|
अकादमिक क्षेत्र को अराजकता और आतंकी की पैरोकारी का अखाड़ा बनाने वालों ने देश की चिंता बढ़ाई है। इस शिक्षण संस्थान की गरिमा कायम रखने में सबको बंटाना होगा हाथ
अरुण श्रीवास्तव और पाञ्चजन्य ब्यूरो
देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल के मुख्यालय में एक पार्टी कार्यकर्ता अपने साथी से एक समाचार चैनल की एक खास खबर के बारे में पूछताछ कर रहा था। उस खबर में चैनल के एंकर ने जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) के एक छात्र उमर खालिद को खरी-खरी सुनाई थी। दरअसल, 9 फरवरी को जेएनयू में 'पोएट्री रीडिंग-द कंट्री विदाउट ए पोस्ट ऑफिस' नाम वाले 'सांस्कृतिक कार्यक्रम' के दौरान भारत को तोड़ने के नारे लगाए गए थे। भीड़, जिसमें माना जाता है कि कई बाहरी तत्व भी थे, ने संसद पर हमले में फांसी चढ़ाए गए आतंकी अफजल गुरू और कश्मीर के अलगाववादी और फांसी की सजा पाए मकबूल बट्ट के समर्थन में नारेबाजी की थी। चैनल पर विश्वविद्यालय का वह विद्यार्थी छात्रों की हिमायत कर रहा था जबकि समाचार उद्घोषक सियाचिन में शून्य से 40 डिग्री कम तापमान पर मद्रास रेजिमेंट के सिपाही हनुमंतप्पा के बलिदान की घटना के बारे में बात कर रहे थे। बहस के दौरान उद्घोषक ने भावावेश में उमर खालिद को खूब फटकार लगाकर उसकी बोलती बंद कर दी थी। समाचार की यह कतरन सोशल मीडिया पर तेजी से फैली और उद्घोषक की खूब वाह-वाह हुई। इससे आमजन की देश के प्रति उन भावनाओं का पता चलता है जिसका किसी राजनीतिक विचारधारा से कुछ लेना-देना नहीं है। जेएनयू में सांस्कृतिक आयोजन की आड़ में किया गया यह आपत्तिजनक आयोजन इस सारे बवाल की जड़ था। इस बात को तब नकारने वालों को भी दो दिन बाद अपनी राय वापस लेनी पड़ी। समाचार चैनलों और यू-ट्यूबपर उपलब्ध वीडियो संकेत कर रहे थे कि आमजन के गुस्से का प्रतिनिधित्व करते एंकर के ताव की पृष्ठभूमि उमर खालिद और उनके साथियों ने ही रखी थी। वैसे भी परिसर में अराजकता की आशंकाएं हफ्ताभर पहले से तैर रही थीं (देखें बॉक्स)।
नई दिल्ली के आइटी प्रोफेशनल अरविंद की कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं है, लेकिन वे कहते हैं, ''आज जेएनयू घटना पर किसी के भी विचार जान लीजिए, हर तीसरा आदमी कहेगा कि वहां जो कुछ हुआ, वह देश के लिए बुरा था।'' लोगों की ऐसी राय का कारण किसी का वैचारिक विरोध नहीं बल्कि वे नारे थे जिन्होंने देशभर की जनता को जेएनयू घटना के विरोध में खड़ा कर दिया। भारत के 'दस टुकड़े' करने की हांक लगाती और 'इंशाअल्लाह' पर हुमकती यह भीड़ देश की जनता को अखर गई। इस भीड़ में बाहरी लोगों की घुसपैठ (मफलर, रूमाल, शॉल लपेटे कई संदिग्ध चेहरों के आयोजन में अतिसक्रिय रहने की पुष्टि कई वीडियो से भी हुई) ऐसी बात थी जिसने लोगों की नाराजगी को साथ प्रशासन की चिंता बढ़ा दी।
अरविंद की तरह देशप्रेम और राष्ट्रवाद की भावना अब उन आमजनों में भी पूरे उफान पर है जो पहले जेएनयू छात्र संघ के नेता कन्हैया कुमार की राजद्रोह में गिरफ्तारी पर दिल्ली पुलिस की आलोचना कर रहे थे। घटना के दो दिन बाद परिसर में कन्हैया का भारतीय संविधान का सम्मान करने का दम भरता, चतुराई से दिया गया भाषण हो या टीवी चैनल पर खालिद का आयोजन के दौरान भड़काऊ बातें करने से इनकार, वामपंथी पैंतरे झूठे और भोथरे साबित होने लगे। मीडिया और समाज से उठी उंगलियां सीधे जेएनयू की ओर थीं।
कन्हैया भले न्यायिक हिरासत में है लेकिन कार्यक्रम के लिए अनुमति मांगते वाला और घटना के बाद टीवी बहस में नजर आया उमर खालिद 13 फरवरी से गायब है। पुलिस उसके अन्य आयोजक साथियों-नजली झा, अनिर्वाण भट्टाचार्य, अन्वेषा, अस्वाति, कोमल भरत मोहित, रियाजुल हक, रूबीना सैफ, भावना बेदी और वनज्योत सिन्हा लाहिरी आदि को भी तलाश रही है। दिसंबर के अंतिम सप्ताह में उसने अपने मोबाइल से अधिकतम फोन किए जिससे शंका व्यक्त की जा रही है कि वे उसने 9 फरवरी के कार्यक्रम के संदर्भ में किए थे।
देश के पहले प्रधानमंत्री के नाम पर स्थापित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी देश की राजधानी में अरावली पर्वत शृंखला में 1,000 एकड़ में फैली है। यहां पढ़ना उन छात्रों के लिए सपना होता है जो उच्च शिक्षा प्राप्ति का लक्ष्य लेकर आते हैं। यूनिवर्सिटी की वेबसाइट की भूमिका में कहा गया है, 'राष्ट्रीय अखंडता, सामाजिक न्याय, सर्वधर्म समभाव, जीवन का लोकतांत्रिक स्वरूप, अंतरराष्ट्रीय समझ एवं समाज की समस्याएं सुलझाने के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण के नेहरूवादी उद्देश्य विश्वविद्यालय की स्थापना के मूल में हैं जिन्होंने इसे लगातार स्वयं से प्रश्न करते हुए निरंतर ज्ञान प्राप्ति के उत्साही मार्ग पर प्रशस्त किया है।' सवाल यह कि खुद से प्रश्न करते हुए विश्वविद्यालय का माहौल देश विरोधी किसने बना दिया?
