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सामाजिक-राजनीतिक चेतना लाने वाले तथ्यपूर्ण विचार सामने आना लोकतंत्र में जरूरी
माजवादी नेता और चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया ने लिखा था, ''वाणी की स्वतंत्रता हर नागरिक के लिए अत्यंत आवश्यक है। लोकतंत्र में हर एक अपनी बात कह सके, स्वतंत्रतापूर्वक—बिना भय-आतंक के बहस कर सके और कोई रुकावट सामने नहीं आए।'' लेकिन व्यक्तिगत आजादी के संदर्भ में उच्चश्रृंखलता को अनुचित मानते हुए लोहिया ने कहा कि ''व्यक्तिगत स्वतंत्रता के उपयोग से सामाजिक व्यवस्था की चूल पर आघात नहीं होना चाहिए। व्यक्तिगत आजादी का अर्थ दूसरों की आजादी के लिए खतरे पैदा करने की छूट नहीं है। संयम व्यक्तिगत स्वतंत्रता का कवच है। सुरक्षा और चैतन्य है।'' इस दृष्टि से वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर संयमित ढंग से बहस होनी चाहिए। अभिव्यक्ति को राष्ट्रद्रोह के अपराध से जोड़ना इससे भी गंभीर और विवादास्पद मुद्दा है। सर्वोच्च न्यायालय भी कह चुका है कि 'नारेबाजी' को 'राष्ट्रद्रोह' की श्रेणी का अपराध नहीं माना जा सकता। समाज मंे हिंसा भड़काकर देश को तोड़ने का आह्वान करने वालों को निश्चित रूप से कठोर दंड भुगतने के लिए तैयार रहना पड़ेगा। यही कारण है कि सुदूर, आदिवासी बहुल ग्रामीण क्षेत्रों में अवैध हथियारों के बल पर असंतोष एवं हिंसा भड़काने वाले माओवादियों अथवा पूवार्ेत्तर या जम्मू-कश्मीर में सक्रिय उग्रवादी संगठनों से जुड़े खंूखार लोगों पर कार्रवाई को अनुचित नहीं माना जा सकता। ऐसे संगठनों को बड़े शहरों में भूमिगत रूप से हरसंभव सहायता करने वालों को निरपराधी नहीं कहा जा सकता है। इसी तरह धर्म के नाम पर सांप्रदायिक हिंसा भड़काने वाले भाषण या पर्चे बांटने वालों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कैसे बरी किया जा सकता है? माओवादियों की तरह सांप्रदायिक तत्वों पर भी समान कार्रवाई की अपेक्षा सरकार और कानूनी अदालतों से की जाती है।
एक कहावत है-'जिम्मेेदारी की भावना से रहित शक्ति केवल वेश्याओं के पास हो सकती है।' कुछ आलोचक पत्रकारिता के एक वर्ग की तुलना इस तरह करते हैं। यह अतिशयोक्ति है। वास्तव में पत्रकारिता हवादान की तरह है, जिससे समाज के अंदर की भावनाएं बाहर निकलती हैं। यदि उन्हें अंदर ही रहने दिया गया, तो बाद में समाज में विस्फोटक प्रतिहिंसा के रूप में व्यक्त होती है। राजनीति और पत्रकारिता से जुड़े कुछ लोग अपने आपको इस देश का उद्धारक समझने लगते हैं। यह नैतिक अहं से ज्यादा कुछ नहीं हैं। वे यह भूल जाते हैं कि हमारे नैतिक आदर्श व्यष्टि नहीं, बल्कि समष्टि पर केंद्रित रहे हैं. संविधान की धारा 19(1) मंे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का प्रावधान है, वहीं 19(2) में उस पर कुछ मामलों में अंकुश भी लगाया गया है। जैसे इस अधिकार के तहत अपराध, हिंसा को उकसाना या अदालत की अवमानना शामिल नहीं है।
भारतीय प्रेस परिषद ने 1969 में ही सांप्रदायिक मामलों से संबंधित तथ्यों को विकृत रूप से बढ़ा-चढ़ाकर प्रचारित करने, टिप्पणियां लिखने पर कड़े आत्मानुशासन की सलाह देते हुए कुछ मार्गदर्शक निर्देश जारी किए थे। फिर 1991 में भी भारतीय प्रेस परिषद, राज्य सरकारों और एडिटर्स गिल्ड में सांप्रदायिक हिंसा भड़काने वाले लेखन को अनुचित बताया तथा कहा कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का घृणित दुरुपयोग हैै। लेकिन तथ्यों के साथ सामाजिक-राजनीतिक जागरूकता लाने वाले विचार सामने आना लोकतंत्र में जरूरी है।
भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने डायरीनुमा अपनी पुस्तक 'नजरबंद लोकतंत्र' मंे लिखा है-''एक लोकतंत्रवादी कटु आलोचना को स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अनिवार्य मानता है। वहीं एक फासिस्ट उस आलोचना को अपने दल और देश की सुरक्षा के लिए खतरा मानता है। वह विपक्ष को देश के दुश्मन के रूप में देखता है और उन्हें किसी राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए अयोग्य मानता है।'' उसके लिए जिम्मेदार विपक्ष भी जी-हुजूरियों की भीड़ बना हुआ होना चाहिए।'' समय बदला है, लेकिन अब अधिकांश सत्ताधारी इसी रूप में स्वतंत्रता और आलोचना को देखने लगे हैं। समाचार माध्यमों के विस्तार एवं सोशल मीडिया आने के बाद अभिव्यक्ति के अधिकार, स्वतंत्रता और राष्ट्रद्रोह की परिभाषा पर नए सिरे से गंभीरतापूर्वक विचार होना चाहिए। देश के विभिन्न राज्यों में विभिन्न राजनीतिक दलों की सरकारें हैं। सब अपने ढंग से कानून को परिभाषित करना चाहते हैं। बेहतर यह हो कि ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर संसद, सवार्ेच्च न्यायालय स्तर पर खुले ढंग से विचार करके वर्तमान कानूनों में आवश्यक बदलाव किए जाएं और अधिकारों के साथ उत्तरदायित्वों का स्पष्ट उल्लेख हो। दिग्गज संपादकों में से एक बी.जी. वर्गीज ने दो वर्ष पहले मीडिया की उच्छृंखलता एवं अराजकता को रोकने के लिए नई आचार संहिता की आवश्यकता बताई थी।
आलोक मेहता लेखक हिन्दी आउटलुक पत्रिका के प्रधान संपादक हैं
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