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आज जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय गलत कारणों से चर्चा केन्द्र में है। देश को अनेक शिक्षाविद्, नौकरशाह और नेतृत्वकर्ता देने वाला विश्वविद्यालय आलोचकों के निशाने पर है, इसपर राष्ट्रद्रोह का ठप्पा लग रहा है। क्या इसकी वजह आधारभूत संरचना, शैक्षणिक सामग्री, शोध प्रक्रिया जैसे बुनियादी मुद्दों से जुड़ी हैं? जेएनयू की कल्पना मूल रूप से शोध और अनुसंधान केन्द्र की कल्पना है। लेकिन क्यों जेएनयू की गिनती विश्व के शीर्ष शिक्षण संस्थानों में नहीं होती? जेएनयू को विश्व स्तरीय बनाने के लिए क्या किया जा सकता है, क्या किया जाना चाहिए यह सवाल हमने पूछा जेएनयू के कुछ पूर्व छात्रों से। प्रस्तुत है जेएनयू के कायाकल्प का खाका इसके ही कुछ पूर्व छात्रों की नजर से :-
'विवि की मूल भावना वापस लाइए'
सांतिश्री डी. पंडित
स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज, 1985 -1990
वर्तमान में पुणे विश्वविद्यालय में
राजनीति विज्ञान की प्रोफेसर हैं
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को चपेट में लेने वाला हालिया विवाद, 1969 में इसकी शुरुआत से चले आ रहे वामपंथी एजेंडे का चरमोत्कर्ष है। इसे यहां के उन बहुसंख्य छात्रों का खामोश समर्थन प्राप्त है, जो यहां पढ़ने, शोध करने और अंतत: उसके आधार पर करियर बनाने आते हैं। इन्हीं छात्रों ने इस एजेंडा को गिने-चुने लोगों के हाथों का खिलौना बन जाने दिया।
मैं भी इसी खामोश बहुसंख्यक छात्र बिरादरी का सदस्य थी जिसने 1985 से 1990 तक यहां शिक्षा प्राप्त की थी। यहां मैंने अपनी एम.फिल और पीएचडी डिग्रियां प्राप्त की थीं। हम विश्वविद्यालय में संयुक्त अकादमिक बिरादरी का गठन करने वाले, विभिन्न पृष्ठभूमियों, राज्यों और वगार् से आने वाले छात्र थे, जो अपनी लड़ाइयां बेहद लोकतांत्रिक तरीके से लड़ते थे। लेकिन पिछले 25 वर्ष में आखिर इतना नाटकीय परिवर्तन कैसे हो गया? विश्वविद्यालय में कानून और व्यवस्था क्यों पूरी तरह चरमरा गई?
हमें इस पर गहराई से सोचना होगा कि कमी कहां है। क्या यह संघर्ष सचमुच संस्थानों, समूहों या व्यक्तिगत आजादी और स्वायत्तता से जुड़ा है? क्या स्वतंत्रता का मतलब है कि धुर वामपंथी बिना दूसरों की भावनाओं की परवाह किए एजेंडा पर काबिज होकर मनमानी करें? इस एजेंडा के कारण कुछ विशिष्ट बाहरी शक्तियां केंद्र में आ पहुंची हैं और उन्होंने विद्यालय की मूल भावना को किनारे कर दिया है। भिन्न विचारों के खिलाफ कोई नहीं है, लेकिन किसी भी तरह का एकांतिक मत प्रचार खतरनाक होगा।