वैसे, शुरुआती दिनोें से ही विश्वविद्यालय का माहौल वाम विचारधारा से प्रेरित रहा है। वाम विचारधारा की ओर रुझान रखने वाले छात्र ही यहां छात्र संघ में नुमाइंदे बनकर सामने आते रहे हैं। हालांकि बाद में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (अभाविप) ने परिसर में अपनी पहचान बनाई। कई बार अभाविप ने छात्रसंघ में भी नुमाइंदगी हासिल की। परंतु कांग्रेस के छात्र संगठन कभी जेएनयू छात्र संघ (जेएनयूएसयू) में अपनी पहचान नहीं बना सके और न ही कांग्रेसी नेतृत्व ने कभी जेएनयू के मामलों में रुचि दिखाई।
दरअसल संस्थान में वामपंथ से इतर जुड़ाव रखने वाली छात्र राजनीति के लगातार हाशिए पर रहने के उदाहरण यहां इतने ज्यादा और साफ हैं कि अब इनसे कोई इनकार भी नहीं करता। खासकर जिन छात्रों का रुझान अभाविप जैसे वामपंथ के वैचारिक विरोधियों की ओर हो, उन्हें परिसर के शैक्षणिक माहौल में खास किस्म की उपेक्षा, अनमनापन और तिरस्कार झेलना पड़ा है।
राष्ट्रविरोधी आयोजन के बाद आरोपियों पर सरकारी कार्रवाई को लेकर जब अभाविप पदाधिकारियों में मतभिन्नता के कयास लगाए गए तो एक बार फिर ऐसी ही बातें सतह पर दिखीं। अभाविप का आरोप था कि संगठन से अलग रुख जताने के लिए परिसर में हावी राष्ट्रविरोधी तत्वों द्वारा उसके कार्यकर्ताओं पर दबाव बनाया गया। इस वर्ष 11 पार्षदों और एक संयुक्त सचिव के प्रतिनिधित्व के साथ अच्छा प्रदर्शन करने वाले अभाविप का दावा है कि उससे जुड़े छात्रों को वामपंथी शिक्षकों का सौतेला बर्ताव झेलना पड़ता है।
वैसे, इस सौतेलेपन के साथ परिसर राजनैतिक जुगलबंदी के खास प्रयोगों का पालना भी है। अफजल के लिए आंसू बहाने के बाद जेएनयू में ऐसा ही एक और प्रयोग देखने को मिला। लोकसभा चुनावों में जनता द्वारा दरकिनार किए जाने के बाद कांग्रेस अब राष्ट्रीय राजनीति में बने रहने के लिए हरसंभव प्रयास कर रही है। कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी हर तरह के विरोध मोर्चों और बैठकों में शामिल होते हैं और जेएनयूएसयू अध्यक्ष कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी के खिलाफ वामदलों के साथ भी वे विरोध प्रदर्शनों में दिखाई दिए। राहुल ने खुद को छात्रों के साथ खड़ा घोषित किया। उन्होंने कहा, ''राष्ट्रविरोधी क्या होता है? सबसे बड़े राष्ट्रविरोधी वे लोग हैं जो इस संस्थान की आवाज को दबा रहे हैं। आपको हर कदम पर उनसे सवाल पूछने चाहिए। एक युवा ने अपने विचार सामने रखे और सरकार कह रही है कि वह राष्ट्रविरोधी है।'' हालांकि आमतौर पर ऐसा होता नहीं लेकिन इस मुद्दे पर कई शीर्ष कांग्रेसी नेता दबी जबान में राहुल के आरोपियों के साथ नजर आने को गलत बता रहे हैं।
दिल्ली के एक कॉलेज में राजनीति विज्ञान पढ़ाने वाले उमेश कुमार का कहना है कि कांग्रेस ने अपने शासनकाल में कितने बेकसूर लोगों पर राजद्रोह का मुकदमा दायर किया, वह संभवत: इस तथ्य को भूल चुकी है। उमेश कहते हैं, ''उनके लिए तो असीम त्रिवेदी के कार्टून भी समाज में शांति व्यवस्था भंग कर देते थे, जिन्हें राजद्रोह के मामले में गिरफ्तार किया गया था।'' उनके अनुसार यह देश के प्रमुख विपक्षी दल का पाखंड है।
