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नेताजी सुभाष चंद्र बोस के रहस्यमय परिस्थितियों में गायब होने से जुड़ीं फाइलों के सार्वजनिक होने का स्वागत किया ही जाना चाहिए। इससे न केवल इतिहास के छुपाए गए पन्नों के बारे में जानकारी उपलब्ध होगी बल्कि सरकारी दस्तावेजों को सार्वजनिक करने की प्रक्रिया में पारदर्शिता भी आएगी।
नेताजी सुभाषचंद्र बोस की 119वीं जयंती के अवसर पर 23 जनवरी, 2016 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उनके जीवन से जुड़ीं 100 फाइलें सार्वजनिक की हैं। योजना है कि नेताजी के जीवन से जुड़ीं 25 फाइलें हर महीने सार्वजनिक की जाएंगी।
इन फाइलों ने हमें नेताजी सुभाष बोस और उनके अचानक गायब होने से जुड़ी जानकारियों को दबाने की कोशिशों को लेकर रही कांग्रेसी नेताओं की खास तरह की मानसिकता का विश्लेषण करने का एक मौका दिया है। हमारे पौराणिक ग्रंथों में ब्रह्मा, विष्णु और महेश, इन तीन देवताओं को इस ब्रह्मांड को चलाने का जिम्मेदार माना जाता है। गहराई से अध्ययन करने पर कुछ ग्रंथों में मतभेद देखे जा सकते हैं लेकिन उन भेदों के बाद भी सब एक-दूसरे का सम्मान करते हैं और एक-दूसरे के प्रति समर्पित हैं, क्योंकि उनका मुख्य उद्देश्य है ब्रह्मांड को संचालित करना। कांग्रेस नेतृत्व ने हमारे देश का शासन चलाते वक्त शायद हमारी संस्कृति के इस बुनियादी पहलू को नहीं समझा था।
27 दिसम्बर, 1945 की सार्वजनिक हुई फाइल में स्व. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का नेताजी के संबंध में तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली को लिखा पत्र है। इस पत्र में नेहरू ने नेताजी के लिए 'आपके युद्ध अपराधी' शब्द इस्तेमाल किए हैं, जबकि नेताजी पार्टी में उनके सहयोगी थे और कांग्रेस के झंडे तले ही ब्रिटिश राज से लड़े थे। वैचारिक भेदों के बावजूद उनको युद्ध अपराधी कहना किसी भी स्वतंत्रता सेनानी के लिए बेहद अपमानजनक बात है। ये चीज नेहरू के व्यक्तित्व और सोच को दर्शाती है।
स्वाभाविक ही, कांग्रेस प्रवक्ता आनंद शर्मा ने फौरन कहा कि यह पत्र फर्जी है क्योंकि इस पर नेहरू के हस्ताक्षर नहीं हैं, लेकिन यह भी संभव है कि यह संदेश टेलीग्राम, टेलीफैक्स या टेलीप्रिंटर के जरिए भेजा गया हो जिसमें दरअसल हस्ताक्षर की जरूरत नहीं होती। जैसा कि नेहरू के स्टेनोग्राफर श्यामलाल जैन ने दावा किया था कि उनको 1974 में खोसला आयोग के सामने अपना पक्ष प्रस्तुत करते हुए वही चीज लिखने को कहा गया था। इस पत्र की और जांच की जानी चाहिए।