तो सवाल उठता है कि आखिर जेएनयू की मूल भावना को केंद्र में लाने के लिए क्या किया जाए? हैरानी इस बात को जानकर भी होती है कि जेएनयू भारत की जनता के प्रति जिम्मेदार है और उसे केंद्र सरकार से अनुदान प्राप्त होता है।
इसलिए अब जल्दी ही वहां अकादमिक पदों पर विभिन्न मत रखने वालों की भर्तियां की जानी चाहिए। संकायों में वामपंथियों के शामिल होने पर किसी को ऐतराज नहीं, लेकिन अभी तक उन्होंने अकादमिक स्तरों पर इतर सोच रखने वालों को आने से रोके रखा है। इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि नए कुलपति की एक सहयोगी संचालक परिषद्, हो जो ध्यान रखे कि अन्य मतों के लोग भी वहां पहुंचें। जेएनयू में ऐसा अकादमिक वर्ग आए जो उस स्थान से परिचित हो। इससे वहां सुधारवादी कार्य होगा। दूसरा, अन्य सभी विश्वविद्यालयों में लागू किए जाने वाले नियम और कानून यहां भी लागू हों। उदाहरण के लिए मेडिकल संबंधित अन्य कुछ कारणों को छोड़कर, छात्रों के लिए न्यूनतम 75 प्रतिशत हाजिरी व्यवस्था लागू हो। इसके अलावा, दाखिला प्रक्रिया में साक्षात्कार के महत्व को कम कर के अधिकाधिक ध्यान लिखित परीक्षा पर दिया जाए। छात्रों को किसी भी विशेष कार्यकम को पूरा करने के लिए स्थायी सेमेस्टर का समय मिले और अकादमिक कायार् की लगातार पड़ताल हो।
दीर्घकालिक तौर पर सरकार को ऐसे समाज को बढ़ावा देने की पहल करनी होगी जो मुद्दों पर, बिना राजनेताओं के, विचार विमर्श और बहस-मुबाहिसा कर सकें। चूंकि शोध एक संजीदा विषय है और ज्ञान आधारित समुदाय विश्वविद्यालयों की पहली जरूरत होते हैं। यह परिवर्तन विचारों और संवाद के माध्यम से ही आएगा। यही वह बिंदु है जहां केंद्र और दक्षिणवर्ती सोच से जुड़े हुए बौद्धिकों को संघर्ष करना होगा।
जेएनयू और अन्य केंद्रीय विश्वविद्यालय स्नातकों, परा-स्नातकों और शोध उपाधियों के संबंध में काम करते हैं। इसलिए यहां सभी कार्यप्रणालियों के लिए, विशेषकर डॉक्टर डिग्री से पहले के स्तर पर नियत समय में सभी कार्य पूरे होने चाहिए ताकि पैसे की बरबादी न हो। छात्रों को अपने शीर्षस्थों का लगातार सहयोग प्राप्त हो ताकि वह समय पर शिक्षा पूरी करें और आगे बढ़ें।
विश्वविद्यालय छात्रों द्वारा चुने गए कार्य क्षेत्र का प्रस्थान बिंदु होता है। दरअसल, वाम सोच रखने वाले कई छात्र भी सरकारी सेवाओं की परीक्षाओं के इम्तिहानों के प्रयास करते हैं। यह सचमुच विरोधाभासी तथ्य है। विश्वविद्यालयों में इस तरह की राजनीति में उनका शामिल होना उनके करियर को नुकसान पहुंचा सकता है।
