर में मातम छा गया। एक तो लड़की और ऊपर से .. । लेकिन पिताजी ने साहस से काम लिया और उन्होंने मेरा दाखिला स्कूल में करा दिया। यदि वे मुझे स्कूल नहीं भेजते तो आज मैं भी किसी साधारण दृष्टिबाधित की तरह अभाव की जिन्दगी जी रही होती।'' यहां तक पहुंचने में उन्हें भी कम दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ा। वे कहती हैं,''सामान्य लोग आज भी हम जैसों के साथ केवल शब्दों की सहानुभूति रखते हैं। लोग हमारी क्षमता को कम आंकते हैं। यह ठीक नहीं है।''
उनकी बात को उनके जैसे सैकड़ों दृष्टिबाधित लोग आगे बढ़ा रहे हैं और अपनी योग्यता से यह सिद्ध कर रहे हैं कि दृष्टिबाधितों को दया या सहानुभूति की जरूरत नहीं है, उन्हें केवल अवसर उपलब्ध कराने भर की देर है। इसके बाद तो वे देश-विदेश में भारत का नाम रोशन कर सकते हैं। इन दिनों कुछ ऐसा ही कर रहे हैं इंडियन ब्लाइंड क्रिकेट टीम के हरफनमौला खिलाड़ी दीपक मलिक। 22 वर्षीय दीपक 2011 से इस टीम के सदस्य हैं और सलामी बल्लेबाज हैं। इस टीम ने 24 जनवरी, 2016 को पाकिस्तान को हराकर एशिया कप पर कब्जा किया। दीपक कहते हैं, ''भारत में दृष्टिहीनों की क्रिकेट टीम की सबसे बड़ी समस्या है कि प्रायोजक नहीं मिलते और न ही भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड हमारी मदद करता है। इसलिए दृष्टिहीन क्रिकेटर अभाव में रहते हैं। हमें भी सामान्य क्रिकेटरों की तरह सुविधाएं दी जाएं।'' कोई दृष्टिबाधित क्रिकेट खेलना कैसे सीखता है? इस पर वे कहते हैं, ''हम लोगों की गेंद के अन्दर घुंघरू होते हैं। जब भी गेंद फेंकी जाती है तो उससे आवाज निकलती है और खिलाड़ी को समझ आ जाता है कि गेंद किधर है। बाकी अभ्यास तो करना ही पड़ता है।''
दीपक इन दिनों दिल्ली के पंचकुइयां रोड स्थित 'इंस्टीट्यूट ऑफ दी ब्लाइंड' में रहकर 12वीं कक्षा की पढ़ाई के साथ ही 2017 में होने वाले विश्व कप की तैयारी में लगे हैं।
राजेश कुमार भांवरिया दिल्ली के बुराड़ी स्थित स्टेट बैंक की शाखा में सहायक प्रबंधक के पद पर कार्य कर रहे हैं। आज वे अपने बैंक और ग्राहकों के लिए बड़े काम के हैं। हाल ही में उन्होंने एक दिन में 116 बचत खाते खोले। किसी कारणवश बैंक में खाता खोलने का काम थोड़ा पीछे कर दिया गया था। इस कारण दो-तीन दिन में ही 116 फॉर्म जमा हो गए थे। खाता नहीं खुलने से ग्राहक हंगामा कर रहे थे। एक दिन राजेश ने तय किया कि जितने भी फॉर्म जमा हैं आज उन सबको निपटाना है और उन्होंने रात 8 बजे तक काम करके सबके खाते खोल दिए। वे कहते हैं, ''जॉज सॉफ्टवेयर के जरिए हम जैसे नेत्रहीन काम करते हैं। यह सॉफ्टवेयर नहीं होता तो कोई भी नेत्रहीन बैंक में काम नहीं कर सकता था।''
दिल्ली से सटे नोएडा में रहने वाले विनोद चन्द्र तिवारी भी दृष्टिबाधित हैं। वे इन दिनों भारत सरकार की कम्पनी पवनहंस लिमिटेड में अनुभाग अधिकारी हैं। वे कहते हैं, ''यदि व्यक्ति में लगन और धैर्य हो तो कुछ भी कर सकता है, चाहे वह किसी भी तरह का विकलांग हो। अब तो कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर ने हर क्षेत्र में क्रांति ला दी है।''
