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भारत में राजद्रोह कानून से जुड़े कई अनजाने पहलू हैं। सुप्रीम कोर्ट का केदारनाथ विरुद्घ बिहार राज्य (एआइआर 1962 एससी 955) से जुड़ा फैसला इनमें से एक है।
एक राष्ट्रीय समाचार पत्र में 16 फरवरी, 2016 को लॉरेंस लियांग ने अभिव्यक्ति की आजादी के बारे में लिखा,''शब्द कितने भी अनिष्टकारी हों, राजद्रोह के दायरे में नहीं आते।'' एक अन्य वकील कोलिन गोंजाल्वेस ने एक और समाचार पत्र में 12 फरवरी को लिखा कि कोई भी अपराध राजद्रोह तब होता है जब ''राज्य के खिलाफ कहे गए शब्दों के साथ सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए हिंसक कार्रवाई भी शामिल हो।'' एक और वकील प्रशांत भूषण ने कहा कि राजद्रोह का अपराध तभी स्थापित किया जा सकता है ''जब हिंसा या जन व्यवस्था के लिए उकसावा हो।''और कपिल सिब्बल के अनुसार इसमें ''सरकार को उखाड़ फेंकने की नीयत''होनी चाहिए।
ये सभी कथित व्याख्याएं सही नहीं हैं
जरूरी है कि केदारनाथ मामले के तथ्यों को फिर से देखा जाए। एक अपील (आपराधिक अपील 169/57) में केदारनाथ का 'सीबीआई के कुत्तों' और 'कांग्रेसी गुंडों' का जिक्र करते हुए 'बयान' था, जिसमें केदारनाथ ने उनके 'सफाये' की बात कही थी और यह भी कि ''हम क्रांति में विश्वास रखते हैं जो जरूर आएगी'' और ''देश को लूटने वालों को राख में मिला दिया जाएगा और भारत में गरीबों और पिछड़ों की सरकार बनेगी।'' इस आधार पर केदारनाथ को भारतीय दंड विधान की धारा 124ए के तहत राजद्रोह में आरोपित किया गया।
यदि लियांग का कथन ''शब्द कितने भी अनिष्टकारी हों, वह राजद्रोह के दायरे में नहीं आते'' सही है तो केदारनाथ रिहा कर दिए जाते। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उनकी सजा कायम रखी। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार अदालत उसके समक्ष रखे गए इस दावे से सहमत नहीं थी कि केदारनाथ के शब्द ''राजद्रोह की परिभाषा के दायरे में'' नहीं आते। सो, अपील खारिज कर दी गई।
सवार्ेच्च न्यायालय द्वारा दी गई व्याख्या पर विमर्श से पहले केदारनाथ मामले के एक अन्य महत्वपूर्ण पक्ष पर विचार जरूरी है। सवार्ेच्च न्यायालय के सामने ''सरकार के विरुद्घ जनता में घृणा व द्वेष की भावनाओं को उकसाने की मंशा'' से जुड़े 'भाषणों' से जुड़ी दो अन्य अपीलें भी थीं। इनमें अभियुक्तों पर धारा 124ए के तहत मामला दायर किया गया था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 124ए से जुड़े मामलों को अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत अधिकारातीत कह कर खारिज कर दिया था। लियांग की राजद्रोह कानून की व्याख्या के अनुसार इसके विरुद्ध अपीलों को रद्द किया जाना चाहिए था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपीलें रद्द करने की बजाए राजद्रोह के मामले को अपने फैसले के परिप्रेक्ष्य में विचार करने के लिए उच्च न्यायालय को भेज दिया और यह निर्णय करने को कहा कि क्या वे भाषण राजद्रोह की श्रेणी में आते थे।
इसलिए यह जानना जरूरी है कि सवार्ेच्च न्यायालय ने क्या व्यवस्था दी है। सवार्ेच्च न्यायालय के सामने राजद्रोह के बारे में संघीय अदालत और प्रिवी काउंसिल के परस्पर विपरीत फैसले थे, लेकिन उसने धारा 124ए के तहत अपराध के संघीय अदालत के निर्णय को स्वीकार किया। संघीय अदालत का कहना था यदि ''शब्दों, कृत्यों और लेखन से'' अव्यवस्था तथा अशांति फैलती है, या दूसरों को ऐसा करने के लिए भड़काया जाता है तो वे राजद्रोह के दायरे में आते हैं।'' इस तरह सुप्रीम कोर्ट ने कानून के बारे में निर्णयात्मक शब्दों में कहा, ''हमें इन मामलों में खारिज की गई इस धारा के प्रावधानों को अव्यवस्था फैलाने की 'नीयत' या 'प्रवृत्ति' या कानून-व्यवस्था में व्यवधान डालने या हिंसा को बढ़ावा दिए जाने से संबद्ध करने में कोई झिझक नहीं है।''
राजद्रोह को 'जनहित को देखते हुए' अपराध की श्रेणी में रखा गया है, जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़ी एक सीमा भी है। सुप्रीम कोर्ट के शब्दों में, ''यह अदालत नागरिकों के मूलभूत अधिकारों की रक्षक व उनके प्रति जिम्मेदार है और इसे अधिकार है कि वह ऐसे किसी भी कानून पर रोक लगाए जो अभिव्यक्ति की आजादी में रुकावट बनता है। लेकिन इस आजादी की विधि द्वारा स्थापित सरकार की ऐसे शब्दों से बदनामी और उसे कलंकित करने का लाइसेंस बनने से रक्षा करनी होगी जो हिंसा को बढ़ावा देते हों या जिनमें सार्वजनिक अव्यवस्था फैलाने की 'प्रवृत्ति' हो।'' संघीय अदालत ने भी ठीक ऐसा ही कहा था।