जेएनयू का रुझान हमेशा वाम विचारधारा की ओर इसलिए रहा है क्योंकि दूसरी ओर से कभी कोई चुनौती पेश नहीं की गई। अब चुनौती सामने है और वाम समूह इससे बचने की कोशिश में हैं, जो साफ दिख रहा है। इसलिए यहां सरकार को वैचारिक संघर्षों से जूझने के लिए विभिन्न मत आधारित समुदायों का गठन करना होगा। पहले कदम के तौर पर ऐसी शुरुआत, उसे प्रोत्साहन और सहयोग बेहद जरूरी है।
जेएनयू में लगातार सुधार की जरूरत
रश्मि सिंह
स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज, 1996-1998
वर्तमान में टेलीकॉम लाइव एण्ड इंफ्रा
लाइव की संपादक हैं
किसी भी विश्वविद्यालय में जब छात्र पढ़ने के लिए आते हैं तो वे कच्चे माल की तरह होते हैं। यहां आकर वे सभ्य और शिक्षित होते हैं ताकि पढ़ाई पूरी करने के बाद अच्छे पेशेवर बनें और सामाजिक आवश्कताओं की पूर्ति करें। अधिकांश छात्रों की यही इच्छा और आकांक्षा होती है। इसके लिए महत्वपूर्ण है कि छात्र- शिक्षक संबंध बेहतर हों, जोकि जेएनयू में न के बराबर हैं। यही कारण है कि विश्व रैकिंग में जो 100 विश्वविद्यालय हैं उनमें जेएनयू कहीं नहीं है।
यह एक कड़वा सच है, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि विश्व रैकिंग में जो विश्वविद्यालय हैं उनमें जेएनयू का प्रदर्शन सबसे खराब है। जेएनयू में संकाय एक ट्रेड यूनियन की तरह बर्ताव करते हैं। यहां के शिक्षक राज्य से मिलने वाली सुविधाओं का उपभोग कर खुश रहते हैं।
केवल आधे दिन काम करकेे वे परिसर में मिले हुए आवास में दोपहर का आराम करने चल जाते हैं। इनमें से ज्यादातर काम से जी चुराते हैं। जेएनयू के प्रोफेसर वे काम नहीं कर रहे हैं जिसके लिए उन्हें नौकरी मिली है। यहां विश्व स्तर पर उनके काम की समीक्षा किए जाने की जरूरत है। क्या जेएनयू के किसी भी प्रोफेसर ने अतीत में या वर्तमान में एलन ट्यूरिन की तरह कंप्यूटर के क्षेत्र को लेकर कोई शोध पत्र लिखा है जो भविष्य में मील का पत्थर साबित हो?
भारत के दो बड़े विद्वान डी.डी बसु और एस.सी कश्यप अपने विश्वविद्यालय की वजह से महान नहीं हैं, बल्कि अपने व्यवसाय के कारण हैं। यह तथ्य सब कुछ कह देता है। जेएनयू के शिक्षक, शिक्षक नहीं हैं, वे उग्रवादियों की भर्ती कर रहे हैं। जैसे ट्रेड यूनियन के लोग कारखानों में जाते हैं वहां जाकर मजदूरों को भड़काते हैं और कहते हैं कि वे उनके अधिकारों के लिए संघर्ष कर
रहे हैं।
इसी तरह जेएनयू में प्रोफेसर बौद्धिकता के नाम पर कभी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर दुष्प्रचार करते हैं। वे शैक्षणिक कार्य के साथ-साथ भड़काऊ लेख लिखते हैं। निवेदिता मेनन और आयशा किदवई, अनुराधा चिनॉय, कमल चिनॉय, मृदुला और आदित्य मुखर्जी जैसों के समूहों ने कितने ही छात्रों के जीवन का तियां-पांचा कर दिया।