माकपा के नेताओं के बारे में भी यह बात साबित होती है कि उन्होंने शुरू में जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष की गिरफ्तारी को राष्ट्रीय स्तर पर उठाया लेकिन बाद में अपने सुर मद्धिम कर दिया। राष्ट्र विरोधी नारे लगाने के विवाद ने इसकी छात्र ईकाई के शामिल न होने का दावा करते हुए माकपा की केंद्रीय समिति के सदस्य बादल सरोज ने कहा, ''पहली बात, जिस गुट ने फरवरी को अफजल गुरु जिंदाबाद के नारे लगाए वह वामपंथ से जुड़े किसी भी छात्र संघ से नहीं था। दूसरी बात, माकपा से जुड़ी स्टूडेंटस फेडरेशन ऑफ इंडिया के इससे न जुड़ी होने के बावजूद, उन पर ऑल इंडिया स्टूडेंस एसोसियेशन के साथ ही कार्रवाई की गई। वैसे भी एसएफआई का परिसर में तीसरा स्थान है। वाम समर्थित छात्र संघों ने पहले ही खुद को जेएनयू के इस मुद्दे से अलग कर रखा है। उनका उस गुट से कुछ भी लेना देना नहीं है। और तीसरी बात, इससे जुड़े उचित अधिकारियों को जांच करके कार्रवाई करने दी जाए। इसकी बजाए भाजपा ने अपनी छात्र इकाई अभाविप के परिसर में और इंडिया गेट पर प्रदर्शनों के बाद मामले को राजनीतिक रंग देना शुरू कर दिया। जो छात्र अफजल गुरु के नारे लगाने में शामिल नहीं थे पुलिस ने उनका नाम भी दर्ज किया है।''
अदालत परिसर में हुड़दंगियों की हरकतों को अपनी आंखों से देखने वाले हरीश कुमार कहते हैं, ''कन्हैया कुमार के मामले की पिछली दो सुनवाइयों में पटियाला हाउस परिसर में जो भी हुआ, वह आम लोगों की भावनाओं के उन्माद का नतीजा था जो अपने देश से इतनी गहराई से प्यार करते हैं कि कोई भी राष्ट्रविरोधी गतिविधि उनकी भावनाओं को इतनी बुरी तरह आहत कर जाती है कि वे कानून को हाथों में लेने का अतिवादी कदम उठाने से भी नहीं हिचकिचाते।''
वे जोड़ते हैं, ''आप पत्रकारों, छात्रों और शिक्षकों पर हमले को सिर्फ यह कहकर उचित नहीं ठहरा सकते कि यह भावनाओं का भड़कना था अथवा देश से प्यार, लेकिन हम जैसे लोगों के लिए राष्ट्र विरोधी नारे भारत माता पर चोट के समान हैं।''
17 फरवरी को जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को उसके कथित भारत विरोधी नारों के चलते काला कोट पहने वकीलों की अनियंत्रित भीड़ ने बेरहमी से मारा था। वकीलों की हरकतों को कैमरे में कैद करने की कोशिश कर रहे पत्रकारों को भी उनके गुस्से का निशाना बनना पड़ा. ये वकील उन सबको सबक सिखाने पर तुले हुए थे जो उनकी नजर में 'देशविरोधियों' का साथ दे रहे थे। बहरहाल समाज के दूसरे तबकों ने पटियाला हाउस अदालत की घटना को हरीश की तरह नहीं लिया। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने ट्वीटर पर लिखा, ''मीडिया को बेझिझक खबरें देने का अधिकार है। पत्रकारों पर हमला अत्यधिक गलत और निंदनीय है।'' पटियाला हाउस अदालत की हिंसक घटना पर योगेन्द्र यादव ने ट्वीट किया, ''निस्संदेह यह राष्ट्रीय शर्म का विषय है। राजधानी के बीचोबीच हुड़दंग देश का मजाक बनाता है।''
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को भी दिल्ली पुलिस पर ट्वीटर हमले का मौका मिल गया। उन्होंने लिखा, ''दिल्ली पुलिस खुलेआम सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों की अवेहलना कर रही है। बस्सी बेहद अखक्ड़पन के साथ काम कर रहे हैं। उन्हें उनके आकाओं से क्या आदेश मिले हैं?'' सर्वोच्च न्यायालय ने भी पूरे विवाद पर अपना गुस्सा जाहिर किया। न्यायमूर्ति जे.चेल्लमेश्वर और ए.एम. सप्रे की पीठ ने घटना की सुनवाई के दौरान कहा, ''इन दिनों यह आम है। वकीलों सहित सभी संबंधित पक्ष संयत होकर काम करने के बारे में सीखें। एकदम चरम नजरिया अपनाने और इसके नतीजों की परवाह किए बिना उस पर डटे रहने का एक चलन दिखता है।'' पीठ ने बहस कर रहे वकीलों से भी पूछा, ''अदालत परिसर में मौजूद लोगों द्वारा लगाए भारत विरोधी व अफजल समर्थक नारों के विरुद्ध शिकायत करने कोई क्यों नहीं आया?''
