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जवाहरलाल नेहरू विश्व विद्यालय (जेएनयू) में 9 फरवरी को घटी घटना कभी इस विश्वविद्यालय से जुड़े रहे या इसके बारे में जानने वाले तमाम लोगों के लिए कोई नई बात नहीं थी क्योंकि कैंपस में ऐसी घटनाएं पहले भी होती रही हैं। जरा याद कीजिए:-
1990 के मध्य में कैंपस में शहाबुद्दीन गौरी नाम का एक आतंकी पकड़ा गया था, जिसके बाद हवाला कांड सामने आया।
1996 में भाकपा (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के छात्र संगठन आइसा ने भाषण देने के लिए कश्मीर घाटी से आतंकियों को कैंपस में बुला लिया था जिसे राष्ट्रवादी छात्रों ने नाकाम कर दिया।
सन् 2000 में कैंपस में सेना के दो जवानों को इसलिए बेरहमी से पीटा गया क्योंकि उन्होंने एक वामपंथी संगठन के मुशायरे में राष्ट्रविरोधी नारों का विरोध किया था।
सन् 2009 में जब छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में नक्सलियों ने अर्र्द्धसैनिक बल के 70 जवानों को मार डाला तो कैंपस में जश्न मनाया गया। आइसा सहित अन्य नक्सल समर्थक संगठनों के जश्न में तिरंगे की होली भी जलाई गई।
कुछ साल पहले एक छात्र को नक्सलियों से जुड़े होने के कारण पकड़ा गया।
यह जानकर आश्चर्य होगा कि इन घटनाओं के लिए किसी भी व्यक्ति पर कभी कार्रवाई इसलिए नहीं हुई क्योंकि इन्हें कैंपस में निहित स्वार्थों का संरक्षण था। दूसरे, दिल्ली के मीडिया ने इन्हें कभी गंभीरता से नहीं लिया।
इस बार भी कुछ अपवाद छोड़ दें तो इतिहास ही दोहराया गया। राष्ट्रद्रोह के मुद्दे को दबाकर पूरा मसला छात्रों की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की तरफ ले जाया जा रहा है। पुलिस कार्रवाई के बाद वही पुरानी 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' और 'जेएनयू की स्वायत्तता खतरे में' की रट है। जेएनयू कितना गहरा संकट झेल रहा है, इसकी बात कोई नहीं कर रहा। कैंपस नेताओं के लिए अपनी राजनीति चमकाने का नया ठिकाना है।
कहा जा रहा है कि 9 फरवरी का आयोजन 'छोटे' धुर वामपंथी तत्वों की हरकत थी। सवाल यह कि इनके सरपरस्त हैं कौन? अब घटना से पल्ला झाड़ रहे आइसा या एसएफआइ ने इसे रोकने की कोशिश क्यों नहीं की? क्या यह वामपंथी एकता के लिए एक संगठन का दूसरे संगठन के लिए मैदान छोड़ने का मामला है? या फिर बुराई बहुत गहरे समा गई है जिसे हम नहीं देख पा रहे हैं।
ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब खोजना जरूरी है और यह सिर्फ जांच से ही हो सकता है। अहम सवाल यह कि क्या शिक्षक समुदाय, जिनमें से कई का चयन उनकी राजनीतिक विचारधारा के कारण हुआ, और जिनमें से कई अपने छात्र जीवन में भाकपा, माकपा और भाकपा (मा-ले) के छात्र संगठनों से जुड़े रहे और बाद में संबद्ध पार्टियों के सदस्य भी रहे, ने क्या ऐसी गतिविधियों को प्रश्रय दिया जो राष्ट्र हितों के विरुद्ध रही हैं? ऐसी घटनाओं के बाद बार-बार दोहराया जाने वाला यह स्पष्टीकरण उछाल दिया जाता है कि अन्य संस्थानों के विपरीत जेएनयू खुले विचारों का समर्थन करने वाला संस्थान है और यहां हर किसी को कहीं भी, कुछ भी, किसी भी तरीके से कहने की आजादी है? इस दृष्टिकोण से जेएनयू को अरसे से नुकसान पहुंच रहा है क्योंकि इसे कुछ भी करने की खुली छूट मान लिया गया।
अब तरह-तरह के तर्क और जेएनयू को बचाने की आवाजें सुनाई दे रही हैं। इस बात से हर कोई सहमत होगा कि जेएनयू को बचाना जरूरी है। लेकिन बड़ा सवाल यह कि जेएनयू को आखिर बचाना किससे है? क्या उनसे जो एक खास वैश्विक नजरिया रखते हैं और जिन्होंने दूसरे किसी भी विचार का हमेशा दमन किया, उसका मजाक उड़ाया? क्या जेएनयू को उन लोगों से बचाने की जरूरत है जिन्होंने कैंपस का इस्तेमाल अपने उस 'आइडिया ऑफ इंडिया' के प्रचार के लिए किया जिसमें भारत एक राष्ट्र नहीं बल्कि विभिन्न राष्ट्रीयताओं का समूह भर है? क्या इसे उन निहित स्वार्थों से बचाने की जरूरत है जिन्होंने एक दूसरे को लाभ पहुंचाने वाली नियुक्ति प्रक्रिया को संस्थागत रूप दे दिया है? क्या इसे उन तत्वों से बचाने की जरूरत है जो मान बैठे हैं कि कैंपस का प्रयोग राष्ट्रविरोधी विचारों के प्रचार व अलगाववादी गतिविधियों के कमांड सेंटर की तरह किया जा सकता है?
जब तक 'जेएनयू बचाओ' को लेकर स्पष्टता नहीं होगी, सारी कवायद राष्ट्रविरोधी घटना के सूत्रधारों को किसी भी कीमत पर बचाने की ही होगी जिसे यदि होने दिया गया तो विश्वविद्यालय का बहुत नुकसान होगा। जब मैं वहां का छात्र था और अब भी, जब नहीं हूं, एक बात मुझे हमेशा से परेशान करती रही है कि आखिर जेएनयू समुदाय ऐसे लोगों को अलग-थलग क्यों नहीं करता? आखिर शिक्षक, जिनका अब तर्क है कि भारत-विरोधी नारेबाजी करने वाले महज मुट्ठीभर हैं, इस सबके विरोध में सामने क्यों नहीं आते?
मुख्य बिंदु यह है कि अरसे से विभाजनकारी और राष्ट्रविरोधी गतिविधियां कैंपस में फल-फूल रही हैं। इनको अधिक बर्दाश्त करना संस्थान के हित में नहीं है। यह जिम्मा जितना छात्र संगठनों के राजनीतिक आकाओं भाकपा, माकपा, भाकपा (माल-ले) पर है, उतना ही शिक्षक बिरादरी पर भी है। विश्वविद्यालय से हमें जो मिला, उस पर मुझ जैसे पूर्व छात्र गर्व अनुभव करते हैं। हम मानते हैं कि एक लक्ष्मणरेखा होनी ही चााहिए और संस्थानों को राष्ट्रविरोधी और अलगाववादी गतिविधियोंका 'लॉन्च पैड' नहीं बनने दिया जाना चाहिए।
संदीप महापात्रा
(लेखक सन् 2000 में जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष रहे हैं)
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