जेएनयू के प्रोफेसर वे काम नहीं कर रहे हैं जिसके लिए उन्हें नौकरी मिली है। यहां विश्व स्तरीय मानदंड पर उनके काम की समीक्षा करने की जरूरत है।
भारत में हो रहे आर्थिक सुधारों को लेकर पूरी दुनियाभर में धूम मची हुई है। केवल जेएनयू के वामपंथी इस पर पश्चाताप करते हैं कि भारत में आर्थिक सुधारों के लिए जो भी प्रयास हो रहे हैं वे ठीक नहीं हैं, उनसे नुकसान होगा। जेएनयू में वर्तमान में जो प्रोफेसर हैं, उनमें से कुछ ऐसे हैं, जिनकी जबान पर भारत की भूमिका की बात है नहीं, अधिकतर उसके आगे तथाकथित लगा देते हैं। यह उनका अपना दर्शन है। इस प्रकार हम भारत के पिछले 25 वर्ष के रिकॉर्ड को देखते हैं, जिसमें भारत का बड़ी दयनीय स्थिति में विश्लेषण किया जाता है। किसी तरह के आंकड़ों की जरूरत नहीं, केवल इसे 'जन विरोधी' घोषित करो और दफना दो।'
हमारे संविधान की महान उपलब्धियों को लगातार अनदेखा किया जाता रहा है। जब राष्ट्र दशकों तक संघर्ष करते रहे, उतने सिविल वार और अराजकता झेली, हम संविधान से शासित होते रहे। इस स्थिति को बदलने की कोई भी कोशिश मानी नहीं गई।
आज हम जिन चुनौतियों का सामना कर रहे हैं वह हमारे संवैधानिक मूल्यों को नीचे गिराने की कोशिश है।
यह और भी प्रासंगिक हो जाता है जब हम समाज में दलितों और महिलाओं के उत्थान की बात करते हैं। इसलिए विवि में अधिकाधिक स्टडी सर्कल स्थापित किए जाने चाहिए। जब मैं पढ़ती थी तो मेरे पास अन्य छात्र आते थे और कहते थे कि उन्हें प्रोफेसरों द्वारा पढ़ाने का तरीका समझ नहीं आ रहा है। एक शिक्षक के शिक्षण का स्तर कक्षा में उसे पढ़ाए जाने के तरीके से ही पता चलता है। इसलिए हमें हमारे छात्रसंघों को 'अकादमिक वॉचडॉग' में बदल देना चाहिए जो विभिन्न विषयों की प्रगति रिपोर्ट विभिन्न मापदंडों पर अद्यतन करते रहें। छात्रसंघों का यह 'स्किल इंडिया' में योगदान होगा।
'उच्च संस्थान बनना है तो विवाद से तौबा करें'
ताहिर हुसैन
सीएसआरडी, 1986 -1994
वर्तमान में एडिग्राट विश्वविद्यालय, इथोपिया में भूगोल एवं पर्यावरण अध्ययन विभाग में प्राध्यापक हैं
हिन्दुस्थान के प्रथम प्रधानमंत्री के नाम पर 1967 में बने विश्वविद्यालय के इतिहास में हाल ही में हुई घटना बहुत ही घिनौनी व शर्मनाक है। यह ऐसी घटना है जिसने देश को ही आहत नहीं किया जेएनयू के विचार को भी धक्का पहुंचाया है। विचारों का प्रचार-प्रसार की पूरी स्वतंत्रता इस परिसर के भीतर की खूबसूरती है। यही तो हिन्दुस्थान की खूबसूरती है। परन्तु यह घटना इस खूबसूरती से खिलवाड़ है। कैसी आजादी है? जिस देश में रहते हो उसी के खिलाफ नारे लगाते हो। यह कैसी विडम्बना है?