इस बीच कन्हैया कुमार सबको लगातार चौंका रहे हैं। पटियाला हाउस प्रकरण के बाद वे घबराए हुए हैं, यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन अपने बयानों से वे लगातार ऐसे दिख जरूर रहे हैं। मेट्रोपोलिटन मजिस्टे्रट के सामने अपने लिखित बयान में किसी भी भारत विरोधी गतिविधि में शामिल होने से इंकार करने वाले कन्हैया ने चंद रोज बाद ही अपने जीवन पर खतरे की आशंका जताते हुए सुरक्षा और जमानत के लिए सवार्ेच्च न्यायालय में गुहार लगाई जो नाईंजूर भी हो गई।
दुनियाभर के अखबारों ने जेएनयू विवाद और पुलिस कार्रवाई की खबरें छापी हैं। 'द गार्जियन' और 'न्यूयॉर्क टाइम्स' ने इसे प्रमुखता से प्रकाशित किया है। उत्तर प्रदेश के एक डिग्री कॉलेज के डीन ने अपना नाम न छापने की शर्त पर कहा, ''बेशक इस पूरे विवाद ने अंतरराष्ट्रीय ख्याति के संस्थान के लिए अपमान न्यौता है लेकिन सवाल है कि इस दुखद घटना से आगे कैसे बढ़ा जाए? और इससे बढ़कर यह सवाल कि परिसर में अव्यवस्था फैलाने-फैलने देने और पढ़ाई के सबसे जरूरी काम में अड़चन डालने का कौन ज्यादा दोषी है, मुट्ठीभर शिक्षक या कुछ छात्र? उच्च शिक्षा संस्थानों का दायित्व ज्ञान देना है न कि राष्ट्रविरोध की शिक्षा रोपना।''
'अपने लोगों' की अगुआई में जेएनयू की किरकिरी का यह मामला ऐसा है जो अन्य संगठनों के अलावा विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रों को भी गहरे आहत कर गया। सोशल मीडिया पर पूर्व छात्रों की टिप्पणियों और समाचार पत्रों में आए कुछ आलेखों से लगा कि संस्थान से आत्मीय संबंध और यहां की छात्र राजनीति एक ही बात नहीं है। विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रों ने भारतीय महिला प्रेस कोर (आईडब्ल्यूपीसी) में एक संवाददाता सम्मेलन में विवि के पूर्व छात्र एवं सांसद उदित राज ने कहा कि जेएनयू प्रतिष्ठित संस्थान है। यहां से पढ़कर निकले छात्र आज देश का नाम रोशन कर रहे हैं। लेकिन कुछ भ्रमित छात्रों ने 9 फरवरी को देशविरोधी गतिविधियों को अंजाम दिया जो निंदनीय है। पूर्व छात्र इस घटना की निंदा करते हुए निष्पक्ष जांच चाहते हैं। लखनऊ के अलीगंज में जेएनयू के पूर्व छात्रों के संगठन (एक्स जेएनयूआइट फोरम) की एक ऐसी ही बैठक में डॉ. वी.के. सिंह ने आरोपियों के विरुद्ध केंद्र सरकार और पुलिस एजेंसियों की जांच का समर्थन किया। बैठक में शामिल पूर्व छात्र इस बात पर सहमत थे कि 9 फरवरी की घटना ने संस्थान की गरिमा को चोट पहुंचाई है और इस प्रकरण में शामिल शिक्षकों और संगठनों की गहन जांच की जानी चाहिए। जेएनयू संकट का ऐसा क्या हल हो कि शरारती लोग फिर से संकट खड़ा न कर पाएं? अभाविप के राष्ट्रीय संगठन मंत्री सुनील आंबेकर ने एक आर्थिक राष्ट्रीय दैनिक को दिये साक्षात्कार में कहा कि, ''हमें हमारे विश्वविद्यालयों में अकादमिक आजादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पक्की करनी होगी। लेकिन इसका व्याप कितना होगा? आप विचारों, नीतियों और सरकार तक का विरोध कर सकते हैं, इसमें कोई मुद्दा नहीं है लेकिन यह इससे आगे नहीं जा सकता। आप राष्ट्र के विचार के विरोध के स्तर तक नहीं जा सकते। हमें इसके लिए कुछ कायदे तक करने होंगे कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संदर्भ में कोई किस हद तक जा सकता हैं? अगर आइसीएसएसआर के पैसे से भारत विरोधी सेमिनार आयोजित किए जाते हैं। तो यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है ''
मुद्दा गरम है और ऐसे में भाजपा नेता सुब्रहमण्यम स्वामी भी अपना एक समाधान लेकर आए। उन्होंने जेएनयू को बंद करने और सभी छात्रावासों को निथारने का आह्वान कर दिया। उन्होंने कहा, ''जेएनयू को चार महीने के लिए बंद कर देना चाहिए और छात्रों से भारत के संविधान को सर्वोच्च रखने संबंधी प्रतिवेदन पर हस्ताक्षर के बाद ही ऐसा करने वालों को वापस आने की अनुमति देनी चाहिए।'' बेशक यह उनकी सोच है।
बहरहाल आरोपियों पर फैसले और बहस के इस सिलसिले में पहलवान योगेश्वर दत्त का 'छंद दांव' जेएनयू के अखाड़े में नई धूल उठा गया है। इसके बोल हैं –
गजनी का है तुम में खून भरा जो तुम अफजल का गुण गाते हो, जिस देश में तुमने जन्म लिया उसको दुश्मन बतलाते हो!
