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देश की राजधानी में पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नाम पर चल रहे विश्वविद्यालय में 'पाकिस्तान जिंदाबाद' और 'कश्मीर की आजादी' के नारे लगे और देश का सेकुलर मीडिया मौन रहा। जरा-जरा सी बात पर लंबी-चौड़ी बहसें करने वाले कहीं छिप गए। वे संपादक मानो लापता हो गए, जिन्हें राष्ट्रवाद की बातों से पेट में मरोड़ पैदा होने लगता है।
आतंकवादी अफजल गुरु की फांसी के विरोध में जेएनयू में जो कुछ हुआ वह देश में कांग्रेस, वामपंथियों और अलगाववादियों की मिली-जुली साजिश का संकेत है। ज्यादातर टीवी चैनलों ने इस खबर को दिखाने तक की जरूरत नहीं समझी। बिल्कुल वही सब हुआ जो कुछ मालदा के वक्त हुआ था। सिर्फ 'जी न्यूज' और 'टाइम्स नाऊ' ने इस खबर पर थोड़ी गंभीरता दिखाई। बाकियों ने रस्म अदायगी ज्यादा की। जिस तरह से पिछले दिनों अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर तमाशा बनाया गया था, यह सवाल उठने लगा है कि क्या यही वह आजादी है जो हमारा मीडिया और तथाकथित बुद्धिजीवी चाहते थे।
जेएनयू के ही वामपंथी छात्रों ने दिल्ली में संघ के दफ्तर के बाहर हंगामा मचाया। उन्हें रोकने के लिए पुलिस की कार्रवाई का एक छोटा सा वीडियो सोशल मीडिया के जरिए जारी कराया गया, जिसमें पुलिसवाला एक प्रदर्शनकारी लड़की को पीछे धकेलते दिखाई दे रहा है। सारे चैनलों ने बिना सचाई जाने उस वीडियो क्लिप को दिनभर चलाया। अगले ही दिन वीडियो का बाकी हिस्सा भी सामने आ गया, जिसमें प्रदर्शनकारी पुलिस को तालियां बजा-बजाकर गाली देते दिखाई दे रहे हैं।
भाषा ऐसी कि सड़कछाप मवाली भी शरमा जाएं। कुछ चैनलों ने इस फुटेज को भी जगह देकर पिछले दिन की गलती को थोड़ा सुधारने की कोशिश की, लेकिन आजतक, एबीपी न्यूज जैसे कई चैनलों ने चुप्पी साध ली। कुल मिलाकर देश में संदेश गया कि दिल्ली में संघ के कार्यालय पर 'शांतिपूर्ण' प्रदर्शन कर रहे छात्रों पर पुलिस ने अत्याचार किया।
दरअसल वामपंथी छात्र संगठनों की गुंडागर्दी का सिलसिला पूरे देश में चल रहा है। केरल में एक बुजुर्ग पूर्व राजनायिक की कैमरों के सामने बुरी तरह पिटाई की गई। लेकिन मीडिया ने छोटी-मोटी खबर दिखाकर रस्म पूरी कर ली।
दिल्ली के भारतीय जनसंचार संस्थान में फेसबुक पर दो छात्रों के वाद-विवाद को अखबारों और चैनलों ने 'दलित अत्याचार' का मुद्दा बनाने की भरसक कोशिश की। इस मामले में भी वामपंथी खेल होने की बात सामने आ चुकी है। लेकिन मीडिया ने यह पहलू देश को बताने की जरूरत नहीं समझी। इसी समाचार के साथ गाजियाबाद कांग्रेस के एक दलित नेता पर पार्टी के ही बड़े नेताओं की जातिगत टिप्पणी की खबर भी आई, लेकिन इसे लेकर न तो वामपंथियों ने जबान खोली और न ही देश की अतिसक्रिय मीडिया ने।
कुछ इसी तर्ज पर पद्म पुरस्कारों को लेकर भी विवाद पैदा करने की कोशिश हुई। एक खास तबके के लोगों के बजाय सही हकदारों को सम्मानित किए जाने का दर्द कांग्रेस से लेकर वामपंथी नेताओं तक के बयानों में झलकता रहा। मीडिया ने भी वही दिखाया जो वे चाहते थे। किसी चैनल ने यह नहीं बताया कि आजादी के इतने साल बाद पहली बार किसानों को पद्म पुरस्कार देने की परंपरा शुरू की गई है। मीडिया ने यह जानकारी मानो किसी रणनीति के तहत छिपा ली।
उधर अरुणाचल प्रदेश में जारी राजनीतिक विवाद के बीच इंडियन एक्सप्रेस अखबार ने एक गलत खबर छापकर राज्यपाल ज्योति प्रसाद राजखोवा को निशाना बनाने की कोशिश की। रिपोर्ट में बताया गया कि गोहत्या को आधार बनाकर उन्होंने राष्ट्रपति शासन की सिफारिश की थी, जबकि बाद में राज्यपाल की तरफ से जारी तथ्यों से यह खबर झूठी साबित हो गई।
महाराष्ट्र के शनि मंदिर में महिलाओं की पूजा का मुद्दा भी सुर्खियों में रहा। इसी बहाने पहली बार दरगाहों और मस्जिदों में महिलाओं के प्रवेश के अधिकार की भी चर्चा हुई। एबीपी न्यूज ने मुंबई के पास एक पाखंडी पादरी की खबर दिखाई। यह भी बताया कि सेबेस्टियन मार्टिन नाम का यह पादरी भोले-भाले लोगों को चमत्कार के नाम पर ईसाई बना रहा है। उम्मीद है कि धोखे से कन्वर्जन की बात को ही सिरे से खारिज कर देने वाला मीडिया अपनी आंखें खोलेगा और देशभर में मिशनरियों और मदरसों में हो रही जालसाजी पर भी ध्यान जाएगा।
दिल्ली-एनसीआर से चलने वाले हिंदी न्यूज चैनल भले ही खुद के 'राष्ट्रीय' होने का दावा करते हैं लेकिन ज्यादातर की सोच का दायरा बहुत सीमित है। यही वजह है कि दिल्ली और आसपास के कुछ किलोमीटर के बाहर की जगहों और लोगों के नामों में बड़ी चूक होती रहती हैं। समाचार चैनल तथ्यों के मामले में जितने लापरवाह हैं, उससे भी कहीं ज्यादा लापरवाही वर्तनी को लेकर बरती जाती है। सियाचिन में छह दिन तक बर्फ में दबे रहने के बाद जिस जवान को दिल्ली लाया गया, उसका ज्यादातर चैनलों ने सही नाम ही नहीं लिखा, न बोला। न्यूज चैनलों को क्या देश के 'हीरो' का सही नाम लिखने को लेकर थोड़ा सजग नहीं होना चाहिए? -नारद
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