विनोद अखिल भारतीय नागर विमानन कर्मचारी संघ के क्षेत्रीय सचिव भी हैं। वे कहते हैं, ''मुझे इस बात का गर्व है कि नेत्रहीन होते हुए भी मैं दृष्टिवानों का नेतृत्व कर रहा हूं।''
डॉ. दयाल सिंह पंवार भी शिक्षा के साथ-साथ अनेक सामाजिक और सांस्कृतिक संगठनों से जुड़े हैं। डॉ. पंवार इन दिनों श्रीलालबहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली में व्याकरण विभाग में सहायक
आचार्य हैं। वे कहते हैं, ''समाज और सरकार के सहयोग से हमलोग विकलांगता को चुनौती के रूप में स्वीकार करते हैं। इसे हम बाधाओं पर विजय का अभियान मानते हैं। इस अभियान में हम लोग जहां रास्ता होता है उसे खोज लेते हैं और जहां रास्ता नहीं होता है वहां रास्ता बना लेते हैं।''
इन दृष्टिबाधितों का हौसला आज न केवल विकलांगों को ही प्रेरित कर रहा है, बल्कि सामान्य जन के अन्दर भी कुछ कर गुजरने का मनोबल बढ़ा रहा है।
जन्म से ही दृष्टिबाधित डॉ. वन्दना कहती हैं, ''मेरे जन्म लेने के कुछ दिन बाद घर वालों को मेरी दृष्टिहीनता की जानकरी हुई। घर में मातम छा गया। एक तो लड़की और ऊपर से .. । लेकिन पिताजी ने साहस से काम लिया और उन्होंने मेरा दाखिला स्कूल में करा दिया। यदि वे मुझे स्कूल नहीं भेजते तो आज मैं भी किसी साधारण दृष्टिबाधित की तरह अभाव की जिन्दगी जी रही होती।'' यहां तक पहुंचने में उन्हें भी कम दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ा। वे कहती हैं,''सामान्य लोग आज भी हम जैसों के साथ केवल शब्दों की सहानुभूति रखते हैं। लोग हमारी क्षमता को कम आंकते हैं। यह ठीक नहीं है।''
उनकी बात को उनके जैसे सैकड़ों दृष्टिबाधित लोग आगे बढ़ा रहे हैं और अपनी योग्यता से यह सिद्ध कर रहे हैं कि दृष्टिबाधितों को दया या सहानुभूति की जरूरत नहीं है, उन्हें केवल अवसर उपलब्ध कराने भर की देर है। इसके बाद तो वे देश-विदेश में भारत का नाम रोशन कर सकते हैं। इन दिनों कुछ ऐसा ही कर रहे हैं इंडियन ब्लाइंड क्रिकेट टीम के हरफनमौला खिलाड़ी दीपक मलिक। 22 वर्षीय दीपक 2011 से इस टीम के सदस्य हैं और सलामी बल्लेबाज हैं। इस टीम ने 24 जनवरी, 2016 को पाकिस्तान को हराकर एशिया कप पर कब्जा किया। दीपक कहते हैं, ''भारत में दृष्टिहीनों की क्रिकेट टीम की सबसे बड़ी समस्या है कि प्रायोजक नहीं मिलते और न ही भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड हमारी मदद करता है। इसलिए दृष्टिहीन क्रिकेटर अभाव में रहते हैं। हमें भी सामान्य क्रिकेटरों की तरह सुविधाएं दी जाएं।'' कोई दृष्टिबाधित क्रिकेट खेलना कैसे सीखता है? इस पर वे कहते हैं, ''हम लोगों की गेंद के अन्दर घुंघरू होते हैं। जब भी गेंद फेंकी जाती है तो उससे आवाज निकलती है और खिलाड़ी को समझ आ जाता है कि गेंद किधर है। बाकी अभ्यास तो करना ही पड़ता है।''
दीपक इन दिनों दिल्ली के पंचकुइयां रोड स्थित 'इंस्टीट्यूट ऑफ दी ब्लाइंड' में रहकर 12वीं कक्षा की पढ़ाई के साथ ही 2017 में होने वाले विश्व कप की तैयारी में लगे हैं।