भाषा की कैसी आजादी जो तुम भारत मां का अपमान करो, अभिव्यक्ति का ये कैसा रूप जो तुम देश की इज्जत नीलाम करो!
अफजल को अगर शहीद कहते हो तो हनुमन्थप्पा क्या कहलायेगा, कोई इनके रहनुमाओं का मजहब मुझको बतलायेगा!
अपनी मां से जंग करके ये कैसी सत्ता पाओगे, जिस देश के तुम गुण गाते हो, वहां बस काफिर कहलाओगे!
हम तो अफजल मारेंगे तुम अफजल फिर से पैदा कर लेना, तुम जैसे नपुंसको पे भारी पड़ेगी ये भारत सेना! ….
एक ओर वामपंथी वैचारिकता के
छलावे हैं दूसरी तरफ जनता का मन छूते देसी छंद… लगता है जेएनयू में दशकों बजती रही राष्ट्रद्रोह की 'ढपली' अब पूरे देश को खलने लगी है।
बात तो बढ़नी ही थी
2 फरवरी-आतंकी अफजल के समर्थन में पर्चे बंटे।
8 फरवरी-हॉस्टल की दीवार पर पोस्टर चिपकाया गया कि 9 फरवरी को 5 बजे साबरमती ढाबे पर सांस्कृतिक संध्या आयोजित की जाएगी।
9 फरवरी-अभाविप ने प्रशासन से शिकायत की, कार्यक्रम का विरोध किया जिसके बाद प्रशासन ने कार्यक्रम को दी गई अनुमति रद्द कर दी। लेकिन शाम करीब 5 बजे जबरन कार्यक्रम आयोजित किया गया उस कार्यक्रम में वक्ता ने भारत की अखण्डता को चुनौती दी और कश्मीर तथा उत्तर पूर्व की 'आजादी' का समर्थन किया, भारत विरोधी नारे लगाए। करीब 6.30 बजे साबरमती से गंगा ढाबा तक जुलूस निकालना शुरू किया और नारे लगे-'भारत के 10 टुकड़े होंगे, इंशाल्लाह-इंशाल्लाह', 'कश्मीर की आजादी तक-भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी', 'अफजल तेरे अरमानों को मंजिल तक पहंुचाएंगे', 'कितने अफजल मारोगे, हर घर से अफजल निकलेगा', 'पाकिस्तान जिंदाबाद, भारत मुर्दाबाद'।
अभाविप ने इसका विरोध किया तो कार्यक्रम समर्थकों- वामपंथी गंुडों ने उन्हें पीटा। अहम चीज यह थी कि कार्यक्रम में ज्यादातर लोग बाहरी थे, रैली का नेतृत्व जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कर रहा था, उसने गंगा ढाबे पर रैली को संबोधित किया। देर रात अभाविप ने वसंत कुंज थाने में शिकायत दर्ज कराई।
10 फरवरी-अभाविप ने प्रशासनिक भवन के सामने 2.30 बजे विरोध प्रदर्शन का आह्वान किया और मांग की कि कार्यक्रम के आयोजकों और कुछ वामपंथी समर्थकों को निरुद्ध किया जाए।
11 फरवरी-अभाविप ने सुबह 10 बजे भारतीय झंडे के साथ सभी स्कूलों के आस-पास से रैली की। तमाम वाम दलों ने भी अभाविप के विरुद्ध दोपहर 2.30 बजे प्रशासनिक भवन पर विरोध प्रदर्शन आयोजित किया।
12 फरवरी-एक भाकपा नेता परिसर में आया जिसने वामपंथी शिक्षकों और छात्रों को संबोधित किया और शाम 6 बजे पूरे परिसर में विरोध रैली निकाली। अभाविप ने रात 9.30 बजे जेएनयू4नेशनलिज्म के बैनर तले रैली निकाली। छात्रों ने भी समर्थन दिया।
13 फरवरी-सीताराम येचुरी, डी. राजा, राहुल गांधी और आनंद शर्मा परिसर में आए, छात्रसंघ अध्यक्ष की गिरफ्तारी का विरोध किया, शाम 6 ये 8 बजे के बीच अभाविप ने राहुल गांधी को काले झंडे दिखाए।
14 फरवरी-जेएनयू शिक्षक संघ ने हड़ताल का आह्वान किया और छात्रों से कक्षाओं का बहिष्कार करने की अपील की, शाम को देशभर के वाम समर्थकों ने परिसर में मानव शृंखला बनाई, आरोपी छात्र के निलम्बन को निरस्त करने की मांग की।
15 फरवरी-जेएनयू स्टाफ एसोसिएशन ने अभाविप के दृष्टिकोण का समर्थन किया और पुलिस कार्रवाई को सही बताया। अभाविप ने शाम 5.30 बजे गंगा ढाबे से चंद्रभागा तक एकजुटता रैली का आह्वान किया।
'देश पर समझौता नहीं'
देश के प्रति दायित्व के संबंध में अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर कुछ भी बोलना एक बेमानी कार्य है। भारत ने अभिव्यक्ति की आजादी को हमेशा महत्व दिया है। लेकिन देश के देशभक्त नागरिक किसी को देश की एकजुटता और संप्रभुता से समझौता करने की इजाजत नहीं देंगे। आंदोलन के नाम पर उन लोगों द्वारा एक दिखावा आयोजित करने की इजाजत नहीं दी जा सकती जिनको बाहर से पट्टी पढ़ाई जाती हो और नियंत्रित किया जा रहा हो। इसमें संदेह नहीं कि जेएनयू एक प्रतिष्ठित संस्थान है। लेकिन हाल के दिनों में इसे कट्टरवादियों, वाम उग्रवादियों, आतंकवादियों और जातिवादी ताकतों की पनाहगाह के रूप में बदला जा चुका है। सभी नागरिकों को पार्टीगत, जातिगत और पांथिक खेमों से परे होकर ऐसी ताकतों के खिलाफ एकजुट होना होगा। — जे़ नंदकुमार, अ़ भा़ सह प्रचार प्रमुख, रा़ स्व़ संघ
कौन है उमर खालिद?
जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी में अफजल की फांसी के विरुद्ध अनेक टीवी चैनलों में जिस व्यक्ति को दिखाया जा रहा था वह है उमर खालिद जो बिहार मूल का है और डीएसयू वाम समूह का चरमपंथी सक्रिय कार्यकर्ता है। बेशक वह एक मुसलमान परिवार में पैदा हुआ है लेेकिन अपनी पहचान नास्तिक बताता है। वह जेएनयू के सामाजिक विज्ञान विभाग में शोधार्थी है। उसी ने इस कार्यक्रम की अनुमति के लिए आवेदन किया था और कुख्यात आतंकवादी अफजल तथा 70 के दशक में कश्मीर में अलगाववादी आंदोलन चलाने वाले मकबूल बट्ट के महिमामंडन को सांस्कृतिक संध्या का नाम दिया। जब उसे अनुमति नहीं मिली तो उसने डीएसयू कार्यकर्ताओं के साथ मार्च निकाला जो सारे फसाद का केन्द्र बना। गुप्तचर ब्यूरो के एक विश्वस्त सूत्र के अनुसार उमर को जैशे मोहम्मद के प्रति सहानुभूति रखने वाला बताया जाता है। ऐसी भी सूचनाएं हैं कि वह पाकिस्तान आता-जाता रहा है। फोन रिकार्ड्स बताते हैं कि 3 से 9 फरवरी के बीच उसने करीब 800 कॉल कीं। उसने जम्मृ-कश्मीर में उसने 38 फोन किए और 65 फोन सुने। 3 नंबरों पर उसने लगातार फोन मिलाए, उनमें से एक कश्मीर केन्द्रीय विश्वविद्यालय में किया गया था। उसने खाड़ी देशों और बंगलादेश से आए फोन भी सुने। उसके पिता सैयद कासिम, जो वेलफेयर पार्टी ऑफ इंडिया के अध्यक्ष हैं, ने आरोप लगाया है कि मुसलमान होने के कारण उनके बेटे निशाना बनाया गया है।
'जांच के बाद देश विरोधियों को सजा मिले'
जेएनयू में 9 फरवरी की रात को हुए पूरे प्रकरण के साक्षी जेएनयू छात्र संघ के संयुक्त सचिव श्री सौरभ कुमार शर्मा हैं। वह उन छात्रों और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं में शामिल थे। जिन्होंने इस घटना के खिलाफ विरोध दर्ज कराया। ऑर्गनाइजर के वरिष्ठ संवाददाता प्रमोद कुमार ने उनसे उस रात और उसके बाद हुए प्रकरण पर बात की।
इस घटना की पहले से आशंका थी?
9 फरवरी को दिन में 12 बजे हमने जब परिसर में इस आयोजन से संबंधित पोस्टर देखा तो हमने तुरंत ही कुलपति सूचित कर दिया कि यह एक राष्ट्र विरोधी कार्यक्रम। उपकुलपति, प्रोक्टर, रजिस्ट्रार, डीन ऑफ स्टूडेंटस और सुरक्षा अधिकारियों को पूर्व सावधानी के तौर पर आग्रह किया। रात में मैंने बसंतकुंज नार्थ के पुलिस स्टेशन के थाना प्रभारी को भी इस बारे में सूचना दी और साथ ही इस घटना की जांच की मांग की।
पोस्टर में ऐसा क्या था?