जेएनयू को यदि वास्तव में उच्च शिक्षा का प्रतिष्ठित केंद्र रहना है तो ऐसी घटनाओं से तौबा करनी होगी। छात्र यहां पढ़ाई के लिए आते हैं और उन्हें किस ओर ले जाया जा रहा है? जेएनयू का शैक्षिक माहौल ठीक करना है तो हमें इस घटना के सहारे समस्या की जड़ तक जाना पड़ेगा यह जानने के लिए कि आखिर कौन वह विघटनकारी ताकतें हैं जो नवयुवकों को गुमराह करके अपने ही देश के खिलाफ नारेबाजी के लिए उकसाती हैं? देश के खिलाफ नारेबाजी करने वाले छात्र तो दोषी हैं ही परन्तु उनसे भी बड़ी दोषी वह ताकतें हैं जो शैक्षिक संस्थान की प्रतिष्ठा को आड़ बनाकर छात्रों को गलत राह पर धकेल रही हैं, भड़का रही हैं।
90 के दशक के जेएनयू और आज के जेएनयू में बहुत बड़ा फर्क आया है। यह फर्क है छात्रों की भौतिकतावादी होती सोच का। तकनीक के प्रसार ने जीवन सरल बनाए हैं लेकिन महत्वाकांक्षाएं भी जगाई हैं? छात्रों को अगर जरूरत से ज्यादा पैसा मिलता है तो आशंका रहती है कि वह पढ़ाई के अलावा अन्य गतिविधियों में शामिल हो सकते हैं। जेएनयू के छात्रों के पास छात्रवृत्तियों की कमी नहीं है। सपनों की कमी भी नहीं है लेकिन साथ ही इस परिसर में खास तरह के विचारों की भी कमी नहीं है।
पैसे और सपनों की इस चढ़ाई में जब खास वैचारिकता का धक्का लगता है तो पढ़ाई पिसने लगती है। छटपटाहट और गुस्सा युवा मनों पर हावी होने लगता है। जेएनयू को पढ़ाई का माहौल बनाए रखते हुए अपने युवा छात्रों को इसी गुस्से और छटपटाहट से बचाना है।
यह सच है कि जेएनयू वामपंथियों का गढ़ रहा है जिनकी विचारधारा भिन्न है। लेकिन इसका मतलब अलगाव की पैरवी या छात्रों को पढ़ाई या करिअर से दूर करना नहीं हो सकता।
'जरूरत समयबद्ध और गुणात्मक शोध की'
आयुषी
स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज, 2000- 2002
वर्तमान में जम्मू-कश्मीर अध्ययन
केन्द्र की निदेशक हैं
पिछले दिनों जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के बारे में जो खबरें आईं, उनसे वहां की पूर्व छात्रा होने के नाते मुझे दु:ख हुआ। कुछ लोगों ने इस बेहतरीन शिक्षण संस्थान को नारेबाजी का अड्डा बनाकर रख दिया। इस दलदल से निकलने के कई विचार आते हैं। सबसे पहले तो सब्सिडियों को तर्कसंगत बनाया जाना चाहिए। देश में विद्वानों और छात्रों को सहयोग देने का पुराना चलन है, क्योंकि ज्ञान को हमेशा शीर्ष पायदान पर रखा जाता है। परंतु विद्वानों और ज्ञान चाहने वालों को आरामदेह वातावरण उपलब्ध कराने की परंपरा का कलयुग में अच्छा-खासा दुरुपयोग हुआ है। विरोधी विचारधारा के विरुद्ध शोर मचाने की प्रेरणा इसी 'फ्री फॉर ऑल' वाले माहौल से मिली है।
जेएनयू की दशा में सुधार से जुड़ी दूसरी सलाह उसके गुणात्मक, समयबद्ध और निष्कर्ष आधारित शोधकार्य से जुड़ी है। यह देखा गया है कि सुरक्षित और आर्थिक रूप से संपन्न विद्यालय परिसर में छात्र आलसी और आरामदेह जीवन के आदी हो जाते हैं। छात्रों को उनके शोध कायार्ें के लिए समयबद्ध और उच्चस्तरीय प्रतिस्पर्धात्मक माहौल में रखने से ही जेएनयू को 'श्रेष्ठता केंद्र' का खिताब मिल सकता है। किसी भी हालत में विस्तार की इच्छा