मैं जब मास्को में था तब मैंने अभिलेखागार में एक फाइल देखी थी जिसमें भाकपा प्रतिनिधिमंडल की स्टालिन के साथ एक बैठक का उल्लेख था। लिखा था कि स्टालिन ने भाकपा प्रतिनिधिमंडल से पूछा था कि नेहरू के बारे आप क्या सोचते हैं? इस पर प्रतिनिधिमंडल का जवाब था-'बुर्जुआ'। मुझे बताया गया कि स्टालिन कभी विजयलक्ष्मी पंडित से नहीं मिले थे जो रूस में हमारी पहली राजदूत और पंडित नेहरू की सगी बहन थीं। कई लोग मानते हैं कि नेताजी के गायब होने से नेहरू और स्टालिन के कड़वे रिश्तों का भी कुछ संबंध है। दुर्भाग्य कि सामने आए ये दस्तावेज इस पर कोई प्रकाश नहीं डालते। इसी तरह गुप्तचर ब्यूरो के पूर्व निदेशक टी.वी. राजेश्वर ने श्रीमती इंदिरा गांधी को 1976 में एक नोट लिखकर दिया था कि उनको जापान से नेताजी की अस्थियां वापस नहीं लानी चाहिए, क्योंकि इससे फारवर्ड ब्लॉक तथा दूसरे राजनीतिक दलों को मजबूती हासिल हो सकती है। इस सुझाव के आधार पर इंदिरा गांधी नेताजी की अस्थियां भारत नहीं लाईं। यह सब उन्होंने असल में अपने पिता पंडित नेहरू की मानसिकता पर चलते हुए ही किया था।
सार्वजनिक हुईं फाइलों के अनुसार, मुझे पता चला कि 1967 में जापान के सेना जनरल ही इवाइची फूजीवारा की तरफ से एक संयुक्त जांच का प्रस्ताव आया था जिसके लिए श्रीमती गांधी ने इनकार कर दिया था।
फरवरी, 1995 में पद्मनाभैया द्वारा हस्ताक्षरित एक नोट पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव के लिए प्रस्तुत किया गया था जिसमें लिखा था कि नेताजी मर चुके हैं। एक और फाइल कहती है कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2006 में आई मुखर्जी आयोग की रपट को नकार दिया था। यह असल में हैरानी की बात नहीं है क्योंकि इन नेताओं की रोजी-रोटी तो नेहरू-गांधी परिवार की लोकप्रियता के ईद-गिर्द ही रहती है और इसी वजह से नेहरू-गांधी परिवार के खिलाफ कुछ भी नहीं किया जाता।
पूरा देश बड़ी बेसब्र्री से उस सच को जानने का इंतजार कर रहा है जो नेहरू द्वारा यू.के. के प्रधानमंत्री को 27 दिसम्बर, 1945 में लिखे पत्र में उल्लिखित है, जिसमें उन्होंने लिखा है कि नेताजी रूस जा चुके हैं। हमें उम्मीद है कि आने वाले समय में सामने आने वाली फाइलों से यह सच सबके सामने आएगा।
रूसी पहलू
भारत में नेताजी से जुड़े दो आयाम मशहूर हैं-
1. गुमनामी बाबा-भगवान जी, फैजाबाद
2. शौलमारी आश्रम के साधु सारदानंद
पूर्व में हमारी राज्य सरकार की गुप्तचरी दोनों पर बारीक नजर रखे हुए थी, पर सामने आए उपलब्ध दस्तावेजों के अनुसार उस पर आगे कभी कुछ किया नहीं गया। अनुज धर के सतत प्रयासों की वजह से साधु सारदानंद के मुकाबले गुमनामी बाबा की कथा ज्यादा मशहूर हुई।
इस सार्वजनीकरण ने दृश्य में एक तीसरा पहलू भी जोड़ दिया है। दूसरे विश्वयुद्ध में जर्मनी और जापान के ढहने के बाद नेताजी ने शायद रूस जाने की कोशिश की थी। जैसा कि दस्तावेज इशारा करते हैं, वे टोकियो में रूसी राजदूत मालीक याकोब एलेक्जेंडरोविच के जरिए रूस के सतत संपर्क में थे। शायद रूस सार्वजनिक रूप से नेताजी को राजनीतिक शरण नहीं देना चाहता था, तब शायद विमान दुर्घटना की कहानी ईजाद की गई। रूस से ध्यान हटाने के