पोस्टर मुख्य रूप से कश्मीर को भारत से अलग करने, अफजल की फांसी और मकबूल भट्ट की न्यायिक मौत से संबंधित विषय थे। पहली नजर में ही इसमें राष्ट्र विरोध की बू आ रही थी। लेकिन कार्यक्रम की अनुमति तो सांस्कृतिक आयोजन के रूप में मांगी गई थी? आश्चर्य था कि विवि प्रशासन ने उन्हें ऐसी अनुमति कैसे दे दी ? पता लगा कि इनको यह अनुमति एसोसिएट डीन ऑफ स्टूडेंट्स सुश्री महालक्ष्मी ने दी थी। लगभग पांच बजे मैंने सुना कि कुलपति ने इस आयोजन की अनुमति रद्द कर दी है। उसके बाद भी हम लोग वहां गए क्योंकि हमें शंका थी कि वे आयोजन को नहीं रोकेंगे। साबरमती ढाबे में उन्होंने कार्यक्रम शुरू कर दिया। क्योंकि कार्यक्रम की अनुमति रद्द हो गई थी तो इसे परिसर में कहीं भी आयोजित करना अवैध था। जैसे ही उन्होंने कार्यक्रम शुरू किया हमने विरोध शुरू कर दिया। वे भारत विरोधी नारे लगा रहे थे जबकि हम भारत माता की जय के नारे लगा रहे थे।
आपने पिस्तौल दिखाने की बात कही?
दोनों ओर से नारेबाजी शाम 7:30 बजे तक चलती रही। इसके बाद उन्होंने कैंडल मार्च शुरू किया और हमारे साथ खड़ी छात्राओं पर फब्तियां कसी। जब हमने रोका तो उनकी ओर की छात्राओं ने हिंसक झड़प शुरू की। इसके वीडियो फुटेज हैं। उनमें से एक ने पिस्तौल दिखाकर मुझे जान से मारने की धमकी दी। जब हमने उसे पहचानने की कोशिश की तो वह भीड़ के साथ मिल गया। हमारे कई कार्यकर्ता झड़प में घायल भी हुए जिनमें बहुत लड़कियां थीं। वे नौ बजे के गंगा ढाबा पहुंचे जहां उन्होंने भड़काऊ भाषण शुरू कर दिए और फिर भारत विरोधी नारे लगाकर चिल्लाना शुरू कर दिया। जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार, महासचिव रामा नागा और भाकपा नेता डी राजा की बेटी अपराजिता भी वहां उपस्थित थी।
क्या सभी जेएनयू के छात्र थे या उनमें कुछ बाहरी भी शामिल थे ?
कई लोग शामिल थे जिनमें लड़कियां भी थी और उन्होंने अपने चेहरे ढके हुए थे।
ल्ल यह प्रकरण 9 फरवरी का है लेकिन इस पर लोगों का ध्यान दो दिन बाद गया ऐसा क्यों हुआ ?
जी न्यूज ने इसे प्रकरण को उसी दिन चला दिया था। बाद में कुछ अन्य चैनलों ने भी ध्यान दिया। ऐसी घटना राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए एक बड़ी चुनौती है।
ल्ल क्या आयोजन के समय कुछ शिक्षाविद भी वहां उपस्थित थे ?
मैंने तो किसी को नहीं देखा लेकिन जेएनयू शिक्षक संघ के अध्यक्ष अजय पटनायक, कविता कृष्णन, अनुराधा चिनॉय, कमलमित्र चिनॉय इनमें शामिल थे। वे सभी वीडियो फुटेज में देखे जा सकते हैं। खास बात यह कि परिसर में इस घटना की निंदा करते हुए 10 और 11 फरवरी तक भी कोई मार्च नहीं निकाला गया। लेकिन जब पुलिस ने कन्हैया कुमार को गिरफ्तार किया तो वे सब सक्रिय हो गए। यह बात दिखाती है कि वे पूरी तरह से राष्ट्रविरोधी गतिविधियों का समर्थन कर रहे थे। ऐसे कुछ प्राध्यापकों ने अतीत में भी ऐसे गतिविधियों का समर्थन किया है। उन्होंने ऐसे विवादास्पद विषयों पर संगोष्ठियां और चर्चाएं आयोजित की हैं। उन्होंने जेएनयू की प्रतिष्ठा को धूमिल करने की कोशिश की है। लेकिन हमने ऐसे तत्वों को उनका योजनाबद्ध खेल खेलने के लिए कोई ठोस कार्यवाही नहीं की।
आज जेएनयू की साख पर बट्टा लगता हुआ दिखाई दे रहा है ?
जेएनयू में अधिकांश छात्रों और शिक्षाविदो का एक वर्ग है जो राष्ट्रवादी है केवल कुछ बाहरी हाथों से खेलने वाले और बाहरी समर्थन से चलने वाले लोग इस प्रतिष्ठित संस्थान की प्रतिष्ठा को धूमिल कर रहे हैं।
ऐसे तत्वों को राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल का समर्थन मिलने को आप किस तरह देखते हैं ?
केवल राहुल या केजरीवाल नहीं, सीताराम येचुरी, डी राजा और आनंद शर्मा जैसे लोगों ने भी इस घटना से राजनैतिक स्वार्थ साधने की कोशिश की है।
केंद्र सरकार से क्या अपेक्षा करते हैं ?