इसलिए यह कहना गलत होगा कि राजद्रोह तभी साबित होता है जब ''हिंसा अथवा अव्यवस्था को भड़काया जाए।'' केवल हिंसा या अव्यवस्था को भड़कावा देने से ही राजद्रोह का अपराध नहीं बनता, बल्कि इससे इतर सार्वजनिक अव्यवस्था फैलाने की 'प्रवृत्ति' भी इस मायने में उतनी ही जिम्मेदार होती है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो जनता को भड़काना ही राजद्रोह के दायरे में नहीं आता बल्कि अव्यवस्था फैलाने की आशंका भी उतनी ही राजद्रोह के दायरे में आती है।
सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह को पारिभाषित करते हुए इंग्लैंड के कानून पर स्टीफन की टिप्पणी को उद्घृत किया था, ''हम ऐसे व्यवहार को लेकर चिंतित हैं जो एक ओर तो देशद्रोह से कुछ ही कम है और दूसरी ओर उसमें हिंसा या ताकत का इस्तेमाल नहीं है। कानून को निजी आलोचना से सामंजस्य बैठाते हुए राज्य की सुरक्षा और स्थायित्व की रक्षा करनी होगी़.़ …राजद्रोह शब्दों, कृत्यों या लेखन के द्वारा भी किया जा सकता है।''
केवल बुरी नीयत से भी राजद्रोह आरोपित किया जा सकता है. केदारनाथ मामले में लगाए गए आरोप दिखाते हैं कि राजद्रोह न तो सिर्फ अव्यवस्था की 'आसन्न' अवस्था थी और न ही वह 'मुंह बाए खड़ा खतरा' ही था।
यहां चार और मुद्दों पर विचार करना जरूरी है। कहा जा रहा है कि धारा 124ए को लोकमान्य तिलक और महात्मा गांधी को जेल भेजने के लिए इस्तेमाल किया गया और इन महान भारतीयों के विरुद्ध इस धारा का इस्तेमाल इसके दुरुपयोग का प्रमाण है। लेकिन जिस आधार पर तिलक को सजा दी गई, अनुच्छेद के उन प्रावधानों को सुप्रीम कोर्ट ने नकार दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने न केवल प्रिवी काउंसिल की बजाय संघीय अदालत की व्याख्या को माना बल्कि अनुच्छेद 19 (1) (ंए) का उल्लंघन करने के कारण उसकी वैधानिकता को दी गई चुनौती को भी खारिज किया था। ब्रिटेन में राजद्रोह कानून को निरस्त करने के संदर्भ में भारत में भी इसे खत्म करने की जरूरत बताई गई। ऐसी टिप्पणियां करने वाले भूल जाते हैं कि अभिव्यक्ति के उन्मुक्त अधिकार और राष्ट्रीय सुरक्षा के बीच संतुलन जरूरी होता है और इसे देश के राजनीतिक माहौल पर पड़ने वाले राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम के असर से अलग करके नहीं देखा जा सकता।
एक लेख में कहा गया कि 'राजद्रोह' को अनुच्छेद 19 के खंड (2) में नहीं जोड़ा गया। इसे रोकने का कारण प्रिवी काउंसिल द्वारा इस धारा की व्याख्या रही जो संविधान बनाते समय तो कानून था, पर अब नहीं है। इसके बावजूद, सुप्रीम कोर्ट के अनुसार राजद्रोह पर अभियोजन 'व्यवस्था बनाए रखने के हित में' है और 'सार्वजनिक व्यवस्था' को पहले संशोधन के दौरान अनुच्छेद 19 के खंड (2) में जोड़ा गया।
अंतत: बलवंत सिंह मामले को उद्धृत किया गया कि कोई व्यक्ति भले ही भारत विरोधी नारे लगाए, उस पर राजद्रोह का मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। यह दृष्टिकोण अपने आप में त्रुटिपूर्ण है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 124ए की शब्दश: व्याख्या करते हुए कहा था कि राजद्रोह अपराध तब दायर होता है ''जब अभियोगी लिखित या उच्चारित शब्दों या दिखाई देने वाले संकेतों या प्रतिनिधित्व के जरिए भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति द्वेष अथवा अवज्ञा अथवा वैमनस्य भड़काने का प्रयास करता है।'' इस तरह अदालत ने धारा 124ए के दायरे को और भी फैला दिया। इस विशिष्ट मामले में अदालत ने आरोपी को इसलिए सजा नहीं दी क्योंकि नारे एक ही व्यक्ति ने, कुछ ही समय के लिए लगाए थे जिन पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई थी।
सार्थक जन-संवाद के लिए जरूरी है कि वह चिंतनशील हो, अन्यथा वह अतार्किक और वैचारिक दायरे से दूर होगा।
अमन लेखी
(लेखक सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता हैं)
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