लिए, नेताजी के भूमिगत होने की अफवाहें फैलाई गईं। रूस और भारत में उनके कम्युनिस्ट पिट्ठुओं के लिए यह सुभीते की बात थी। नेहरू शायद इसे जानते थे और इसीलिए उन्होंने नेताजी के परिवार पर नजर रखी और उनकी बेटी अनीता बोस को आर्थिक मदद भी उपलब्ध करायी ताकि कोई इस रहस्य की गंभीर जांच की मांग न उठाए। रूस की जेल में यातना भोगने वाले अनेक क्रांतिकारियों की तरह, नेताजी ने भी शायद वही सब झेला होगा।
जहां तक पहले के आयोगों, जैसे शाहनवाज कमेटी, की बात है जिन्होंने विमान दुर्घटना की बात को मान्य किया था, यह जाना-माना तथ्य है कि एक शाहनवाज ही थे जिन्होंने आईएनए के मुकदमों की सुनवाई की थी और नेहरू के नजदीकी थे। वे 1951 में कांग्रेस के टिकट पर सांसद भी बने और 1977 तक मंत्री रहे। उन्होंने वास्तव में तो ताइवान सरकार का पक्ष लेने जाने से भी यह कहकर इनकार कर दिया था कि भारत के उस देश के साथ कूटनीतिक संबंध नहीं हैं। नेताजी के भाई और इस कमेटी के सदस्य, सुरेश बोस ने कमेटी की रपट को स्वीकारने से इनकार कर दिया था। इसी तरह खोसला आयोग ने भी ताइवान सरकार के उस पक्ष पर कान नहीं दिये थे कि कोई विमान दुर्घटना हुई ही नहीं थी। मुखर्जी आयोग-1 ही एकमात्र आयोग था जिसने ताइवान सरकार के पक्ष की जांच की थी और रूस वाले आयाम को जांचने की कोशिश की थी, जिसे संप्रग सरकार ने पूरी तरह नकार दिया था।
एक और आयाम है, जिसकी आगे जांच की जानी चाहिए। नेताजी ने आईएनए को खड़ा करने के लिए भारी मात्रा में पैसा जमा किया था। वे सिंगापुर से निर्वासित सरकार चला रहे थे। सिंगापुर अभिलेखागार में ऐसी अखबारी कतरनंे हैं जो बताती हैं कि नेहरू लार्ड माउंटबेटन की सलाह पर सिंगापुर गए थे और वहां कई बैंक अधिकारियों से मिले थे। इसके पीछे क्या उद्देश्य था? क्या इसका आईएनए फंड में गड़बड़ी करने से कोई सरोकार था? इस मुद्दे की आगे जांच होनी चाहिए। उम्मीद है भविष्य में और दस्तावेज सामने आने पर सच भी सामने आएगा।
दस्तावेज सार्वजनिक करने की नीति बने
नेेताजी सुभाष बोस से जुड़ी फाइलों के सार्वजनिक होने से पारदर्शी प्रशासनतंत्र में एक नयी उम्मीद जगी है जिसके अंतर्गत मतदाताओं, नागरिकों और करदाताओं को जानने का अधिकार दिया गया है। आमतौर पर सार्वजनिक नीति के मामलों से जुड़े निर्णयों को छुपाने के नौकरशाही के चलन में यह बहुत बड़ी मुसीबत है। नेताजी की फाइलों से शुरुआत होने के बाद एक क्रमबद्ध तरीके से दस्तावेजों को सार्वजनिक करने की नीति निर्धारित करने का एक रास्ता खुला है। तकरीबन सभी देशों ने ब्रिटिश मॉडल को अपनाया हुआ है जिसके अनुसार सभी सरकारी दस्तावेजों को 30 साल बाद फिर से देखा जाता है और उसके बाद राष्ट्रीय अभिलेखागारों के सुपुर्द कर दिया जाता है। इस मॉडल के तहत वर्तमान दस्तावेजों की पुनर्समीक्षा करते हुए वर्गीकृत दस्तावेजों की अगली समीक्षा की तिथि भी तय की जाती है। कुछ मामलों में दस्तावेजों को सार्वजनिक किए जाने की अवधि 50 साल है, जबकि अत्यधिक गोपनीय मामलों में यह 75 साल तक है। अमेरिका में कई कानून हैं जिनके तहत नागरिक राष्ट्रीय अभिलेखागारों में दस्तावेजों को देख सकते हैं अथवा पत्राचार से प्राप्त कर सकते हैं।