रखने वाले छात्रों को वहां टिकने न दिया जाए। (कुछ छात्र एक दशक से भी अधिक समय से परिसर में रह रहे हैं)। जेएनयू और ऐसे अन्य संस्थानों के लिए अकादमिक जिम्मेदारी समय की जरूरत है, जो क्षय से जूझ रहे हैं। सुधार की शुरुआत शीर्ष से ही होनी चाहिए। प्रोफेसरों को नियत समय के लिए रखा जाना चाहिए। उनके अध्यापन और शोध परिणामों को देखते हुए अवधि बढ़ाई जानी चाहिए। जेएनयू के अध्यापकों को शोध को सामाजिक तौर पर प्रासंगिक रूप देने के लिए शिक्षा-उद्योग के जुड़ाव को भी बढ़ावा देना होगा। प्रोजेक्ट वर्क औैर शोध कार्य के प्रकाशन को भी प्रोत्साहन दिया जाना जरूरी है।
जेएनयू का पाठ्यक्रम और उसका क्रियान्वयन राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर आधारित हो। उसमें 'राष्ट्र सर्वप्रथम' की भावना को समाहित करना चाहिए। मातृभूमि से बड़ा कोई विद्वान या संस्थान नहीं हो सकता। अपने देश की गलत छवि प्रस्तुत करने का हक किसी को भी नहीं दिया जा सकता। विश्वविद्यालय मेहनत करने वाले विद्वानों का स्थान होना चाहिए, न कि महत्वाकांक्षी राजनीतिकों और एक्टिविस्टों का।
'एसईएस के शोध वास्तविकता से जुड़ें
लिथा मल्लिकार्जुन
स्कूल ऑफ एन्वायरनमेंटल साइंसेज, 1998- 2002
सामाजिक उद्यमी, लेखक
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पर्यावरण विज्ञान विद्यालय (एसईएस) की अनेक उपलब्धियां हैं। परंतु वहां विचारधाराओं के हल्ले में ये उपलब्धियां अभी तक दबी रही हैं। बहु-अनुशासित और अंत:-अनुशासित कार्यशैली अपने आप में ठीक होती है, परंतु यहां संयुक्त प्रयासों से जुड़ा कोई सामूहिक दृष्टिकोण मौजूद नहीं है। पृथ्वी, पर्यावरणीय एवं जैविक विज्ञान के लिए एसईएस की बहु-अनुशासित एवं विविधरूपी पद्धति है। पारिस्थितिकी एवं सामाजिक कार्यविधि के बीच संबंध इस विद्यालय को अतिरिक्त आयाम देते हैं जिससे इसका कार्य प्रासंगिक बनता है। परंतु अफसोस यह है कि इसके अतिरिक्त कोई अन्य एकीकृत तरीका नहीं है और सभी विभाग अकेले ही काम कर रहे हैं।
वृहद् सामाजिक और स्थानीय मुद्दों के साथ स्थानीय पर्यावरणीय ज्ञान का जुड़ाव आज की जरूरत है। परंतु एसईएस में कभी व्यापक तौर पर सीएनजी की शुरुआत, यमुना एक्शन प्लान, प्राकृतिक स्रोत प्रबंधन जैसे प्रासंगिक मुद्दों पर शोध या अध्यापन नहीं किया गया। इनमें से कई मुद्दों के हल एसईएस के छात्रों की अपेक्षा पर्यावरण संगठनों या अन्य विश्वविद्यालयों की ओर से आए हैं। अत: स्कूल के पर्यावरण से जुड़े शोध जमीनी हकीकत से दूर हैं।
फिलहाल यहां पर्यावरणीय विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े शोध कायार्ें के प्रति गहरी उदासीनता है। एसईएस को नवोदित पर्यावरणविदों के लिए शुरुआती जमीन तैयार करनी चाहिए, जहां वह वैज्ञानिकों के साथ विभिन्न स्थानीय पर्यावरणीय मुद्दों पर काम कर के इस क्षेत्र के लिए उचित व्यावसायिक अवसरों की टोह ले सकें।