राजेश कुमार भांवरिया दिल्ली के बुराड़ी स्थित स्टेट बैंक की शाखा में सहायक प्रबंधक के पद पर कार्य कर रहे हैं। आज वे अपने बैंक और ग्राहकों के लिए बड़े काम के हैं। हाल ही में उन्होंने एक दिन में 116 बचत खाते खोले। किसी कारणवश बैंक में खाता खोलने का काम थोड़ा पीछे कर दिया गया था। इस कारण दो-तीन दिन में ही 116 फॉर्म जमा हो गए थे। खाता नहीं खुलने से ग्राहक हंगामा कर रहे थे। एक दिन राजेश ने तय किया कि जितने भी फॉर्म जमा हैं आज उन सबको निपटाना है और उन्होंने रात 8 बजे तक काम करके सबके खाते खोल दिए। वे कहते हैं, ''जॉज सॉफ्टवेयर के जरिए हम जैसे नेत्रहीन काम करते हैं। यह सॉफ्टवेयर नहीं होता तो कोई भी नेत्रहीन बैंक में काम नहीं कर सकता था।''
दिल्ली से सटे नोएडा में रहने वाले विनोद चन्द्र तिवारी भी दृष्टिबाधित हैं। वे इन दिनों भारत सरकार की कम्पनी पवनहंस लिमिटेड में अनुभाग अधिकारी हैं। वे कहते हैं, ''यदि व्यक्ति में लगन और धैर्य हो तो कुछ भी कर सकता है, चाहे वह किसी भी तरह का विकलांग हो। अब तो कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर ने हर क्षेत्र में क्रांति ला दी है।''
विनोद अखिल भारतीय नागर विमानन कर्मचारी संघ के क्षेत्रीय सचिव भी हैं। वे कहते हैं, ''मुझे इस बात का गर्व है कि नेत्रहीन होते हुए भी मैं दृष्टिवानों का नेतृत्व कर रहा हूं।''
डॉ. दयाल सिंह पंवार भी शिक्षा के साथ-साथ अनेक सामाजिक और सांस्कृतिक संगठनों से जुड़े हैं। डॉ. पंवार इन दिनों श्रीलालबहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली में व्याकरण विभाग में सहायक
आचार्य हैं। वे कहते हैं, ''समाज और सरकार के सहयोग से हमलोग विकलांगता को चुनौती के रूप में स्वीकार करते हैं। इसे हम बाधाओं पर विजय का अभियान मानते हैं। इस अभियान में हम लोग जहां रास्ता होता है उसे खोज लेते हैं और जहां रास्ता नहीं होता है वहां रास्ता बना लेते हैं।''
इन दृष्टिबाधितों का हौसला आज न केवल विकलांगों को ही प्रेरित कर रहा है, बल्कि सामान्य जन के अन्दर भी कुछ कर गुजरने का मनोबल बढ़ा रहा है।
बे्रल लिपि की शुरुआत
फ्रांसीसी नागरिक लुई ब्रेल, जो खुद नेत्रहीन थे, ने ब्रेल लिपि का निर्माण किया था। इस लिपि में कागज पर अक्षर खुदे होते हैं। कोई भी नेत्रहीन उन अक्षरों को स्पर्श कर लिखना-पढ़ना सीखता है।
रेडियो उद्घोषक श्याम और गीतेश
इंदौर में रहने वाले श्याम शर्मा और गीतेश गहलोत भी दृष्टिबाधित हैं। ये दोनों बैंक में काम करते हैं, इसके साथ ही रेडियो जॉकी 'उड़ान' में कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं। इस रेडियो का संचालन 19 दृष्टिबाधित लोग ही करते हैं। इस रेडियो के द्वारा नेत्रहीनों को अनेक प्रकार की विद्या सिखाई जाती है।
बे्रल लिपि की शुरुआत
फ्रांसीसी नागरिक लुई ब्रेल, जो खुद नेत्रहीन थे, ने ब्रेल लिपि का निर्माण किया था। इस लिपि में कागज पर अक्षर खुदे होते हैं। कोई भी नेत्रहीन उन अक्षरों को स्पर्श कर लिखना-पढ़ना सीखता है।
सामान्य लोग आज भी दृष्टिबाधित और अन्य विकलांगों के साथ केवल शब्दों की सहानुभूति रखते हैं। लोग हमारी क्षमता को कम आंकते हैं। यह ठीक नहीं है।
अरुण कुमार सिंह
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