भारत में इस संबंध में मुख्यत: दो कानून हैं-सार्वजनिक रिकार्ड कानून-1993 और सूचना का अधिकार कानून, जिसके तहत प्रशासनिक जानकारी ली जा सकती है। लेकिन प्रतिरक्षा, विदेश मामले, गृह मंत्रालय, शासन में हमारे नेताओं की भूमिका तथा गुप्तचर दस्तावेज नौकरशाहों और राजनीतिज्ञों द्वारा हमेशा वर्गीकृत श्रेणी में रखे जाते रहे हैं नतीजतन सच कभी सामने नहीं आता। यू.के. में दूसरे विश्वयुद्ध में गुप्तचरी की भूमिका पर पांच खंड जारी किए गए हैं जबकि भारत में इस मामले में शायद ही कोई गुप्तचरी का दस्तावेज जनता के सामने उपलब्ध है। यहां तक कि बंगलादेश युद्ध को हुए 45 वर्ष हो चुके हैं लेकिन अब भी शोधकर्ताओं के लिए कोई दस्तावेज जारी नहीं किया गया है। ज्यादातर देशों में शीतयुद्ध काल में सरकारें गोपनीयता बरतती थीं जब महाशक्तियों में दुश्मनी चरम पर थी, लेकिन तब भी घरेलू नीतियों के दस्तावेज समय-समय पर सार्वजनिक किए जाते रहे हैं। आज हमारे यहां नेताओं की चौथी या पांचवीं पीढ़ी निर्णय लेने के पदों पर बैठी है। इसलिए हमारी पहुंच पहली पीढ़ी के नेताओं और उनसे जुड़ी घटनाओं से संबंधित दस्तावेजों तक होनी चाहिए। इसमें संदेह नहीं है कि कुछ दस्तावेज संवेदनशील हैं और राष्ट्रीयहित में बेहतर होगा कि वे सार्वजनिक न किए जाएं। ऐसी फाइलों को बेहद संवेदनशील के तौर पर चिन्हित किया जा सकता है। बाकी के दस्तावेजों के संबंध में एक अवर्गीकरण नीति बनाई जा सकती है जो भारत के इतिहास और लोकनीति के क्षेत्र में शोध की राह खोल सकती है।
कुछ उदाहरण, जो आज भी शोध की दृष्टि से मूल्यवान हो सकते हैं
ल्ल कहा जाता है कि पंडित नेहरू को महात्मा गांधी पर हमले की संभावनाओं से जुड़ी जानकारी थी, लेकिन उन्होंने इसे तत्कालीन गृहमंत्री पटेल के साथ साझा नहीं किया। 68 साल बाद भी हमें सच नहीं मालूम।
ल्ल डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु अब भी एक रहस्य बनी हुई है। यह भी 63 साल पुराना मुद्दा है और इस संबंध में आज तक कुछ भी हासिल नहीं है।
ल्ल हमारे स्व. प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की ताशकंद में स्तब्ध करने वाली मृत्यु का मुद्दा भी 50 साल पुराना है। हमें पता होना चाहिए कि उनकी क्या चिकित्सा की गई थी और किस वजह से शास्त्री जी की मृत्यु हुई थी।
क्या थी रपट नेताजी जांच कमेटी (1956) की
श्री शाहनवाज खान, सांसद (मेजर जनरल, आईएनए)
श्री सुरेश चंद्र बोस, नेताजी सुभाष बोस के बड़े भाई
श्री एस.एन. मैत्रा, आईसीएस, मुख्य आयुक्त
अनुशंसा