मौजूदा दौर में चल रहे जलवायु परिवर्तन विमर्श में एसईएस की कोई बड़ी भूमिका नहीं है, जबकि जेएनयू के अन्य स्कूल अतिसक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। जैव-विविधता, पारिस्थितिकी नियंत्रण जैसे मुद्दों पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए। पाठ्यक्रमों के लिए तकनीकी गठजोड़ और पर्यावरणीय तौर पर सटीक तकनीकी की पहचान करके उन्हें प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। जो युवा जेएनयू का हिस्सा न बन सकें उनके लिए ईआईए, रिमोट सेंसिंग आदि के सर्टिफिकेट प्रोग्राम शुरू किए जाने चाहिए। जेएनयू के वर्तमान हालात को ठीक करना देश और नई पीढ़ी के लिए जरूरी है।
'भाषाओं की पढ़ाई उनके उपयोग से जुड़ी हो'
प्रसाद बाकरे
स्कूल ऑफ लैंग्वेजेस, 1999 -2004
वर्तमान में सिंगापुर में व्यावसायिक सलाहकार हैं
जेेएनयू का स्कूल ऑफ लैंग्वेज, लिटरेचर एंड कल्चर स्टडीज भारत में कला विषयों का हार्वर्ड है। विश्वविद्यालय व्यवस्था में इसकी खास जगह है क्योंकि यह अकेला स्कूल है जहां स्नातक पाठ्यक्रम की सुविधा है। स्कूल ने परिसर को युवा छात्रों के रूप में अहम ऊर्जा उपलब्ध कराई है और यह देश के अंदर और बाहर तमाम संस्कृतियों का सूत्र रहा है, क्योंकि यह भाषा शिक्षण पर केन्द्रित है। बहरहाल, स्कूल को खासतौर पर तीन क्षेत्रों में सुधार की जरूरत है-कड़ी चयन और बहाली प्रक्रिया, छात्रों द्वारा शिक्षकों का मूल्यांकन और इंटर्नशिप कार्यक्रम-सुधार जरूरी है अगर यह अपना उच्च स्तर कायम रखना चाहता है तो।
विभाग में दाखिले के लिए होने वाली परीक्षा खासतौर पर सामान्य ज्ञान, 'बेसिक रिजनिंग' और प्राथमिक अंग्रेजी भाषा की योग्यताओं पर केन्द्रित होती है। सब जानते हैं कि विश्वविद्यालय ऐसे छात्रों को पसंदीदा स्थान है, जो यूपीएससी परीक्षाओं की तैयारी करते हैं, जो प्रवेश परीक्षा से ज्यादा कठिन होती है। प्रवेश परीक्षा और दाखिले की प्रक्रिया में ऐसे छात्रों द्वारा विश्वविद्यालय की व्यवस्थाओं का जमकर दुरुपयोग होता है, जो विभाग में दाखिला लेने के बाद लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं की तैयारी में जुटे रहते हैं। इस पर रोक लगनी चाहिए। विश्वविद्यालय में कक्षा में तभी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का मुख्य उद्देश्य पूरा हो सकेगा। उदाहरण के लिए, जापान के शिक्षा मंत्रालय द्वारा चयनित शोधार्थियों को एक बांड भरना पड़ता है कि वे भारत लौटने के बाद तीन वर्ष तक इसी तरह की स्कॉलरशिप नहीं लेंगे और उनको भारत में जापानी भाषा के क्षेत्र में योगदान देना होगा।
फ्रांस, जर्मनी और स्पेन जैसे देशों में शिक्षा के लिए इसी तरह के बांड भरवाए जाते हैं। कहने का अर्थ है कि भाषा शिक्षण के क्षेत्र में विद्यार्थियों को जवाबदेह और उसके प्रति भावना रखने वाला बनाया जाना चाहिए। भाषा शिक्षण को भाषा के व्यावहारिक क्रियान्वयन से जोड़े जाने की जरूरत है।
विश्वविद्यालय के हाल ही घटनाओं का जिस तरह से राजनीतिकरण हुआ, वह बंद होना चाहिए। विश्वविद्यालय विवादों से निकलकर शिक्षा के उच्च मापदंडों पर ध्यान केन्द्रित करे ताकि न केवल राजनीति में बल्कि जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी विश्व स्तरीय विद्वान तैयार हों।
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