सरकार को अपराधियों को उचित सजा देनी चाहिए। जिनके नाम पोस्टर में थे और जो भारत विरोधी नारे लगाते हुए वीडियो में दिख रहे हैं अथवा जिन्होंने अपने चेहरे ढककर इसमें भाग लिया है उन सब को सजा मिलनी चाहिए। इसके साथ ही हम सरकार से यह भी आग्रह करेंगे कि किसी भी निर्दोष का उत्पीड़न न हो। लेकिन यदि अपराधियों को बिना सजा के छोड़ दिया गया तो ऐसी गतिविधियां देश के अन्य हिस्सों में भी बढ़ती हुई मिलेंगी।
पर्दाफाश बाकी है
वर्तमान में जो परिदृश्य दिख रहा है वह गहरे षड्यंत्र का हिस्सा है। वे लोग जानते हैं कि वर्तमान सरकार सकारात्मक बदलाव के प्रति पूरी तरह गंभीर है। इस तरह के बेकार के मामले को तूल देकर यह विकास के क्रम को पटरी से उतारने की कोशिश है। बाहरी तत्वों के शामिल हुए बिना ऐसा होना संभव नहीं है क्योंकि अंदर के लोग अकेले ऐसा करने का साहस नहीं कर सकते। ऐसे कुछ लोगों का पर्दाफाश हो चुका है और कुछ का होना बाकी है। देश का कानून अपना काम कर रहा है और विश्वविद्यालय भी मामले की जांच कर रहा है। विवि में 8500 छात्र,1500 कर्मचारी, 650 प्रोफेसर हैं। महज 40 लोग ही हैं जो बेकार में शोर मचा रहे हैं। उन्होंने हड़ताल का आह्वान किया, लेकिन अधिकांश कर्मचारियों और प्रोफेसरों ने उनका साथ नहीं दिया। छात्र भी पढ़ाई करना चाहते हैं। कर्मचारियों ने लिखित में दिया है कि वे ऐसी परिस्थिति में भी काम करना चाहते हैं। मुट्ठीभर लोगों को व्यवस्था को बिगाड़ने की अनुमति नहीं दी जाएगी।
— प्रो. हरीराम मिश्र
अध्यक्ष, संस्कृत विभाग
मुद्दे का राजनीतिकरण न हो, दोषियों को दंड मिले
इस पूरे प्रकरण के चलते जेएनयू के हम सभी लोग आहत हुए हैं। जो भी हुआ वह बहुत शर्मनाक है। इस मुद्दे का राजनीतिकरण किए जाने की बजाए सभी को साथ मिलकर इससे निबटना चाहिए। हम सभी सहकर्मियों का मानना है कि जो भी लोग इसमें शामिल हैं, उन्हें इसके लिए दंड मिलना चाहिए। हमने कुलपति से भी इस संबंध में आग्रह किया है। खालिद इस मामले का मुख्य आरोपी है। वह जब तक गिरफ्तार नहीं होता तब तक यह पता नहीं लगेगा कि इस पूरे प्रकरण के पीछे कौन सा समूह है।
— रजनी वैद्य, परीक्षा नियंत्रक कार्यालय, मुख्य सचिव, एससी एसटी कर्मचारी संघ
दबाव मासूम छात्रों पर
इस पूरे प्रकरण के पीछे भारत के कथित सेकुलर बुद्धिजीवी हैं। पूरा राष्ट्र उन्हें देख रहा है। वे इसका विरोध नहीं कर रहे थे बल्कि मौन रहकर इसका समर्थन कर रहे थे कि हड़ताल को खत्म करने की जरूरत है क्योंकि 90 प्रतिशत छात्र और प्रोफेसर चाहते हैं हड़ताल खत्म हो। यही नहीं, ये भावनात्मक रूप से मासूम छात्रों पर दबाव बना रहे हैं जिनमें से ज्यादातर ग्रामीण क्षेत्रों से आते हैं। उन्होंने उनके दिमाम में फितूर भर दिया है और उन्हें अपने गुट के जरिए काम दिलाने का भी लालच दिया है। जेएनयू का प्रोफेसर होने के नाते मैं मांग करता हूं कि पूरे मामले की न्यायिक जांच कराई जाए। छात्रों का एक गुट और कुछ कथित प्रोफेसर इस मामले में दोषी हैं। उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए।
— डॉ. बुद्धा सिंह, कंप्यूटर विज्ञान
कन्हैया यह बनने आया था?
आज जैसा हमने जेएनयू में देखा वह यहां वर्षों से हो रहा है। इस बार लोगों को जानकारी हुई क्योंकि वीडियो लोगों के सामने आ गया। जो लोग किसी विचारधारा से प्रेरित नहीं हैं, जैसे वैज्ञानिक, वे कभी कक्षाओं का बहिष्कार नहीं करते। वे और उनके छात्र प्रयोगशाला में हैं। हमें इस बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए कि बिहार से आकर यहां पढ़ाई कर रहा कन्हैया गलियों में पिटने के लिए यहां नहीं आया था। वह गरीब परिवार से है और यहां कुछ महत्वाकाक्षाएं लेकर आया था। वे कौन से प्रोफेसर हैं जिन्होंने उसे ऐसा बनाया? ये दुख की बात है कि जिन प्रोफेसरों को छात्रों को बेहतर भविष्य बनाने के लिए तैयार करना चाहिए वे उन्हें इस तरह के जाल में फंसाते हैं।
— प्रो. उत्तमपति, डीन, बायोटेक्नोलॉजी
टिप्पणियाँ