कमेटी इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस की विमान दुर्घटना में मृत्यु हुई थी, और कि रैंकोजी मंदिर, टोकियो में रखीं अस्थियां उनकी ही हैं। नेताजी सुभाषचंद्र बोस की मृत्यु दस साल पहले हुई थी। अब अस्थियों को पूरे सम्मान से भारत लाना चाहिए और एक उपयुक्त स्थान पर समाधि बनाई जानी चाहिए। हम यह बात भारत सरकार के गंभीर विचार हेतु संज्ञान में लाना चाहते हैं। नेताजी की पुण्य स्मृतियों को सम्मानित किया जाना चाहिए और उनके आदर्शों को जीवित रखा जाना चाहिए।
17 मई, 2006 को सार्वजनिक की गई न्यायमूर्ति मुखर्जी जांच आयोग की रपट
तमाम तथ्यों और परिस्थितियों को देखने पर ऐसा तय लगता है कि 17 अगस्त, 1945 को साइगोन में विमान पर सवार होकर नेताजी मित्र देशों की सेनाओं से बचने और उनकी पहुंच से दूर निकल जाने में कामयाब हो गए थे। इस चीज को छुपाने के लिए विमान दुर्घटना की कहानियां उड़ाई गईं। उसमें नेताजी की मृत्यु और उनके संस्कार की बातें जापानी सेना अधिकारियों की ईजाद की गई थीं, जिसमें दो डॉक्टर और हबीबुर रहमान भी शामिल थे। और यह खबर 23 अगस्त, 1945 को प्रसारित की गई।
नेताजी की गुमशुदगी की जांच हेतु गठित एक सदस्यीय आयोग की रपट (1970-74)
एकमात्र सदस्य थे- पंजाब उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश जी.डी. खोसला
1945 के बाद कई मौकों पर और कई स्थानों पर बोस को देखे जाने की अनगिनत कथाएं पूरी तरह झूठी और मान्य किए जाने योग्य नहीं हैं। वे या तो खामख्याली का नतीजा है या ऐसे लोगों द्वारा ईजाद की गई है जो अपने पर ध्यान खींचना चाहते थे और खुद को लोगों की भलाई करने वाला इंसान कहकर प्रचारित करना चाहते थे।
भारत सरकार ने नेताजी सुभाषचंद्र बोस से संबंधित फाइलों को सार्वजनिक करने और उनको आम जनता के लिए उपलब्ध कराने का निर्णय लिया। नेताजी के परिजनों के साथ 14 अक्तूबर, 2015 को हुई भेंट में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सरकार के इस निर्णय की घोषणा की थी। सार्वजनिक की गईं 33 फाइलों की पहली खेप प्रधानमंत्री कार्यालय ने 4 दिसंबर, 2015 को राष्ट्रीय अभिलेखागार के सुपुर्द की। इसी के साथ नेताजी से जुड़ी और सार्वजनिक की गई फाइलें गृह मंत्रालय, विदेश मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय से अभिलेखागार में भेजी गईं। पहले चरण में नेताजी से संबंधित 100 फाइलों की डिजिटल प्रतियां सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध करा दी गईं। इससे लोगों की लंबे अरसे से उठ रही मांग पूरी हुई। इन फाइलों के सार्वजनिक किए जाने से शोधकर्ताओं को नेताजी के बारे में और अधिक शोध करने में मदद मिलेगी। राष्ट्रीय अभिलेखागार ने सार्वजनिक की गईं फाइलों में से 25-25 फाइलों की डिजिटल प्रतियां हर महीने आम लोगों के लिए उपलब्ध कराने का निर्णय लिया है।
दीपक कुमार
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